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तपन सिन्हा जी के पिता चाहते थे कि ये पढ़-लिखकर साइंटिस्ट बनें।

तपन सिन्हा जी के पिता चाहते थे कि ये पढ़-लिखकर साइंटिस्ट बनें। पहले तो तपन सिन्हा का भी इरादा ये था कि ये विदेश जाकर हायर स्टडीज़ करें। मगर फिर 1946 में इनका झुकाव फिल्मों की तरफ़ होने लगा। कलकत्ता में ही उन दिनों न्यू थिएटर्स भी हुआ करता था जो उस ज़माने में देश में मौजूद कुछ बड़े फिल्म स्टूडियोज़ में से एक हुआ करता था। तपन सिन्हा न्यू थिएटर्स जॉइन करना चाहते थे। मगर पिता से ये बात कहने की हिम्मत वो नहीं जुटा पा रहे थे। मगर उन्होंने अपनी मां से अपने दिल की बात बताई। और मां को इस बात के लिए राज़ी कर लिया कि फिल्म लाइन जॉइन करने के उनके फ़ैसले में मां सपोर्ट करें।

उन दिनों न्यू थिएटर्स के मैनेजर हुआ करते थे जगदीश भट्टाचार्य। और तपन सिन्हा के एक फैमिली फ्रेंड थे जिनका नाम था डॉक्टर सुधिन्द्र नाथ सान्याल। डॉक्टर सान्याल की जगदीश भट्टाचार्य से अच्छी जान-पहचान थी। सो, तपन सिन्हा जी की माता के कहने पर उन्होंने जगदीश भट्टाचार्य को एक चिट्ठी लिखी और सिफ़ारिश की कि तपन को न्यू थिएटर में किसी नौकरी पर लगा लिया जाए, ताकि वो फिल्म मेकिं की बारीकियां सीख सके और फिल्म लाइन में करियर बना सके। तपन सिन्हा ने सोचा कि चूंकि उन्होंने फिज़िक्स की पढ़ाई की है तो उनके लिए बेस्ट रहेगा कि वो साउंड डिपार्टमेंट से अपनी शुरुआत करें।

न्यू थिएटर्स के साउंड डिपार्टमेंट के टैक्नीशियन्स ने तपन सिन्हा का इंटरव्यू लिया। और उन लोगों की तरफ से तपन सिन्हा जी को डिमोटिवेट करने का प्रयास किया गया। तपन जी से कहा गया कि फिल्म इंडस्ट्री में भविष्य की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। कुछ और पढ़ाई करो और कोई दूसरा अच्छा काम करो। मगर तपन तो फ़ैसला कर चुके थे कि अब तो उन्हें फिल्म लाइन में ही जाना है। सो उन्होंने उन टैक्नीशियन्स की एक ना सुनी। और न्यू थिएटर्स में उन्हें असोसिएट साउंड टैक्नीशियन की नौकरी मिल गई। तनख्वाह तय हुई 70 रुपए महीना। और इस तरह तपन सिन्हा जी की सिनेमा की पहली ट्रेनिंग शुरू हो गई।

न्यू थिएटर्स में रहकर तपन सिन्हा की जान पहचान वहां काम कर रहे उस वक्त के कई दिग्गज फिल्मकारों व टैक्निकल उस्तादों से हुई। उनमें से एक थे बिमल रॉय। बिमल रॉय को भी तपन सिन्हा पसंद आए। तपन सिन्हा की जो बात बिमल दा को सबसे ख़ास लगती थी वो ये कि तपन सिन्हा को सीखने की ललक बहुत थी। और तपन की इमैजिनेशन और क्रिएटिविटी भी कमाल की थी। अपनी बंगाली फिल्म बिमल रॉय उदायर पाथे से बिमल रॉय शोहरत हासिल कर चुके थे। अब वो इस फिल्म को हमराही नाम से हिंदी में बनाने की प्लानिंग कर रहे थे। इसी फिल्म के सेट पर तपन सिन्हा को बिमल रॉय संग जुड़ने का मौका मिला।

तपन सिन्हा बड़े ध्यान से बिमल दा को काम करते देखते। स्क्रिप्ट को कई-कई दफ़ा पढ़ते। ये स्क्रिप्ट पढ़ना ही आगे चलकर तपन सिन्हा जी के बहुत काम भी आया। बिमल दा तपन सिन्हा से इतना प्रभावित थे कि उन्होंने तपन जी से कह दिया कि तु्हें जो भी आईडिया या सजेएशन आए, मुझसे बेझिझक शेयर किया करो। न्यू थिएटर्स की उस नौकरी को जॉइन किए तपन सिन्हा को अभी कुछ महीने ही बीते थे कि वो खुद फिल्में बनाने के लिए मचलने लगे। उन्होंने खुद से स्क्रिप्ट लिखना शुरू कर दिया। और फिर धीरे-धीरे तपन सिन्हा फिल्मकार बनने के अपने सपने के करीब आते चले गए। और एक दिन फिल्मकार बन भी गए।

कल यानि 15 जनवरी को तपन सिन्हा जी की डेथ एनिवर्सरी थी। साल 2009 की 15 जनवरी को तपन जी का निधन हुआ था। वैसे तो तपन सिन्हा जी के बारे में अभी बहुत कुछ था लिखने के लिए। मगर मैं फिलहाल इनके बारे में विस्तार से लिखने में अमसर्थ हूं। इसलिए आप पाठकों से खेद जताना चाहूंगा। निजी जीवन की कुछ चुनौतियों ने पिछले कई दिनों से मुझे घेरा हुआ है। उनसे पार अभी तक पा नहीं सका हूं। इसी वजह से बहुत खास कुछ लिख नहीं पा रहा हूं। मेरे लिए प्रार्थना, दुआ, अरदास कीजिएगा कि मैं फिर से अच्छी-अच्छी कहानियां आप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर सकूं। तपन सिन्हा जी को नमन। शत शत नमन।

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