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शंघाई सहयोग संगठन की आतंकवाद के मुद्दे पर बैठक और ईरान की पहली शिरकत : रिपोर्ट

शंघाई सहयोग संगठन का संपूर्ण सदस्य बन जाने के बाद इस्लामी गणराज्य ईरान का एक प्रतिनिधिमंडल पहली बार इस संगठन की आतंकवाद निरोधक क्षेत्रीय बाडी काउंसिल की बैठक में भाग लेने के लिए पहुंचा।

गत 4 जुलाई को एससीओ का 23वां शिखर सम्मेलन भारत की अध्यक्षता में वर्चुअली भागीदारी के साथ आयोजित हुआ था। इस बैठक में औपचारिक रूप से एलान किया गया कि ईरान इस संगठन का संपूर्ण सदस्य बन गया है। इस तरह ईरान इस संगठन का नवां सदस्य बना।

हालांकि हालिया वर्षों में चीन और रूस पर अमरीका की तरफ़ से पाबंदियां लगाए जाने के बाद एससीओ का रूजहान आर्थिक सहयोग बढ़ाने पर अधिक केन्द्रित हुआ है लेकिन दरअस्ल यह संगठन सुरक्षा और राजनैतिक सहयोग को आधार बनाकर तैयार किया गया था और उसके बाद से अब तक इस विषय पर संगठन ने काम किया है।

संगठन की आतंकवाद निरोधक बाडी की बैठक में पहली बार ईरान की शिरकत और इस पर सदस्य देशों की प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण थी।

बैठक में इस्लामी गणराज्य ईरान के बारे में दो अहम स्टैंड लिए गए। एक तो सदस्य देशों ने ईरान में शीराज़ नगर के शाहचेराग़ मज़ार में हुए आतंकी हमले और दूसरे आतंकी हमलों की निंदा करते हुए इस प्रकार के हमलों पर अंकुश लगाने के लिए एक प्रस्ताव रखा। दूसरे यह कि आतंकवाद से संघर्ष में क्षेत्र के देशों की तरफ़ से दी जाने वाली क़ुरबानियों और ईरान की क़ुद्स फ़ोर्स के कमांडर शहीद क़ासिम सुलैमानी को श्रद्धाजलि अर्पिति की जिन्होंने आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई का नेतृत्व किया।

एक तरफ़ सुरक्षा सहयोग एससीओ की प्राथमिकताओं में है और दूसरी तरफ़ ईरान आतंकवाद की बलि चढने वाले प्रमुख देशों है तो इन परिस्थितियों में आतंकवाद से संघर्ष का ईरान का अनुभव संगठन के आपसी सहयोग को मज़बूत बनाने में मदद कर सकता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि ईरान ने आतंकी संगठन एमकेओ के हमलों में अपने 17 हज़ार नागरिकों की क़ुरबानी दी है तो ईरान आतंकवाद की भेंट चढ़ने वाला बहुत अहम देश है। इसलिए भी एससीओ की इस बैठक में ईरान की शिरकत काफ़ी अहमियत रखती है।

इस्लामी गणराज्य ईरान भी आतंकवाद से संघर्ष में एससीओ की क्षमताओं का लाभ उठा सकता है और संगठन के सदस्य देश भी इस मैदान में ईरान के मूल्यवान अनुभवों का लाभ उभा सकते हैं। इस संगठन में शामिल देशों सहित दुनिया के देशों को आतंकवाद के दंश का सामना करना पड़ा है और करना पड़ रहा है। ख़ास तौर पर तब यह विषय और भी महत्वपूर्ण है जाता है जब अमरीका जैसे देश आतंकवाद को हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं।