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ज्ञानवापी मस्जिद : मुस्लिम पक्ष की सबसे मज़बूत दलील : रिपोर्ट

अगर आप मस्जिद और मंदिर पक्ष दोनों के क़ानूनी दस्तावेज़ों की गहराइयों में जाने की कोशिश करेंगे, तो इस विवाद से जुड़ा आपके मन में एक सवाल ज़रूर आएगा कि पहले क्या था- मंदिर या मस्जिद?

और यही सवाल क़ानूनी लड़ाई की आधारशिला है.

तो जानते हैं कि हिन्दू पक्ष मंदिर की स्थापना और उसके अस्तित्व के बारे में क्या कहता है और मुस्लिम पक्ष मस्जिद के अस्तित्व के बारे में क्या कहता है.

मंदिरपक्ष कहता है कि भगवान विश्वेश्वर का मंदिर अब से तकरीबन 2050 साल पहले राजा विक्रमादित्य ने बनवाया था. वहाँ पौराणिक काल से भगवान शिव का स्वयंभू ज्योतिर्लिंग मौजूद है, जो भगवान विश्वेश्वर के नाम से भी लोकप्रिय है. यह मंदिर भारत में मुस्लिम शासकों के शासनकाल के पहले अस्तित्व में था. मंदिर पक्ष के मुताबिक़ यह ज्योतिर्लिंग देश भर में मौजूद 12 ज्योतिर्लिंगों में से सबसे पवित्र माना जाता है.

मस्जिद पक्ष का दावा है कि मस्जिद एक हज़ार साल से भी ज़्यादा पुरानी है, जहाँ मुसलमान रोज़ नमाज़ अदा कर रहे हैं.

मस्जिद पक्ष कहता है कि प्लॉट नंबर 9130 पर मौजूद ढाँचे का नाम आलमगीरी या ज्ञानवापी है.

लेकिन ज्ञानवापी नाम आया कहाँ से?

इस बारे में मंदिर पक्ष का मानना है कि मौजूदा ज्ञानवापी परिसर में एक प्राचीन कुआँ है और उसे ख़ुद भगवान विश्वेश्वर ने सतयुग में अपने त्रिशूल से खोदा था और वो अब भी अपनी मूल जगह मौजूद है. इस कुएँ का नाम ज्ञानवापी पड़ा और उसी के नाम से पूरे परिसर का नाम भी ज्ञानवापी हो गया, जिसमें आज मस्जिद मौजूद है.
अपनी याचिका में मंदिर पक्ष लिखता है कि मुग़ल शहंशाह अकबर के शासनकाल में, “संत श्री नारायण भट्ट के आग्रह पर काशी विश्वनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण की इजाज़त मिली और ज्ञानवापी परिसर में मंदिर के मूल स्थान पर नारायण भट्ट ने अपने शिष्य और शहंशाह अकबर के वित्त मंत्री राजा टोडरमल की मदद से मंदिर बनवाया.”

क्या औरंगज़ेब ने मंदिर ध्वस्त करने का दिया था फ़रमान?

मंदिर पक्ष की तरफ़ से सबसे अहम दावों में से एक यह दावा है कि आदि विश्वेश्वर के मंदिर को मुग़ल शासक औरंगज़ेब के शासनकाल में तोड़ा गया था और बाद में उसी स्थान पर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण किया गया. मंदिर पक्ष यह दावा साक़ी मुस्ताद ख़ान की लिखी किताब मासिर-ए-आलमगीरी के आधार पर करता है जिसमें औरंगज़ेब के शासन का इतिहास बताया गया है.

मंदिर पक्ष कहता है कि मासिर-ए-आलमगीरी में लिखा है:

“18 अप्रैल 1669 को सम्राट औरंगज़ेब के पास ग़लत सूचना पहुँची कि थट्टा (अब पाकिस्तान में सिंध प्रांत में), मुल्तान और बनारस में मूर्ख ब्राह्मण शैतानी इल्म पढ़ाते हैं, जिसे सीखने वालों में हिन्दुओं के साथ-साथ मुसलमान भी हैं.”
इसमें आगे लिखा है:
“इसलिए सम्राट औरंगज़ेब ने काफ़िरों के ऐसे विद्यालयों और मंदिरों को ध्वस्त करने का आदेश दिया और अधिकारियों को मूर्ति पूजा के रूप पर पूर्ण रोक लगाने का आदेश दिया.”

मंदिर के हिस्से को तोड़ने के बारे में इसमें लिखा है:
“18वीं रबी-उल-आख़िर को बादशाह औरंगज़ेब के आदेश का पालन करते हुए शाही अधिकारियों ने ज्ञानवापी परिसर में मौजूद भगवान विश्वेश्वर के मंदिर को आंशिक रूप से नष्ट कर दिया.”

मंदिर पक्ष के वकील विजय शंकर रस्तोगी अपनी याचिका में लिखते हैं, “विश्वनाथ यानी विश्वेश्वर मंदिर के विध्वंस की इन घटनाओं का उल्लेख एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल की 1871 में अरबी में छपी मासिर-ए-आलमगीरी में किया गया है.”

