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RSS : चितपावन ब्राह्मण ”यूरेशियन ब्राह्मण” : यहूदी हैं चितपावन ब्राह्मण

prof dr Arun Prakash Mishra 🇺🇲
@profapm
RSS / चितपावन ब्राह्मण ( यूरेशियन ब्राह्मण)
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आरएसएस की स्थापना चितपावन ब्राह्मणों ने की और इसके ज्यादातर सरसंघचलक अर्थात् मुखिया अब तक सिर्फ चितपावन ब्राह्मण होते आए हैं. क्या आप जानते हैं ये चितपावन ब्राह्मण कौन होते हैं ?

चितपावन ब्राह्मण भारत के पश्चिमी किनारे स्थित कोंकण के निवासी हैं. 18वीं शताब्दी तक चितपावन ब्राह्मणों को देशस्थ ब्राह्मणों द्वारा निम्न स्तर का समझा जाता था. यहां तक कि देशस्थ ब्राह्मण नासिक और गोदावरी स्थित घाटों को भी पेशवा समेत समस्त चितपावन ब्राह्मणों को उपयोग नहीं करने देते थे.

दरअसल कोंकण वह इलाका है जिसे मध्यकाल में विदशों से आने वाले तमाम समूहों ने अपना निवास बनाया जिनमें पारसी, बेने इज़राइली, कुडालदेशकर गौड़ ब्राह्मण, कोंकणी सारस्वत ब्राह्मण और चितपावन ब्राह्मण, जो सबसे अंत में भारत आए, प्रमुख हैं. आज भी भारत की महानगरी मुंबई के कोलाबा में रहने वाले बेन इज़राइली लोगों की लोककथाओं में इस बात का जिक्र आता है कि चितपावन ब्राह्मण उन्हीं 14 इज़राइली यहूदियों के खानदान से हैं जो किसी समय कोंकण के तट पर आए थे.

चितपावन ब्राह्मणों के बारे में 1707 से पहले बहुत कम जानकारी मिलती है. इसी समय के आसपास चितपावन ब्राह्मणों में से एक बालाजी विश्वनाथ भट्ट रत्नागिरी से चलकर पुणे सतारा क्षेत्र में पहुँचा. उसने किसी तरह छत्रपति शाहूजी का दिल जीत लिया और शाहूजी ने प्रसन्न होकर बालाजी विश्वनाथ भट्ट को अपना पेशवा यानी कि प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया. यहीं से चितपावन ब्राह्मणों ने सत्ता पर पकड़ बनानी शुरू कर दी क्योंकि वह समझ गए थे कि सत्ता पर पकड़ बनाए रखना बहुत जरुरी है. मराठा साम्राज्य का अंत होने तक पेशवा का पद इसी चितपावन ब्राह्मण बालाजी विश्वनाथ भट्ट के परिवार के पास रहा.

एक चितपावन ब्राह्मण के मराठा साम्राज्य का पेशवा बन जाने का असर यह हुआ कि कोंकण से चितपावन ब्राह्मणों ने बड़ी संख्या में पुणे आना शुरू कर दिया जहाँ उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया जाने लगा. चितपावन ब्राह्मणों को न सिर्फ मुफ़्त में जमीनें आबंटित की गईं बल्कि उन्हें तमाम करों से भी मुक्ति प्राप्त थी. चितपावन ब्राह्मणों ने अपनी जाति को सामाजिक और आर्थिक रूप से ऊपर उठाने के इस अभियान में जबरदस्त भ्रष्टाचार किया. इतिहासकारों के अनुसार 1818 में मराठा साम्राज्य के पतन का यह प्रमुख कारण था. रिचर्ड मैक्सवेल ने लिखा है कि राजनीतिक अवसर मिलने पर सामाजिक स्तर में ऊपर उठने का यह बेमिसाल उदाहरण है. (Richard Maxwell Eaton. A social history of the Deccan, 1300-1761: eight Indian lives, Volume 1. p. 192)

