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‘ऐ खून के प्यासे बात सुनो’….सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के ख़िलाफ़ गुजरात में दर्ज हुई FIR को रद्द करने का आदेश दिया!

सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ गुजरात में दर्ज हुई एफआईआर को रद्द करने का आदेश दिया है. साथ ही कहा है कि विचारों और नजरियों को प्रकट करने की आजादी के बिना एक सम्मानजनक जीवन जीना असंभव है

स्टैंडअप कॉमेडियन कुणाल कामरा को लेकर हो रहे विवाद के बीच भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में बड़ा फैसला सुनाया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लोगों और लोगों के समूह द्वारा मुक्त रूप से विचार प्रकट करना, स्वस्थ और सभ्य समाज का अभिन्न अंग है. कोर्ट ने यह भी कहा कि कविता, नाटक, फिल्म, स्टेज शो, व्यंग्य और कला समेत साहित्य मानव जीवन को अधिक सार्थक बनाता है.

एक कविता से कैसे शुरू हुआ पूरा मामला
यह पूरा मामला राज्यसभा सांसद और शायर इमरान प्रतापगढ़ी से जुड़ा हुआ है. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, इमरान ने पिछले साल दिसंबर में अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर एक वीडियो पोस्ट की थी. इस वीडियो के बैकग्राउंड में एक कविता चल रही थी, जिसके बोल थे- ऐ खून के प्यासे बात सुनो. इसके बाद गुजरात पुलिस ने इमरान के खिलाफ मामला दर्ज किया था. उन पर विभिन्न समूहों के बीच जाति और धर्म के आधार पर दुश्मनी को बढ़ावा देने के आरोप लगाए गए थे. नीचे आप उस वीडियो को देख सकते हैं.

प्रतापगढ़ी ने गुजरात हाईकोर्ट में इस एफआईआर के खिलाफ अपील की थी. हालांकि, 17 जनवरी को हाईकोर्ट ने एफआईआर रद्द करने से इनकार कर दिया था, जिसके बाद प्रतापगढ़ी सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे. सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने कहा कि कविता धर्म-विरोधी या राष्ट्र विरोधी नहीं है और पुलिस को संवेदनशीलता दिखाते हुए अभिव्यक्ति की आजादी का अर्थ समझना चाहिए.

अदालतों को भी समझाया अभिव्यक्ति का महत्व
कानूनी मामलों की वेबसाइट ‘बार एंड बेंच’ के मुताबिक, जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस उज्जवल भुइयां की बेंच ने कहा कि एक स्वस्थ लोकतंत्र में लोगों द्वारा प्रकट किए गए विचारों या नजरियों का जवाब दूसरा दृष्टिकोण प्रकट करके देना चाहिए. कोर्ट ने यह भी कहा कि भले ही बड़ी संख्या में लोगों को किसी के विचार पसंद ना आए लेकिन फिर भी उस व्यक्ति के विचार प्रकट करने के अधिकार की रक्षा और सम्मान होना चाहिए.

जस्टिस ओका ने फैसला सुनाने के दौरान कहा कि अदालतों का कर्तव्य है कि वे भारतीय संविधान के तहत दिए गए अधिकारों को बनाए रखें और उन्हें लागू करें. उन्होंने आगे कहा कि भले ही जजों को खुद किसी के द्वारा बोले गए या लिखे गए शब्द पसंद ना आएं, लेकिन फिर भी मौलिक अधिकारों की रक्षा करना उनका कर्तव्य है. कोर्ट ने यह भी कहा कि जब पुलिस और कार्यपालिका अभिव्यक्ति की आजादी को बनाए रखने में विफल हो जाती हैं तो अदालतों का कर्तव्य होता है कि उसमें दखल दें.

भारत में कितनी है अभिव्यक्ति की आजादी
सुप्रीम कोर्ट का फैसला इसलिए भी अहम है क्योंकि भारत में अभिव्यक्ति की आजादी की स्थिति कुछ खास ठीक नहीं मानी जाती. हर साल प्रकाशित होने वाली ग्लोबल एक्सप्रेशन रिपोर्ट, 161 देशों में अभिव्यक्ति की आजादी की स्थिति के बारे में बताती है. 25 संकेतकों के आधार पर तैयार होने वाली इस रिपोर्ट में देशों को पांच श्रेणियों में बांटा जाता है- खुला, कम प्रतिबंधित, प्रतिबंधित, अत्यधिक प्रतिबंधित और संकटग्रस्त. साल 2023 की रिपोर्ट में भारत को ‘अत्यधिक प्रतिबंधित’ श्रेणी में रखा गया था. वहीं, पिछले साल इसे सबसे गंभीर ‘संकटग्रस्त’ श्रेणी में डाल दिया गया.

पिछले साल, अमेरिका के एक स्वतंत्र थिंक टैंक ‘द फ्यूचर ऑफ फ्री स्पीच’ ने भारत समेत 33 देशों में एक सर्वे किया था. इसमें लोगों से अभिव्यक्ति की आजादी के बारे में उनकी राय जानी गयी. इस सर्वे के आधार पर बनायी गयी फ्री स्पीच इंडेक्स में भारत को 33 देशों में 24वां स्थान मिला था. सर्वे के मुताबिक, “ज्यादातर भारतीय मानते हैं कि सरकारी दखल के बिना स्वतंत्र रूप से अपनी बात कह पाना बेहद जरूरी है. लेकिन दूसरी तरफ भारत में सरकारी नीतियों की आलोचना के प्रति लोगों का समर्थन वैश्विक औसत से कम है.”