मंदिर पक्ष के इन दावों के बारे में मस्जिद पक्ष कहता है, “1669 में किसी शहंशाह के फ़रमान का पालन करते हुए कोई मंदिर नहीं तोड़ा गया था. मस्जिद अंजुमन इंतेज़ामिया मसाजिद के कब्ज़े में रही है और किसी दूसरे व्यक्ति या संस्थान के कब्ज़े में कभी नहीं रही है.”
मस्जिद पक्ष मंदिर पक्ष के इन दावों के बारे में कहता है, “हिन्दू पक्ष का दावा है कि 15 अगस्त 1947 से पहले औरंगज़ेब ने ढाँचा गिराने का आदेश दिया था. इसके लिए वे किताबों का हवाला देते हैं. हम पूछना चाहते हैं कि जिन स्रोतों का वे हवाला दे रहे हैं, क्या वे भारत के या उत्तर प्रदेश सरकार के राजपत्र हैं? किसी ने वहाँ जाकर कुछ देखा होगा और लिखा होगा. हम लेखक की मंशा पर संदेह नहीं कर रहे हैं. लेकिन हमारे लिए ‘कट ऑफ़ डेट’ 15 अगस्त 1947 है. हमारे लिए 300 साल, 700 साल या 1500 साल के इतिहास को देखने का कोई मतलब नहीं है.”

कौन है विवादित संपत्ति का मालिक? किसके पास क्या सबूत?

हिन्दू और मुस्लिम पक्ष मंदिर और मस्जिद का अस्तित्व साबित करने के लिए इतिहासकारों के लेखों, धार्मिक ग्रंथों, सरकारी दस्तवेज़ों और नक्शों का सहारा लेते हैं.
हमने दोनों पक्षों के दावों से जुड़े दस्तावेज़ों को आमने-सामने पेश करने की कोशिश की है.

ज्ञानवापी की ज़मीन के स्वामित्व से जुड़े दो मुक़दमे हैं. एक 1991 में दाख़िल किया गया वकील विजय शंकर रस्तोगी की ओर से मुक़दमा और दूसरा जनवरी 2023 में मान बहादुर और अनुपम द्विवेदी की ओर से बनारस की ज़िला जज की अदालत में दाख़िल मुक़दमा. वकील विजय शंकर रस्तोगी 1991 के अपने मुक़दमे में दावा करते हैं कि प्लॉट नंबर “9130, 9131 और 9132 की लगभग एक बीघे, 9 बिस्वा और 6 धुर भूमि में भगवान विश्वेश्वर का एक मंदिर है.”

दावा है कि ज्ञानवापी परिसर के बीच में पौराणिक काल का भगवान शिव का स्वयंभू ज्योतिर्लिंग है, जिसका उल्लेख स्कंदपुराण, काशी खंड और अन्य पुराणों में मिलता है.

याचिका में दूसरे देवी-देवता श्रृंगार गौरी, गंगेश्वर गंगादेवी, हनुमान, नंदी, श्री गौरी शंकर, भगवान गणेश, अन्य दृश्य-अदृश्य देवी-देवता के मौजूद होने का दावा भी है. दावा है कि इसमें नौबतखाना भी शामिल है और पहले हिन्दू जिसका पूजा अर्चना में इस्तेमाल करते आ रहे हैं और जो हिन्दुओं के कब्ज़े में हैं.

दो नक़्शे और दोनों के दावे

1991 की ज़मीन के स्वामित्व की याचिका में एक नक्शा भी लगाया है जिसमें परिसर में पहले रहे भगवान विश्वेश्वर के मंदिर का स्थान, मंदिर परिसर के बंद किए गए दरवाज़ों, एक तहखाना (जिसे वो हिन्दू पक्ष के कब्ज़े में बताते हैं) और परिसर के इर्द गिर्द दूसरे हिन्दू देवी देवताओं की मौजूदगी दर्शाई गई है.

इस नक़्शे की तुलना मस्जिद पक्ष के नक़्शे से की जा सकती है. ज्ञानवापी को मस्जिद साबित करने के लिए 1942 के दीन मोहम्मद के फ़ैसले का सहारा लिया गया है.

मस्जिद पक्ष की ओर से पेश किए गए इस दशकों पुराने नक़्शे में ज्ञानवापी के परिसर में मौजूद क़ब्रें दिखाई देती हैं. इसमें मस्जिद में प्रवेश का दरवाज़ा साफ़ देखा जा सकता है. लेकिन जिसे मंदिर पक्ष पुराने मंदिर का दरवाज़ा बताता है, उसे इस नक़्शे में सिर्फ़ ‘पुराने दरवाज़े’ बताया गया है.

नक़्शे में श्रृंगार गौरी (जहाँ हिन्दू पक्ष अदालत से रोज़ पूजा अर्चना की अनुमति चाहता है) उसे मस्जिद के पुराने दरवाज़े से तकरीबन 25 फ़ीट की दूरी पर बताया गया है. इस नक़्शे को मुस्लिम पक्ष ज्ञानवापी मस्जिद के अस्तित्व का ठोस प्रमाण मानता है.

मस्जिद पक्ष के वकील एसएफ़ए नक़वी कहते हैं:

“दीन मोहम्मद के 1942 के फ़ैसले से ज्ञानवापी के नक़्शे के हमारे साक्ष्य, नकल खसरा और भू-अभिलेख से पता चलता है कि 15 अगस्त 1947 से पहले मौजूद संरचना एक मस्जिद थी. एक बार जब यह पूर्व अदालती कार्यवाही और न्यायिक आदेशों से साबित हो जाता है, तो संरचना के स्वामित्व के मुद्दे की बार-बार जाँच करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है.”

 

 

मस्जिद के ढाँचे में मंदिर के सबूत?

मंदिर पक्ष बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर और कल्चरल हिस्ट्री विभाग के अध्यक्ष डॉ एएस अल्टेकर की 1930 के दशक में छपी किताब का सहारा लेता है. उनकी किताब “हिस्ट्री ऑफ़ बनारस” में मस्जिद परिसर में निर्माण की प्रकृति का विवरण देते हुए कहा गया है कि मस्जिद का अधिकतर हिस्सा प्राचीन मंदिर के स्तम्भों पर खड़ा है. “औरंगज़ेब के इंजीनियरों ने मंदिर के ढाँचे, मंदिर का काफ़ी कुछ हिस्सा बनाए रखते हुए मस्जिद का निर्माण किया था.”

डॉ अल्टेकर कहते हैं, “परिसर के पूर्वी हिस्से में हिन्दू मंडप को भारी पत्थर की सिल्ली से कवर करके बनाया गया था. मंदिर के मंडप का एक हिस्सा मस्जिद के आँगन में अब भी मौजूद है. मस्जिद की पश्चिमी दीवार के पीछे श्रृंगार गौरी देवी की एक मूर्ति है, जिसकी पुरातन समय से पूजा होती चली आ रही है.”\

किताब में विश्वनाथ मंदिर के गर्भगृह को बंद करने का भी विवरण है और मंदिर के गर्भगृह को मस्जिद के मुख्य हॉल में तब्दील किए जाने का दावा है.

मंदिर पक्ष का दावा है कि डॉ एएस अल्टेकर ने अपनी किताब में लिखा था कि “हिन्दू आज भी वहाँ पूजा करते हैं.”

चित्रों में मस्जिद के पीछे मंदिर दर्शाया गया

मंदिर पक्ष कहता है कि 1822 में जर्नल ऑफ़ एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल के संस्थापक संपादक जेम्स प्रिन्सेप ने अपनी किताब ‘बनारस इलस्ट्रेटेड’ में एक चित्र “टेम्पल ऑफ़ विश्वेश्वर” में ज्ञानवापी मस्जिद के पीछे वाले हिस्से को दर्शाया है और लिखा है कि “मस्जिद के चबूतरे को पुराने काशी विश्वनाथ मंदिर के चबूतरे के रूप में हिंदू पूजते थे”.

1868 में एक ईसाई मिशनरी एमए शेरिंग ने भी लिखा था कि औरंगज़ेब के हुक्म से नष्ट किए गए मंदिर के “विस्तृत अवशेष” अभी भी दिखाई दे रहे हैं, जो मस्जिद की “पश्चिमी दीवार का एक बड़ा हिस्सा” बने हुए हैं.”

प्रिन्सेप और शेरिंग की किताबों को हिन्दू पक्ष मंदिर के अस्तित्व से जुड़ा अहम साक्ष्य मानता है.

किताबों के आधार पर मंदिर पक्ष के दावों के बारे में मस्जिद पक्ष के वकील एसएफ़ए नक़वी कहते हैं, “हम इन्हें नकार या स्वीकार नहीं कर सकते. 300 साल पहले किसी ने क्या लिखा और किन परिस्थितियों में लिखा, हम इस पर टिप्पणी करने की स्थिति में नहीं हैं. उन्होंने जो लिखा उसके पीछे कई कारक हो सकते हैं. जैसे कि लेखक का झुकाव. हम केवल सरकारी अधिसूचनाओं या गजट पर ही भरोसा कर सकते हैं. अन्यथा सब कुछ इतिहास है. उसी अवधि के लिए, कोई इतिहास के एक संस्करण पर भरोसा कर सकता है और मैं इतिहास के दूसरे संस्करण पर भरोसा कर सकता हूँ और हम एक दूसरे का खंडन करते रहेंगे.”

