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दिल्ली : “हम मोहम्मडनों को मक़ान क़िराए पर नहीं देते, क्यों “एक मोहम्मडन” को यहां ले कर आया : रिपोर्ट

दिल्ली में किराए पर एक मकान की तलाश कर रहे रौफ को दो महीनों से मकान नहीं मिला है. लेकिन यह कहानी अकेले दिल्ली की नहीं है. शहरों में मकान देने में भेदभाव की दशकों पुरानी समस्या बढ़ती जा रही है.

रविवार का दिन है. सुबह के 11 बज रहे हैं. दिल्ली के मालवीय नगर मोहल्ले में एक पार्क के पास खड़े अब्दुल रऊफ गनइ मकान किराए पर दिलाने वाले एक एजेंट का इंतजार कर रहे हैं. 28 साल के रऊफ कई दिनों से दक्षिणी दिल्ली में रहने के लिए किराए पर एक मकान की तलाश कर रहे हैं.

एजेंट ने उन्हें भरोसा दिलाया है कि आज फ्लैट मिल ही जाएगा. एजेंट आता है और रऊफ को साथ लेकर पास ही में स्थित एक मकान पर लेकर जाता है. घंटी बजाने के दो मिनट बाद मकान का मालिक खुद आ कर दरवाजा खोलता है और प्राथमिक पूछताछ वहीं पर शुरू कर देता है.

ज्यादा बातचीत की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि रऊफ का नाम सुनते ही मकान का मालिक पूछता है, “मोहम्मडन हो?” और जवाब “हां” में मिलते ही बेझिझक रऊफ से कह देता है, “हम मोहम्मडनों को मकान किराए पर नहीं देते.” साथ ही एजेंट को यह कह कर डांट भी देता है कि उसे इस बारे में बताया भी था, फिर वो क्यों “एक मोहम्मडन” को यहां ले कर आया.

शरणार्थियों के लिए ही बने थे मोहल्ले
एजेंट मकान मालिक और रऊफ दोनों से माफी मांगता है और फिर रऊफ को ले कर अगले मकान की तरफ बढ़ जाता है. धीरे धीरे छुट्टी का दिन बीत जाता है लेकिन रऊफ की तलाश पूरी नहीं हो पाती.

मालवीय नगर मोहल्ले को विभाजन के बाद पाकिस्तान से भारत आए शरणार्थियों को पनाह देने के लिए बसाया गया था. यहां के अधिकांश मकान मालिकों की यही पृष्ठभूमि है. सरकार ने लगभग 100 गज के जमीन के टुकड़े इन्हें दिए जिस पर इन्होने धीरे धीरे तीन-चार मंजिलों की इमारतें बना लीं.

लेकिन सात दशक पहले जिन जमीन के टुकड़ों पर विभाजन के मारे लोगों को शरण मिली उन्हीं पर बने ये मकान आज अपने ही देश में गुजर बसर करने की कोशिश में लगे हुए लोगों को पनाह नहीं दे पा रहे हैं.

28 साल के रौफ ने मीडिया के अध्ययन में पीएचडी की हुई है और दिल्ली में डीडब्ल्यू के लिए वीडियो जर्नलिस्ट के रूप में काम करते हैं. अमूमन मकान किराए पर देने के लिए किसी व्यक्ति को विश्वसनीय साबित करने के लिए इतना काफी होना चाहिए, लेकिन अगर आप मुस्लिम हैं तो ऐसा नहीं है.

सभी शहरों का एक ही हाल
रौफ के साथ तो दोहरी समस्या है. वो मुस्लिम होने के साथ साथ कश्मीरी भी हैं और शहरों में यह एक और पैमाना है मकान किराए पर नहीं मिलने का. रौफ बताते हैं कि उन्होंने कई साल पहले मुस्लिमों के खिलाफ इस तरह के भेदभाव के बारे में सिर्फ ट्विटर पर पढ़ा था. तब उन्हें यह नहीं पता था कि एक दिन उनके साथ भी यही होगा.