चितपावन ब्राह्मणों की भाषा भी इस देश के भाषा परिवार से नहीं मिलती थी. 1940 तक ज्यादातर कोंकणी चितपावन ब्राह्मण अपने घरों में चितपावनी कोंकणी बोली बोलते थे जो उस समय तेजी से विलुप्त होती बोलियों में शुमार थी. आश्चर्यजनक रूप से चितपावन ब्राह्मणों ने इस बोली को बचाने का कोई प्रयास नहीं किया. उद्देश्य उनका सिर्फ एक ही था कि खुद को मुख्यधारा में स्थापित कर उच्च स्थान पर काबिज़ हुआ जाए. खुद को बदलने में चितपावन ब्राह्मण कितने माहिर हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अंग्रेजों ने जब देश में इंग्लिश एजुकेशन की शुरुआत की तो इंग्लिश मीडियम स्कूलों में अपने बच्चों का दाखिला कराने वालों में चितपावन ब्राह्मण सबसे आगे थे.

इस तरह अत्यंत कम जनसंख्या वाले चितपावन ब्राह्मणों ने, जो मूलरूप से इज़राइली यहूदी थे, न सिर्फ इस देश में खुद को स्थापित किया बल्कि आरएसएस नाम का संगठन बना कर वर्तमान में देश के नीति नियंत्रण करने की स्थिति तक खुद को पहुँचाया ।

Amitabh Tripathy

Virendra Singh
@Virendra_ocean
Replying to @profapm
सिखी को छोड़कर भारत में सारे धर्म मिस्र/रोम /थाईलैंड से शिल्क रुट के जरिये भारत आये । हिन्दू धर्म की ज्यादातर कहानियां थाईलैंड की कहानियों का ब्रम्हनीकल वर्जन है । ये देश तो किसान/कबिलाइयो का था जिनका आज के स्थापित धर्मो से कोई वास्ता नही था ।

prof dr Arun Prakash Mishra 🇺🇲
@profapm
आरएसएस में कभी कोई दलित किसी पद पर नहीं रहा !
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भाजपा की अम्मा (मातृ संगठन) आरएसएस में राष्ट्रीय क्या है?
●संघ का गणवेश नेकर और शर्ट अभारतीय है ।
●ध्वज प्रणाम का तरीका अभारतीय है ।
●विचारधारा पूरी की पूरी हिटलर से उधार ली है ।
●देश की आज़ादी की लड़ाई में संघ का कोई इतिहास नहीं ।
●संघ पर अंग्रेजों ने कभी प्रतिबन्ध नहीं लगाया लेकिन आज़ाद भारत में दो बार प्रतिबंधित हुआ ।
●महात्मा गाँधी की हत्या का संघ पर आरोप ।
●महात्मा गाँधी की हत्या पर और हाल में अनन्थमुर्ति की हत्या पर मिठाई बंटाना और पटाखे चलाना।
●द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर चलकर पाकिस्तान निर्माण का समर्थन करना ।
●भारत में जनतंत्र है लेकिन संघ में नहीं ।
●आरएसएस में चीफ का कोई चुनाव नहीं होता ।
● आरएसएस में डान सिस्टम है, जाने वाला चीफ आने वाले को नियुक्त करके जाता है ।
●आरएसएस में महिला मुख्य संस्था की सदस्य नहीं हो सकती ।
●आरएसएस में सदस्यता की न रसीद होती है , न रजिस्टर ।
●आरएसएस में किसी कमेटी का चुनाव नहीं होता ।
●आरएसएस ने जातिवाद , दहेज़ उत्पीडन या अन्धविश्वास के विरुद्ध कोई मुहीम नहीं छेड़ी ।
●आरएसएस ने मज़दूरों किसानों का कोई आन्दोलन नहीं किया ।

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prof dr Arun Prakash Mishra 🇺🇲
@profapm
संघ और महासंघ !
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आरएसएस वर्ण-व्यवस्था में विश्वास करनेवाला दलित विरोधी संघ है; फिर भी कोई दलित-चिंतक-विचारक कभी आरएसएस या बीजेपी के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाता बल्कि स्थिति उलटी है:
१. पासवान और उदितराज (कुछ समय पूर्व तक) बीजेपी में हैं,
२. विवेक कुमार और चन्द्रभान बिना सिर-पैर की बहस करते हैं.
३. मायावती ने तो सरकार ही मिल कर बना डाली,
४. दलित विचारकों-चिंतकों और दलित नेताओं के वर्ग-चरित्र और इंदिरा-सोनिया, मुलायम-लालू, ममता-जयललिता के चरित्र में कोई अंतर नहीं – सभी अपने और परिवार के कल्याण में मग्न हैं,
५. एक कोई छुटभैये अपने को महान दलित-विचारक घोषित करनेवाले दिलीप मंडल, जो जायसवाल हैं, नाम के प्राणी हैं, जो अपने ही आत्म-प्रचार में मुग्ध हैं!

