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“शकटार अभी जीवित है”…मुझे हत्या, सहवास या उत्सव निःसंदेह आनंदित करते हैं!

क्यों सम्राट आज मुखारविंद पर प्रतिदिन सा तेज नहीं, वो गर्व की अनुभूति भी धूमिल प्रतीत होती है, आपका मस्तक विजय श्री हीन और नेत्रों में वो अपराजेय रहने का भाव भी नहीं, मैं केवल भृत्या, सहचरी ही नहीं देव, अपितु आपकी प्रत्येक पिपासा की अंतःसाक्षी भी हूँ, यदि आप पुनः मनु आखेट को प्रस्थान करना चाहें, या किसी व्याघ्र की कराह सुनने की तीव्र इक्षा हो, नहीं तो दासियों संग फाग अनुराग की व्यवस्था करने का आदेश हो

नहीं भोग्या, तुम्हारे मनुहार में केवल क्षणिक सुखों की वृष्टि है, हृदय हर्ष का वास्तविक विस्तार तो बौद्धिक आखेट में है, विद्वान की विद्वत्ता को विचलित और वाणी को भयभीत करने का वो सुख आह अकल्पनीय है, मानों कपाल पर कोई निर्बाध रूप से, किंतु धीमे-धीमे किसी लौह-दंड से प्रहार करता हो, मस्तिष्क के हर स्राव में उस कष्ट के प्रति तीव्र विद्रोह तो हो, किंतु वाणी पर भय का अंकुश हो, जिव्हा पर प्रतिकार के स्वर, आकार लेने से पूर्व ही, तालू से चाटुकारिता के व्यंजन ले जब ध्वनि में परिवर्तित हों, तो वो उद्भोदन घृणा और क्रूरतम कष्ट के लेप में सम्राट के प्रति कृज्ञता का महा-भाव हो,

ओह्ह प्रिय सहचरी जैसे श्वासें वायु को व्याकुल हों, जैसे कंठ जल की वर्षों से प्रतीक्षा में हो और जैसे रोम-रोम में प्रचंड अग्नि धधकती हो, किन्तु मुख पर कृतज्ञता का भाव लिये, कटी से मस्तक तक किसी अपरिचित व्यथा का तनाव लिये, सभी सभासद,सभी क्षत्रप और सभी मंत्रीगण के मेरुदंड प्रत्यंचा हीन, किसी धनुष की भाँति झुकें हों, उनकी भृकुटियों पर भय और अधरों पर प्रसन्नता का वास हो, मेरा आखेट और उस आखेट का विषय भिन्न है भोग्या, मुझे हत्या, सहवास या उत्सव निःसंदेह आनंदित करते हैं, लेकिन परमानंद तो केवल मेरी कृपा पर आश्रित विषयों की तृष्णा में है, उनकी अनेक मृग मरीचिकाओं से वाष्पित होने वाली प्रत्येक उत्कंठा की मधुर गंध में है, और है उनकी हर वासना, हर पिपासा संग जड़ित हो प्रति-दिन लज्जित होने के सामर्थ्य को ललकारने में, भोग्या मुझे यही भय और निरंतर असुरक्षा का भाव प्रजा में स्थानांतरित होते देखना है, मेरे राज-प्रांगड़ में मुझे कारागार के पीड़ा-गृह की वेदना की चीत्कार का आनंद भोगना है और उसी वेदना को भोगने वालों के मुख पर सम्राट के प्रति स्वामी-भक्ति और स्नेह देखना है, कैसा विलक्षण रण है, कैसी विवशता और कैसी यंत्रणा, जिसमें न केवल सभी अमात्य, मंत्री, सभासद जकड़े हों, समूचे राजतंत्र की प्रत्येक इकाई बिलबिलाती हो, प्रजा त्राहिमाम को सामान्य रूप से स्वीकार कर, जैसे कोई ऋतू, जैसे घोर वर्षा, जैसे घोर तम, जैसे घनघोर शीत से प्राण छोड़ते सामन्य जन, भला प्रकृति से कौन जूझे , और सम्राट की भीख को भाग्य का परम उदय मान कृतार्थ हो, प्रिय सहचरी, तुम सभा बुला भेजो, बुला भेजो सभी अमात्यों को, मंत्रियों को, सभासदों को, और कुछ सामान्य जनों को भी प्रवेश दो, संदेश को संयमित रखा जाए, संदेश में स्पष्ट कुछ न हो, वस्तुतः वह न सुगम लगे और न ही अनेकार्थी, मंत्री परिषद् को लगे की मात्र औपचारिकता तो नहीं है, साथ ही सामान्य सभासद कुछ भयभीत हों, प्रत्येक को स्थिरता के मनोभाव से अस्थिरता की वीथियों की यात्रा करा दे, संदेश में प्रश्न हों, और वे भी अस्पष्ट हों, प्रश्न हो के सम्राट क्यों मौन हैं, सम्राट की मौन यात्रा का अर्थ क्या है, सम्राट के मौन के मंथन का परिणाम क्या होगा, सम्राट के मौन की परिलक्षणा क्या है, सम्राट के मुखारविंद पर यह कैसा भाव है, क्या सम्राट वानप्रस्थ गमन का विचार करते हैं, या सम्राट को जन-सामान्य की चिंता सताती है, क्या सम्राट के मस्तिष्क में किसी अनिष्ट का मंथन है, या सम्राट किसी विवशता वश किसी कठोर निर्णय पर विचार करते हैं,