खसरा खतौनी और सरकारी भूलेख

ज्ञानवापी का प्रबंधन देखने वाली अंजुमन इंतेज़ामिया मसाजिद उसे अपनी संपत्ति साबित करने के लिए सबसे पहले सरकारी रिकार्ड्स में मौजूद खसरा खतौनी पेश करती है.
इसमें उर्दू में समय-समय पर की गई खसरा-खतौनी की एंट्री दिखाई देती है. मुस्लिम पक्ष 16 अगस्त 2016 को हासिल किए गए राजस्व भूलेख में मौजूद ज्ञानवापी मस्जिद के परिसर नक़्शे को भी अपने पक्ष में अहम सबूत मानता है.

क्या ज्ञानवापी वक़्फ़ की ज़मीन पर है या नहीं ?

मस्जिद पक्ष यह दावा करता है कि ज्ञानवापी मस्जिद एक वक़्फ़ संपत्ति है और इस लिहाज़ से वहाँ एक मंदिर नहीं हो सकता है. इसी आधार पर मुस्लिम पक्ष चाहता रहा है कि ज्ञानवापी से जुड़े मुक़दमों की सुनवाई अदालत के बजाय वक़्फ़ ट्राइब्यूनल में होनी चाहिए.

मस्जिद समिति का कहना है कि ज्ञानवापी मस्जिद एक वक़्फ़ संपत्ति है जिसका वक़्फ़ नंबर 100 (बनारस) है.

इसे वक़्फ़ साबित करने के लिए मस्जिद पक्ष दीन मोहम्मद के मामले में 1942 में दिए गए फ़ैसले का हवाला देता है कि ज्ञानवापी को एक वक़्फ़ संपत्ति पाया गया था और उसमें मुसलमानों को नमाज़ अदा करने का अधिकार माना गया था.

इस फ़ैसले में लिखा गया है, “यह घोषित किया जाता है कि सिर्फ़ मस्जिद और उसके आँगन की ज़मीन हनफ़ी मुस्लिम वक़्फ़ की संपत्ति है और मुसलमानों को मस्जिद में और उसके आँगन में इबादत की इजाज़त है. साथ ही मस्जिद में मौजूद दो क़ब्रों पर साल में एक बार उर्स मनाने की इजाज़त है और मस्जिद की छत पर जाने की और नमाज़ अदा करने की इजाज़त है.”

लेकिन हिन्दू पक्ष इसे ग़लत साबित करने के लिए कुछ दावे पेश करता है.

हिन्दू पक्ष का कहना है कि ज्ञानवापी के वक़्फ़ का रजिस्ट्रेशन ‘ग़ैर-क़ानूनी और पाप’ है क्योंकि यह ऐसी मस्जिद का मामला है, जो एक मंदिर को तोड़कर बनी है.

मंदिर पक्ष कहता है, “हिन्दू देवता को निहित संपत्ति हमेशा देवता की होती है, लिहाज़ा संपत्ति में वक़्फ़ नहीं बनाया जा सकता है. विवादित संपत्ति स्वयंभू भगवान की है. ज्ञानवापी मामले में वक़्फ़ एक्ट लागू नहीं होता है क्योंकि उसके लागू होने के लिए दोनों पक्षों का मुसलमान होना ज़रूरी है, किसी संपत्ति को वक़्फ़ संपत्ति तभी बनाया जा सकता है जब उस संपत्ति का मालिक उसे वक़्फ़ के तौर पर समर्पित करे. वक़्फ़ संपत्ति बनाते समय आस-पास रह रहे लोगों और वक़्फ़ घोषित होने से प्रभावित होने वाले लोगों से पूछताछ करती है. ज्ञानवापी को वक़्फ़ नंबर 100 घोषित करने में इस प्रक्रिया के पालन होने का कोई सबूत नहीं है.”

इस बारे में मस्जिद समिति के वकील एसएफए नक़वी कहते हैं, “इस मुद्दे पर भी वे (हिन्दू पक्ष) 300 साल पहले के युग में जी रहे हैं. आज तक किसी ने भी इलाहाबाद हाई कोर्ट के 1942 के दीन मोहम्मद के फ़ैसले को अदालत में चुनौती नहीं दी है, जिसमें कहा गया था कि ज्ञानवापी एक वक़्फ़ संपत्ति है. अदालत का वह निष्कर्ष आज भी बरकरार है. एक बार जब अदालत ने कहा है कि ज्ञानवापी एक वक्फ संपत्ति है, तो याचिकाकर्ता ये कहने वाले कौन होते हैं कि कई साल पहले यह हुआ था और वो हुआ था. वे (हिन्दू पक्ष) घड़ी को पीछे घुमाने की कोशिश कर रहे हैं.”

श्रृंगार गौरी की पूजा के अधिकार का मामला?

ज्ञानवापी की ज़मीन के स्वामित्व से जुड़े मामले के अलावा 2021 में पाँच हिन्दू महिलाओं ने वाराणसी की अदालत में एक नया मुक़दमा दाखिल किया और माँ श्रृंगार गौरी से जुड़े तकरीबन 19 मुक़दमे अब अदालतों में अलग-अलग स्तर पर चल रहे हैं.

और यही वो मामला है, जिसमें भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) , ज़िला न्यायलय, उच्च न्यायालय सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर वैज्ञानिक सर्वे कर रहा है, जिससे दोनों पक्षों को उनके दावों के समर्थन में सबूत मिलने की उम्मीद है.

16.08.2021 को पाँच महिला याचिकाकर्ताओं – राखी सिंह, लक्ष्मी देवी, सीता साहू, मंजू व्यास, रेखा पाठक ने वाराणसी की निचली अदालत में याचिका दायर की थी.

अपने आप को शिव भक्त बताते हुए इन पाँच महिलाओं ने कहा कि –

– वो काशी में त्रेता युग में लाखों साल पहले स्थापित आदिविशेश्वर ज्योतिर्लिंग जाती हैं.

– सनातन धर्म के ग्रंथों के मुताबिक़ भगवान शिव ने काशी में पाँच कोस के दायरे में अविमुक्त क्षेत्र स्थापित किया था, जो हिन्दुओं के लिए एक पवित्र और पूज्य धार्मिक स्थल है. (पंचकोसी यात्रा इसी पाँच कोस के दायरे में होती है.)

– माँ श्रृंगार गौरी का स्वरूप ज्ञानवापी मस्जिद के पीछे उत्तर पूर्व कोने में स्थित है और हिन्दू श्रद्धालु माँ श्रृंगार गौरी, भगवान हनुमान, भगवान गणेश और दूसरे दृश्यमान और अदृश्य देवी देवताओं के स्वरूपों की पूजा अर्चना करते आ रहे हैं, ‘भगवान विश्वेशर के मंदिर’ परिसर की परिक्रमा भी करते आ रहे हैं.

– एक मील मे 1.6 किलोमीटर होते हैं और 2 मील का एक कोस होता है. इसलिए एक कोस में 3.2 किलोमीटर होते हैं, 3.2 किलोमीटर x 5 = 16 किलोमीटर के गोलार्ध में स्थित काशी नगरी को अति प्राचीन परिधि माना गया है और इसी पाँच कोस की परिधि में अनेक मंदिर पौराणिक काल से काशी में हैं, ऐसा विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में ज़िक्र है.

 

प्लॉट नंबर 9130 से जुड़ी मांग

पाँचों हिन्दू महिलाओं ने मांग की कि “माँ श्रृंगार गौरी, भगवान गणेश, भगवान हनुमान, नंदीजी, दृश्यमान और अदृश्य देवी देवता, मंडप और पवित्र स्थान के दर्शन, पूजा बाधित नहीं होनी चाहिए और सभी देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को क्षतिग्रस्त, उनका रूप बिगाड़ना या नष्ट नहीं किया जाए और उन्हें कोई नुक़सान नहीं होना चाहिए.”

 

मस्जिद पक्ष का विरोध

इन मांगों का विरोध करते हुए मस्जिद समिति के वकील एसएफ़ए नक़वी पूछते हैं, “हम (मस्जिद समिति) ये कैसे साबित कर सकते हैं कि श्रृंगार गौरी कहाँ मौजूद हैं या अस्तित्व में हैं? इसे साबित करने की ज़िम्मेदारी हिन्दू पक्षों पर है क्योंकि उन्होंने कुछ दावे करते हुए अदालत में मामला दायर किया है. हम बस इतना ही कह सकते हैं कि ऐसी कोई बात नहीं है और ये हिन्दुओं की कल्पना है.

ज्ञानवापी के वुज़ूखाने में शिवलिंग है या फव्वारा?

माँ शृंगार गौरी की पूजा की मांग वाले मुक़दमे में बनारस की अदालत के आदेश का पालन करते हुए कोर्ट की ओर से नियुक्त एडवोकेट कमिश्नर ने 14 और 15 मई 2022 को अपना सर्वे शुरू किया.

16 मई 2022: शिवलिंग मिलने का दावा
सर्वे के दौरान अदालत को हिन्दू पक्ष के हरी शंकर ने सूचित किया कि

“आज (16 मई 2022) को मस्जिद के वुज़ूखाने में शिवलिंग पाया गया. जो काफ़ी अहम सबूत है.”

हिन्दू पक्ष ने मांग की कि
– सीआरपीएफ़ कमांडेंट फ़ोर्स तैनात कर वुज़ूखाने को सील करें और वुज़ूखाने के इस्तेमाल को तुरंत रोका जाए

– वाराणसी के डीएम मस्जिद में 20 से ज़्यादा मुसलमानों के नमाज़ अदा करने की इजाज़त ना दें

मुस्लिम पक्ष का कहना है कि –
-निचली अदालत ने बिना मस्जिद प्रबंधन का पक्ष जाने वुज़ूखाने को सील करने आदेश दे दिया.

फिर सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया –
– मस्जिद के हिस्से में जहाँ शिवलिंग जैसी आकृति की चीज़ बरामद होने का दावा किया गया है, उसे वाराणसी के डीएम सुरक्षित करेंगे.

