साहित्य

क़िताब : धुँधलके शामों के, शायरा – नलिनी विभा ‘नाज़ली’ : ज़िंदगी कितनी हसीन है इसका अहसास होता है….


Nalini Vibha Nazli

Lives in Hamirpur, Himachal Pradesh

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मोहतरम कर्नल Vivek P Singh साहिब मुख़्तलिफ़ ज़बानों और अस्नाफ़ में माहिर और एक मुमताज़ तब्सिरः निगार हैं ।ऐसी अज़ीमतरीन शख़्सियत का मेरे अदना – से शे’री मज्मूए पर लिखना मेरे लिए बाइस-ए-फ़ख़्र है, जिसके लिए मैं तहे-दिल से ममनून हूँ ।आप तमाम मुअज़्ज़िज़ ख़वातीनो – हज़्रात भी मुलाहिज़ः फ़र्माइए
किताब : धुँधलके शामों के
उनवान – शेरी मज़्मुअ
शायरा – नलिनी विभा ‘नाज़ली’
अमृत प्रकाशन
क़ीमत – बेशकीमती पर रूपये में सिर्फ़ ६००/-

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के बने ये नज़र ज़ुबाँ कैसे
के निगाहों से बात कैसे हो
न ज़ुबाँ को दिखाई देता है
न निगाहों से बात होती है

इंदीवर साहब की एक ग़ज़ल के ये मिसरे अनायास मेरी ज़िह्न से हो गुज़रे, जब मैं लिखने बैठा नाज़ली साहिबा के शाया शेरी मज़्मुअ ‘धुँधलके शामों के’ पर, अपने मन की बात। वाक़ई ख़ूबसूरती को उसकी सही वुसअत में बयान कर ले जाना नामुमकिन हो जाता है कई बार। और अगर ये हो भी जाता तो मेरे पास अल्फ़ाज़ भी नहीं होते उस बयानगी के लिये जिसे बिना इनकी शान में हर्फ़ आये मैं कह जाऊँ जो मेरे मन में है। नाकाम सी कोशिश कर रहा हूँ…. लिख रहा हूँ मैं ‘धुँधलके शामों के’ पर….

‘काश दे दे कोई हुनर उसको
जो बना डाले ख़ूबतर उसको’
-नाज़ली (धुँधलके शामों के)

इस मज़्मुअ को ख़ूबतर करने में कोई कमी तो छोड़ी नहीं उन्होनें, मैं बस बयान भर कर जाऊँ तो ग़नीमत है। नाज़ली साहिबा का सही तार्रुफ़ तो मेरी ‘काश मैं कर पाता’ में ही रह जाता है। पर हाँ! हम इनको अब ख़ूब जान गये हैं…..
इनका तार्रुफ़ इन्हीं के शेर से…

‘चाहा तो लाख हमने पर ऐसा न कर सके
बातिन में रहने वाले से पर्दा न कर सके’
-नाज़ली (धुँधलके शामों के)

ज़िंदगी कितनी हसीन है इसका अहसास होता है इनकी शायरी से रूबरू हो कर, वगरना हम रोज़मर्रे की जद्दोजहद में बातिल ज़ाया होते रहते हैं। ‘लोबान’, ‘शेरे-आराई’, ‘वरक़ दर वरक़’, ‘शिखर की ओर’, ‘रेजः रेजः आइनः’, ‘हर्फ़ हर्फ़ आइनः’, ‘ग़ज़ल के पर्दे में’, ‘दस्तख़त रह जायेंगे’ और ‘दीवान-ए-नाज़ली’ पढ़ने के बाद अब मैं गुज़र रहा हूँ सफ़्हा दर सफ़्हा’, ‘धुँधलके शामों के’ की सुरमई रंगत से।

हर जज़्बात का एक अपना हुस्न है और उसे उसके हक़ीक़ी फ़ल्सफ़े में अयाँ कर ले जाने की महारत बिरले ही रखते हैं। नाज़ली साहिबा फूल को फूल और ख़ार को ख़ार कह ले जाती हैं उतनी ही शिद्दत से जितनी शिद्दत से ये शय अपना मुख़्तलिफ़ किरदार अदा करते हैं हक़ीक़त में साथ बसर करते हुये भी। इनका सुखन एक मलहम है उन ज़ख़्मों पर जो ज़िंदगी हम सबको फितरतन देती ही है।

जो ख़ुद-असीरी से बाहर निकल के आई मैं
तो मुस्कुरा के मेरे सारे ज़ख्म भरने लगे
-नाज़ली (धुँधलके शामों के)

