साहित्य

तुम्हारे जाने के बाद…संजय नायक ‘शिल्प’ की एक सुन्दर रचना

 

संजय नायक ‘शिल्प’
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तुम्हारे जाने के बाद….
कुछ खास नहीं बदला तुम्हारे जाने के बाद। न जाने तुम्हें क्यों लगता था, कि तुम्हारे जाने के बाद बहुत कुछ बदल जायेगा। हमारी अंतिम मुलाकातों के दौर में हमेशा तुम्हारी यही बात दोहराव के साथ सामने आती थी, “देखना तुम बदल जाओगे, वक़्त अच्छे अच्छों को बदल देता है, इतने भी मत बदल जाना कि मुझे याद ही न करो, और कभी भूले भटके मिल जाओ तो अजनबी मत बन जाना।” कितनी मायूसी और मासूमियत से कहती थी तुम ये बात।

उसके बाद हमारे बीच एक चुप्पी छा जाती थी। होता था बस नदी का कल कल स्वर, फिर उस चुप्पी को तुम ही तोड़ती थी। हर बार कहकर जाती कि शायद ये अपनी आखिरी मुलाकात है।

मैं कहता “एक बार गले लगने दो न।” और तुम डांट देती थी, “चुप पगले ये हमारी आखिरी मुलाकात थोड़े है, जब आखिरी होगी तब गले लगना, मैं गीत गाऊँगी ‘लग जा गले….ल…ल ल…हुं …हुं हुं।”

आखिरी मुलाकात में भी यही कहा था। और मैं इस आस में रहा कि हाँ ये हमारी आखिरी मुलाकात नहीं, जब आखिरी होगी तब एक बार गले से लिपटकर रो लूँगा। पर न आखिरी मुलाकात में तुम गले लगी और न वो आखिरी मुलाकात मैंने समझी, मैं केवल तुम्हारे गले लगना ही नहीं चाहता था, बस चुपचाप रोना चाहता था, ताकि तुम मेरे आँसूं इसलिए न देख सको कि जब गले लगे होंगे तो मेरा चेहरा नहीं दिखेगा तुमको। पर एक अगली सम्भावित मुलाकात की चाह में जो कि आखिरी होती, तुमने मुझे रोने न दिया।

…..मैंने आँसू आखिरी मुलाकात के लिए सम्भाल कर रख लिए। पर तुम्हारी कही हुई कुछ बातें सही नहीं हुई। तुमने कहा था न बहुत कुछ बदल जायेगा, तुम्हारा वहम था ये। कुछ भी न बदला, मैं आज भी दशहरे के मेले में जाता हूँ। हाँ ये अलग बात है अब वहाँ जाकर आलू टिक्की नहीं खाता, जो हम हमेशा खाते थे। तुम्हारे तीखे खाने की पसन्द में मुझे भी तीखा खाना पड़ता था और तुम जो मुँह से सुड़ सुड़ करती थी उसकी बजाय मेरी नाक बहने लगती थी…और फिर तुम कहती थी, “आक तुम्हारी ये बहती नाक बहुत गन्दी लगती है, आज के बाद मैं तुम्हारे साथ कभी आलू टिक्की नहीं खाऊँगी।”

कितनी बार तुमने ये कहा और उसके बाद कितनी बार मेरे साथ तीखी आलू टिक्की खाई मुझे गिनती याद नहीं।

जब भी इस शहर में होता हूँ, मैं आज भी ऊँची टेकड़ी वाले शिव मंदिर पर हर सोमवार जाता हूँ , याद है तुम हमेशा कहती थी दो दो सीढ़ी छलांगकर चढ़ेंगे और दो दो सीढ़ी छलाँगकर ही उतरेंगे। कैसे बन्दर की तरह उछल उछल कर हम सीढियां चढ़ते उतरते थे। पर अब मैं सीढियां छलाँगता नहीं, एक एक कर चढ़ता उतरता हूँ। न जाने एड़ी में क्यों दर्द रहने लगा है, की अब सीढियां छलांगी नहीं जाती।

नदी किनारे मछलियों को देखने के लिए तुम जो आटे की गोलियाँ बनाकर लाती थी, वो बात अब बचकाना लगती है, अब वहाँ मछली दाना बेचने वाली औरतें बैठी रहती हैं। मैं भी सोचता हूँ कि इन बेचारी औरतों के पेट की खातिर मुझे इनसे मछली दाना लेकर ही मछलियों को खिलाना चाहिए। पर अब मैं मछलियों को दाना डालकर पलट जाता हूँ। अब उनकी उछलकूद नहीं देखता और न ही तुम्हारी तरह इनकी गिनती करता हूँ। तुम तो हमेशा गिनती थी…एक ..दो…तीन …चार।


सीताबाड़ी पार्क में मैं अक्सर जाया करता हूँ, तुम जब साथ होती थी क्या क्या बवाल न करती थी। मुझसे सीताफल चोरी करवाया करती थी, और छुपकर गुलाब के फूल तुड़वाती थी। मुझे सबसे छोटा सीताफल देकर खुद सब लेकर चली जाती थी, तुम्हारे इसी चोरी करवाने के चक्कर में एक दिन उस सीताबाड़ी के डरावने “धाड़ी बाबा” ने मेरे कान उमेठ दिए थे। अब मैं उस पार्क में बहुत से गुलाबों के पौधे लगवाया करता हूँ,”धाड़ी बाबा” कई बार बहुत सी बातें करते हैं। कई बार “धाड़ी बाबा” मुझे कोई पका हुआ सीताफल दे देते हैं, जिसे मैं किसी सीताबाड़ी में खेलते हुए बच्चे को थमाकर चला आता हूँ।

देखा कुछ नहीं बदला न! सब कुछ वैसा ही तो है, तुम बड़ा दम भरती थी, मेरे जाने से ये बदल जायेगा, वो बदल जायेगा, तुम बदल जाओगे, कुछ भी नहीं बदला…कुछ भी।

पर आज बदला …आज मैं आज मैं जब ऊँची टेकड़ी वाले शिव मंदिर की सीढ़ियां चढ़ रहा था, तब तुम सीढियां उतर रही थी। तुमसे अगली दो सीढ़ी पर शायद तुम्हारे पति उतर रहे थे। तुमने मुझे देखते ही हाथ जोड़े, और होंठ पर उँगली रखकर चुप रहने का इशारा किया था, ताकि मैं तुम्हारे पति के सामने तुमसे बात न कर लूँ।
तुम्हारी बात याद आ गई “और कभी भूले भटके मिल जाओ तो अजनबी मत बन जाना।” पर मैं अजनबी बदल गया। तुम सही कहती थी बहुत कुछ बदल गया।

तुम्हारे पास से गुजरते ही मैं, सीढियों को छलाँगकर चढ़ने लगा, एड़ी में दर्द तो न हुआ, पर दिल में कहीं ऐसा लगा जैसे कुछ चुभ गया, और हाँ पीठ पर भी कुछ चुभता हुआ महसूस हुआ, तुम्हारी दो जोड़ी आँखें, जो शायद मुड़कर मेरी पीठ देख रहीं थीं। और हाँ …हमारी इस आखिरी मुलाकात ने मेरी इच्छा पूरी कर दी। मैं चुपके से रो लिया और तुम मेरे बहते हुए आँसू

देख नहीं पाई।
किसी ने शायद मोबाइल पर गाना बजा रखा था
‘लग जा गले…ल…ल ल…हुँ…हुँ…हुँ.।’

एक अधूरी सी प्रेम कहानी।
संजय नायक”शिल्प”