– मुसलमानों के मस्जिद में प्रवेश पर कोई रोक नहीं है और वो वहाँ आ-जा सकेंगे और बिना किसी बाधा के नमाज़ और इबादत कर सकेंगे.

– ज़िला प्रशासन वुज़ूखाने का कोई अन्य प्रबंध भी करे.

 

मुस्लिम पक्ष: शिवलिंग नहीं फव्वारा ?

अदालत में मुस्लिम पक्ष ने कहा, “सर्वे में स्पॉट इंस्पेक्शन हुआ, लेकिन कोई शिवलिंग नहीं बरामद हुआ. शिवलिंग नहीं बल्कि एक फव्वारा मिला था. एडवोकेट कमिश्नर ने अपनी रिपोर्ट कोर्ट को सौंपी थी लेकिन अदालत ने उस पर अपनी सुनवाई पूरी नहीं की है.”

मस्जिद पक्ष के वकील एसएफ़ए नक़वी कहते हैं, “माँ श्रृंगार गौरी के मुक़दमे में हिन्दू पक्ष के पास कोई सबूत नहीं थे और एडवोकेट कमिश्नर सर्वे से एक तरह से हिन्दू पक्ष के लिए सबूत इकठ्ठा कर रहे थे.”

वुज़ूखाने में शिवलिंग और फव्वारे की बहस के बारे में वकील नक़वी कहते हैं, “हिन्दू पक्ष अपने क़ानूनी दावों को अलग-अलग हिस्सों में बाँटकर भ्रम पैदा कर रहा है, तो अभी हम अदालत में इसका जवाब कैसे दे सकते हैं?“

हिन्दू पक्ष के वुज़ूखाना में शिवलिंग के दावे के बारे में मस्जिद समिति के वकीलों का कहना है कि “वे (हिन्दू पक्ष) अलग-अलग चीज़ों के बारे में अलग-अलग तरीक़े से दावा नहीं कर सकते. एक बार जब हिन्दू पक्ष ने पूरी संपत्ति पर दावा कर दिया है, तो पूरी संरचना और उसके अंदर की हर चीज़ (वुज़ूखाना सहित) क़ानूनी रूप से विवादित है.”

एएसआई सर्वे : क्या होगा दूध का दूध और पानी का पानी?

एएसआई सर्वे का आदेश देते हुए वाराणसी के ज़िला जज ने अपने आदेश में लिखा था, “अगर प्लॉट और ढाँचे का सर्वे और वैज्ञानिक जाँच होती है तो उससे अदालत के सामने सही तथ्य आएँगे, जिससे मामले का अदालत में न्यायसंगत और उचित तरीक़े से निपटारा हो सकेगा.”

8 अगस्त 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में एएसआई के सारनाथ सर्किल के सुपरिन्टेंडिंग आर्कियोलॉजिस्ट को सेटलमेंट प्लॉट नंबर 9130 (मौजूदा ज्ञानवापी परिसर) के भू-भाग और भवन (मस्जिद की इमारत) का सर्वे करने का आदेश दिया.

कोर्ट ने अपने आदेश में लिखा कि एएसआई ऐसे तरीक़े से सर्वे करेगी, जिससे कोई टूट-फूट न हो. केंद्र सरकार ने आश्वासन दिया है कि सर्वे में न ही खुदाई की जाएगी और ना ढाँचे को तोड़ा जाएगा.

 

कैसे होगा एएसआई सर्वे?

सर्वे की टीम में: आर्कियोलॉजिस्ट, आर्कियोलॉजिकल केमिस्ट, एपीग्राफिस्ट, सर्वेयर, फोटोग्राफर और अन्य टेक्निकल एक्सपर्ट्स को इन्वेस्टीगेशन और डॉक्यूमेंटेशन में लगाया जाएगा.

नेशनल जियोफिज़िकल रिसर्च इंस्टिट्यूट (हैदराबाद) के विशेषज्ञों का दल जीपीआर (ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार) सर्वे करेगा.

 

एएसआई की वैज्ञानक जाँच का दायरा

– सर्वे करके यह बताना है कि मौजूदा ढाँचा क्या किसी पहले से मौजूद मंदिर के ऊपर बनाया गया है.

– ज्ञानवापी की पश्चिमी दीवार की उम्र और निर्माण के स्वरूप का पता करने के लिए वैज्ञानिक जाँच करनी है.

– ज़रूरत पड़ने पर एएसआई पश्चिमी दीवार के नीचे जाँच के लिए ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार का इस्तेमाल कर सकती है.

– ज्ञानवापी के तीन गुम्बदों के नीचे की जाँच करनी है और उसके लिए वो ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार का इस्तेमाल कर सकती है.

– ज्ञानवापी के सभी तहखानों की जाँच करनी है और उन तहखानों की ज़मीन के नीचे की जाँच के लिए वो ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार का इस्तेमाल कर सकती है.