दर्द लिखना और दर्द की इंतिहा से गुज़र कर, उसको लिखना एक जैसा तो हो नहीं सकता। कैसे कोई अपनी बयानगी में वो अहसासात भर सकता है बिना उसकी असलियत को महसूस किये; इनको पढ़कर ऐसा लगता है मुझे। अल्लाह करे कि लोग लिखें ऐसा, पर अल्लाह न करे ऐसा लिखने के लिये उन हदों से हो कर जाना पड़े किसीको। हर्फ़ सिर्फ़ अपना म’आनी बताते है, पर उस म’आनी की सही तर्ज़ुमानी महसूसात की ज़ुबान से तो ‘नाज़ली’ साहिबा की सुखनतराशी ही कराती है।

अपनी पलकों पे मेरे ग़म के गुहर ढोते हैं
ये धुँधलके मेरी शामों के बहुत रोते हैं
‘नाज़ली’ कमरों की सीलन भरी दीवारों के
साये हर रात मुझे चीर रहे होते हैं
-नाज़ली (धुँधलके शामों के)
ये शहरे-ए-दिल है कि ऐ ‘नाज़ली’ खंडर कोई
शिकस्ता हाल दियारों में दिल नहीं लगता
-नाज़ली (धुँधलके शामों के)

दुनिया को आइना कितनी ख़ूबसूरती से दिखा ले जाना भी कमाल है। इंसानी फितरत की तज़्बज़ुबी कश्मकश, अच्छे और बुरे के बीच की महीनियाँ, सच क़ुबूक कर ले जाने की हिम्मत और वक़्त से पंजा लड़ा लेने की ताक़त से मुखातिब करती नाज़ली साहिबा एक मुख़्तलिफ़ आयाम में जाकर लिखती हैं।
रोज़े-महशर का ध्यान आते ही

डरते डरते गुनाह करता हूँ
-नाज़ली (धुँधलके शामों के)
मुझको तू नक़्शे-पा दिखा अपने
मुझको उस रास्ते पे जाना है
-नाज़ली (धुँधलके शामों के)
कब तलक रह सकेगा ये मह्फ़ूज़
काँच का जिस्म टूट जाना है
-नाज़ली (धुँधलके शामों के)
कर तसव्वुर शाम का तू ज़िह्न में
गर तुझे आता है जीने का हुनर
कोई चौराहा जो आये राह में
तब बशर सोचे कि अब जायें किधर
-नाज़ली (धुँधलके शामों के)

मौजूदा दौर के दायरे-अदब में नज़ाकत, नफ़ासत, तसव्वुर, हक़ीक़त, तेवर और कलेवर, हर ज़मीन पर इनका मेयार क़ाबिले-एहतराम है। वक़्त की फितरत, सब्र और हौसलों की ताक़त से लबरेज़ नाज़ली साहिबा की फ़ने-मूसूक़ी हर सम्त से क़ाबिले सताइश है।

गुज़रेगी ग़म की रात, सवेरा भी आयेगा
उसका है गर ये वक़्त तो तेरा भी आयेगा
देने सवाब बन्दगी का तुझको ‘नाज़ली’
रूहानी नूर का अभी घेरा भी आयेगा
– नाज़ली ( धुँधलके शामों के)

और आख़िर में ख़ुद की ख़ुद से पहचान कराती अपना इंसान होने के लिये अपनी तद्बीर का अंदाज़ा दिलाती, अपनी वुसअत और अपनी ज़ात पर भरोसा कराती ये मुसव्विरी मज़्मुअ जो हक़ीक़त हो कर हमारे हाथ में है उसके लिये मैं नाज़ली साहिबा का तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ। आपने मुझे इसके क़ाबिल समझा उसके लिये अपनी नवाज़िशात पेश करता हूँ।

तुझको दिखलायें सौ गुना तुझसे
तुझको आ जाये ख़ुदनिगारी जो
-नाज़ली (धुँधलके शामों के)

बहुत क़रीब से ज़िंदगी को देखना और इसके हर पहलू को बारीकी से समझते हुये, जीस्त के हर आयाम को हर्फ़ो-अल्फ़ाज़ में बाक़ायदा उसकी हक़ीक़ी संजीदगी में बयाँ कर जाने का इल्म एक बात है, पर उसे, अदब के ढाँचे में ढाल कर उसे एक हसीन रौ दे देने का हुनर दूसरी बात। ये वो दूसरी वाली बात ही है, जो हमें मोहतरमा नाज़ली साहिबा के सज्दे में दस्तबस्ता करती है।

आज सुखन के आसमान में सितारे तो तमाम हैं पर इसके आँचल में माहताब एक ही है। नाज़ली साहिबा का यह शेरी मज़्मुअ अमृत प्रकाशन से शाया हुआ है। ख़ूबसूरत ज़िल्दबन्द लिहाफ़ में यह जज़्बात का हसीन ज़खीरा क़ाबिले-तारीफ़ ही नहीं बल्कि निहायत क़ाबिले-हासिल भी है।
ज़रूर पढ़ें।

आदाब।
– विवेक ‘अक्फ़र’