2018 में हैदराबाद में पहली बार उन्हें इस भेदभाव का सामना करना पड़ा, जब शहर के एक हिंदू बहुल इलाके में एक मकान मालिक ने उनसे कहा कि वो उन्हें अपना मकान नहीं देंगे, क्योंकि वो मुस्लिम हैं.

रौफ कहते हैं. “मैं बहुत डर गया था. मैं पहली बार कश्मीर से बाहर निकला था और यह मेरी पहली नौकरी थी. एक दिन तो मैंने यहां तक तय कर लिया था कि आज शाम तक अगर मकान नहीं मिला तो मैं यह शहर और नौकरी दोनों को छोड़ कर वापस कश्मीर चला जाऊंगा.”

शहर और नौकरी छोड़ने की नौबत नहीं आई. रौफ ने हैदराबाद में पहले से रह रहे कुछ कश्मीरी लोगों से संपर्क किया और फिर उनकी मदद से उन्हें रहने के लिए जगह मिल ही गई. इस बात को चार साल बीत चुके हैं. यह शहर भी दूसरा है लेकिन रॉफ फिर से उसी मुसीबत का सामना कर रहे हैं.

अब बहाने भी नहीं बनाए जाते
रौफ इस समस्या का सामना करने वाले पहले मुस्लिम नहीं हैं. यह दशकों पुराना चलन है और शहरों में किराए पर मकान खोज रहे हर मुस्लिम व्यक्ति और परिवार की कहानी है. इसे लेकर कई अध्ययन भी किए गए हैं.

‘द हाउसिंग डिस्क्रिमिनेशन प्रोजेक्ट’ के तहत कानून, मनोविज्ञान आदि जैसे विविध क्षेत्रों से जुड़े शोधकर्ताओं ने 2017 से 2019 तक दिल्ली और मुंबई के 14 मोहल्लों में करीब 200 एजेंटों, 31 मकान मालिकों और करीब 100 मुस्लिम किरायेदारों से बात की.

अध्ययन में न सिर्फ यह साबित हुआ कि यह एक बड़ी समस्या है बल्कि यह भी सामने आया कि किराए पर मकान दिलाने की व्यवस्था की कुंजी माने जाने वाले एजेंटों में से भी कई इस भेदभाव से ग्रसित हैं.

लेखक, फिल्मकार और अपनी ‘हेरिटेज वॉक’ के जरिए दिल्ली के इतिहास के बारे में लोगों को बताने वाले सोहेल हाश्मी बताते हैं कि उन्होंने इस भेदभाव का सामना पहली बार 1980 के दशक में किया था.

घेटो बनने की वजह
फर्क बस इतना था कि वो कहते हैं कि उस समय लोगों की “नजर में शर्म” थी जिस वजह से कोई सीधा यह नहीं कहता था कि मकान मुस्लिम होने की वजह से नहीं दिया जाएगा.

हाश्मी कहते हैं कि सीधा कहने की जगह “आप लोग तो मांस खाते होंगे” या “हम तो आप ही को मकान देने वाले थे लेकिन अचानक मेरे भाई ने न्यूयॉर्क से वापस आने का फैसला कर लिया” जैसे बहाने दे दिए जाते थे.

इसी समस्या ने घेटोकरण को भी बढ़ावा दिया है. खुद भी इस भेदभाव का सामना कर चुके वरिष्ठ पत्रकार महताब आलम कहते हैं, “आज आप जिन मोहल्लों को मुस्लिमों से जोड़ कर उन्हें मुस्लिम घेटो कहते हैं वो मोहल्ले बसे ही इसी वजह से क्योंकि उन मुस्लिमों को दूसरे मोहल्लों में रहने वालों ने अपने मकान दिए ही नहीं.”

बहरहाल, दक्षिणी दिल्ली में अपने दफ्तर के करीब मकान ढूंढते ढूंढते रौफ को करीब दो महीने बीत चुके हैं, लेकिन वो आज भी एक दोस्त के मकान में रहने को मजबूर हैं. थक हार कर उन्होंने कुछ दिनों की छुट्टी ले कर कश्मीर चले जाने का और वापस आने के बाद नए सिरे से मकान ढूंढने का फैसला किया है. यानी तलाश अभी भी जारी है.

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चारु कार्तिकेय