– अपनी जाँच में बरामद की गई सभी कलाकृतियों की एक सूची बनानी होगी और यह भी दर्ज करना होगा कि कौन सी कलाकृति कहाँ से बरामद हुई और डेटिंग के ज़रिए उन कलाकृतियों की उम्र और स्वरूप जानने की कोशिश करनी होगी. यह मांग हिन्दू पक्ष के वकील अनुपम द्विवेदी ने की थी.

– ज्ञानवापी परिसर में मिलने वाले सभी खंभों और चबूतरों की वैज्ञानिक जाँच कर उसकी उम्र, स्वरूप और निर्माण की शैली की पहचान करना है.

– डेटिंग, ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार और अन्य वैज्ञानिक तरीक़ों से ज्ञानवापी के ढाँचे के निर्माण की उम्र, और निर्माण के स्वरूप की पहचान करना है.

– जाँच में बरामद कलाकृतियों और ढाँचे में और उसके नीचे पाई गई ऐतिहासिक और धार्मिक वस्तुओं की भी जाँच करनी है.

– यह सुनिश्चित करना है कि ढाँचे को किसी भी तरह का नुक़सान नहीं हो और वो सुरक्षित रहे.

 

सर्वे के विरोध में मस्जिद पक्ष

मुस्लिम पक्ष का मानना है कि सर्वे तभी हो सकता है जब अदालत के समक्ष पेश किए गए लिखित और मौखिक साक्ष्यों से कोर्ट किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहा है.

कोर्ट में हिन्दू पक्ष ने कहा है कि निर्माण की शैली को देखते हुए उनके पास ढाँचे की आर्टिफिशियल दीवारों के पीछे कुछ वस्तुओं के छिपे होने का कोई सबूत नहीं है. लेकिन मुस्लिम पक्ष का मानना है कि क़ानून एएसआई को हिन्दू पक्ष के दावे से जुड़े सबूत इकठ्ठा करने की इजाज़त नहीं देता है.

मस्जिद पक्ष कहता है कि एएसआई का सर्वे 1991 के उपासना स्थल अधिनियम का उल्लंघन है, जो आज़ादी से पहले मौजूद धार्मिक स्थलों के धार्मिक चरित्र बदलने की इजाज़त नहीं देता है. मस्जिद पक्ष यह भी कहता है कि ज्ञानवापी की ज़मीन के स्वामित्व से जुड़े मामले में पहले से ही इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एएसआई सर्वे पर रोक लगा रखी है. तो फिर किसी अन्य मामले में सर्वे की इजाज़त कैसे दी जा सकती है.

 

मंदिर पक्ष: सर्वे तय करेगा विवाद

मंदिर पक्ष मानता है कि एएसआई सर्वे अदालत में इस विवाद का हल तय करने में मदद करेगा. वो कहते हैं कि “दोनों हिन्दू और मुस्लिम पक्षों को एएसआई के सर्वे के नतीजों को अदालत में विरोध करने, बहस कर चुनौती देने का मौक़ा मिलेगा.”

मंदिर पक्ष सर्वे कराने में 1991 उपासना स्थल अधिनियम को बाधक नहीं मानता और दावा करता है कि आज़ादी के पूर्व से और बाद भी वहाँ पर हिन्दू पूजा करते आ रहे हैं.

मंदिर पक्ष मानता है कि एएसआई का काम ऐतिहासिक ढाँचों का संरक्षण और हिफ़ाज़त करना है. तो सर्वे में ज्ञानवापी को नुक़सान पहुँचाने की मुस्लिम पक्ष की आशंका निराधार है.

 

अयोध्या की तर्ज़ पर ज्ञानवापी का एएसआई सर्वे जायज़?

इस बारे में मस्जिद पक्ष के वकील एसएफए नक़वी कहते हैं, “पूजा स्थल अधिनियम 1991 कहता है कि 15 अगस्त 1947 को बाबरी मस्जिद मालिकाना हक़ का मुक़दमा लंबित था. पूजा स्थल अधिनियम में ज्ञानवापी या किसी अन्य मामले का उल्लेख नहीं है और अयोध्या भूमि स्वामित्व मामले में अदालत ने पूजा स्थल अधिनियम की वैधता स्थापित की है.”

नक़वी कहते हैं, “अयोध्या में एएसआई सर्वे अलग परिस्थितियों में हुआ. अयोध्या में एएसआई सर्वे विध्वंस के बाद हुआ, उससे पहले नहीं. सर्वे 1992 के बाद हुआ था, उससे पहले नहीं.”

उपासना स्थल अधिनियम: मुस्लिम पक्ष की सबसे मज़बूत दलील?