प्रश्न हो की वध हो या बलिदान, प्रश्न हो की यज्न हो या व्यवधान, प्रश्न हो की तत्व हो या अंगदान, और जो न हो, तो सम्राट की प्रतिक्रिया क्या हो, और उसका कोपभाजन कौन हो, सम्राट के ललाट से धधकते क्रोध का विसर्जन किस पर हो, सम्राट के ह्रदय की अग्निशाला में किसका शव भस्म हो, सम्राट की तनी राज-भृकुटियों से छूटा धर्म-बाण किसके हृदय का विच्छेद करे,

ओह्ह तो सम्राट पूर्ण बलिदान का दृश्य देखने आतुर हैं, आह क्या दृश्य होगा, मनों का आखेट, हृदयों की व्याकुलता, जिव्हा और आकांछाओं की प्रतिस्पर्धा, वाणी में माधुर्य संग भय पोषित तर्क, सम्राट को इच्छा है बलिदान की, धन,लावण्य और यौवन का बलिदान, हर स्वप्न, रत्न और हर यत्न का बलिदान, हर प्रश्न, उष्ण और जीवन का बलिदान, सम्राट को चण्ड की संज्ञा देने वाली हर जिव्हा के रक्त से सम्राट का प्रत्येक दिन चिर राज-तिलक हो, ओह्ह सम्राट मैं धन्य हूँ, यह राष्ट्र धन्य है, हर जन-सामान्य धन्य है

किंतु सम्राट, “शकटार” अभी जीवित है, और शकटार अभी त्वरित है प्रतिक्रियाओं में, जन-सामान्य की व्यथाओं में, सबसे पहले “शकटार-वध” आवश्यक है, और हर युग में शकटार का वध असंभव है, शकटार जीवित रहते हैं, विचरते हैं, संघर्ष करते हैं, शकटार के प्रेत प्रत्येक वीथी, राज-मार्ग और हृदय में निवास करते हैं, और शकटार हर सम्राट को पराजित करते हैं, सम्राट, शकटार का वध आवश्यक है, सम्राट शकटार चिर-जीवित है,

अघोरी राहुल\\\

डिस्क्लेमर : लेखक ने निजी विचार हैं, तीसरी जंग हिंदी का कोई सरोकार नहीं है