आप इस पूरे लेख में 1991 के उपासना स्थल अधिनियम का ज़िक्र बार-बार पढ़ रहे होंगे. ख़ास तौर से मुस्लिम पक्ष इसे बार-बार अपनी दलीलों में शामिल करता है.
चाहे माँ श्रृंगार गौरी के दर्शन का मुक़दमा हो या फिर ज्ञानवापी की ज़मीन के स्वामित्व का मामला, मस्जिद पक्ष की सबसे मज़बूत दलील 1991 उपासना स्थल अधिनियम है.
मस्जिद पक्ष ने सभी मुक़दमों को इसी आधार पर अलग-अलग स्तर पर चुनौती दे रखी है. मुस्लिम पक्ष की दलील है कि 1991 के क़ानून को देखते हुए ये मुक़दमे सुने जाने योग्य नहीं हैं यानी मेन्टेनेबल नहीं हैं क्योंकि क़ानून कहता है कि 1947 के दिन जो स्थिति थी, वही बनी रहेगी.
आपको यह भी बताना चाहते हैं कि फ़िलहाल अभी तक किसी भी मुक़दमे का ट्रायल शुरू नहीं हुआ है और अभी सबूतों को अदालती बहस में परखा नहीं गया है.
लेकिन मुस्लिम पक्ष का मानना है कि इन सभी दावों के सामने 1991 का उपासना स्थल अधिनियम एक चट्टान की तरह खड़ा है.
मस्जिद पक्ष का दावा है कि मस्जिद और उसके साथ लगी हुई ज़मीन 15 अगस्त 1947 को अस्तित्व में थी, इसलिए वो उपासना स्थल अधिनियम से संरक्षित हैं.
मस्जिद पक्ष मानता है कि 1991 उपासना स्थल अधिनियम पारित कराने का मक़सद सांप्रदायिक सौहार्द क़ायम रखना था. 1942 में दीन मोहम्मद के मामले वाले इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले ने “ये मंदिर या मस्जिद” के विवाद को पहले ही तय कर दिया है.
सुप्रीम कोर्ट ने उपासना स्थल अधिनियम की तारीफ़ करते हुए बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि वाले अपने फ़ैसले में लिखा था कि “यह अधिनियम पूजा स्थल की स्थिति को बदलने की अनुमति न देकर धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक मूल्य को संरक्षित करता है.”
मंदिर पक्ष के मुताबिक़, “15 अगस्त 1947 को ढाँचा एक हिन्दू मंदिर था और वहाँ आदि विश्वेश्वर और अन्य देवी देवताओं की 1993 तक लगातार पूजा होती आई है. अदालत को यह देखना होगा कि 15 अगस्त 1947 से पहले उस स्थान का धार्मिक चरित्र क्या था और क्या वह हिन्दू या मुस्लिम पूजा स्थल था.”
मंदिर पक्ष मानता है कि, “ज्ञानवापी मस्जिद, मंदिर के ऊपरी हिस्से को तोड़कर बनाई गई थी. लेकिन मंदिर परिसर के दूसरे हिस्से में श्रृंगार गौरी, भगवान गणेश और अन्य देवताओं की पूजा पुराने मंदिर परिसर के भीतर और पाँच कोस के पूरे क्षेत्र में जारी रही.”
मंदिर पक्ष का कहना है कि इसी पूजा स्थल अधिनियम के अनुसार किसी पूजा स्थल के धार्मिक स्थल के पता लगाने पर रोक नहीं है.
मुस्लिम पक्ष उपासना स्थल अधिनियम को सर्वोपरि बताते हुए कहता है, “अगर हिंदू पक्ष का दावा है कि 300 साल पहले ढाँचे का धार्मिक चरित्र बदल दिया गया था, तो यह उनका दावा है. एकमात्र बात जो हमारे लिए मायने रखती है, वह यह है कि 15 अगस्त 1947 को इसका धार्मिक चरित्र क्या था और हम जानते हैं कि यह तब एक मस्जिद थी.”
मस्जिद पक्ष के वकील एसएफए नक़वी कहते हैं, “हिन्दू पक्ष अपनी दलीलें ‘कुछ सबूतों’ पर आधारित करता है. अगर हम हिन्दू पक्ष की ओर से पेश किए गए सबूतों का खंडन करना शुरू कर देंगे, तो 1991 के पूजा स्थल अधिनियम का क्या मतलब रह जाएगा? हमारा कहना है कि अगर मुक़दमे में उनकी मांग को लेकर सबसे बड़ी बाधा मौजूदा क़ानून है और वो मुक़दमा सुने जाने योग्य ही नहीं है, तो फिर उस सबूत का कोई मतलब नहीं रह जाता.”
मस्जिद कमेटी के वकीलों का कहना है कि अभी तक अदालत में यह बताने का कोई मौक़ा नहीं आया है कि मस्जिद की पश्चिमी दीवार के पीछे किस तरह की वास्तुकला मौजूद है. वो कहते हैं, “हम किसी भी चीज़ पर टिप्पणी नहीं कर सकते क्योंकि हम अपनी क़ानूनी दलीलें पूजा स्थल अधिनियम के प्रावधानों तक ही सीमित रख रहे हैं.”

रिपोर्ट : अनंत झणाणे
बीबीसी हिंदी