इस महासंघ और संघ का वर्ग-चरित्र क्या एक ही नहीं लगता?
मज़ेदार बाद यह है कि महासंघ के लोग खुद को ‘लिबरल लेफ्ट’, ‘डेमोक्रेटिक लेफ्ट’, जैसे लेबल लगा लेते हैं !

prof dr Arun Prakash Mishra 🇺🇲
@profapm
जो लोग मानते हैं कि बौद्ध-मत नास्तिक तो था पर भौतिकवादी नहीं था – वे बुद्ध के जीवन की केवल कहानियां ठीक से समझ लें – बुद्धत्व प्राप्त करने की सुजाता की कहानी, और बुद्ध की मृत्यु की कहानी !
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१. बुद्ध न शूद्र थे, न दलित
२. बुद्ध के संघ में केवल शूद्र और दलित नहीं थे
३. बुद्ध का पूरा परिवार उनके संघ में था
४. बुद्ध का सबसे बड़ा अनुयायी क्रूर अशोक भी दलित या शूद्र नहीं था !
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मतलब यह कि बौद्ध-मत का दलितवाद या अम्बेडकरवाद से कोई सीधा नाता नहीं है !

prof dr Arun Prakash Mishra 🇺🇲
@profapm
(इसी में वास्तव में बनिया-ब्राह्मण गठ-जोड़ के हित सधते हैं)

…. वस्तुतः संघ-परिवार दलित-विरोधी मुस्लिम-क्रिस्चियन-विरोधी समुदाय है …. दारासिंह को, बाबू बजरंगी को मत भूलिए … आज भी उस गुजरात में जहां १५ साल भाजपा का (सु)शासन रहा, दलितों, मुसलमानों और क्रिस्चियनस को न मकान किराये पर दिए जाते हैं और न संपत्ति खरीदने दी जाती है।

prof dr Arun Prakash Mishra 🇺🇲
@profapm

यहूदी है
चितपावन

न यह शाक्त धर्म का है
न शैव धर्म का है और
न वैष्णव धर्म का है

यह देश-विभाजक सावरकर श्यामाप्रसाद गोलवरकर के भगवा आतंकवादी तालिबान गिरोह का सरदार है

prof dr Arun Prakash Mishra 🇺🇲
@profapm
राम के बहाने मनुष्य-विमर्श
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कक्षा में पढ़ाते हुए नामवरजी ने पूछा ‘क्या कारण है कि सभी अच्छे रचनाकार राम पर रचना करने की कोशिश करते रहे हैं?’

राम भारतीय साहित्य का एकमात्र ऐसा पुरुष पात्र है जो विरह में अपनी पीड़ा-वेदना-दुःख-संताप को खोलकर रख देता है और लेखक इस पात्र के माध्यम से अपनी खुद की पीड़ा-वेदना -दुःख-संताप को व्यक्त कर देता है – राम रचनाकारों के लिए केवल एक माध्यम रहा अपने-आप को व्यक्त करने का – राम एकमात्र नहीं, लेकिन एक विशिष्ट पात्र रहा है पुरुष के विरह-वियोग को आकार देने का
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स्त्रीवादी और जातिवादी राम के ऊपर तत्काल आरोप लगाने पर पिल जाते हैं बिना आरोपों की तह तक जाए: राम स्त्री-विरोधी थे, राम शूद्र-विरोधी थे
देखिये:

तुलसी लिखते हैं:
“जनकसुता जग जननी जानकी | अतिसय प्रिय करुना निधान की |” – सीता करुणा से भरे हुए राम को ‘अतिशय प्रिय’ हैं !

निराला लिखते हैं:
“ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत
देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन
विदेह का, प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन
नयनों का नयनों से गोपन प्रिय सम्भाषण
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान पतन,….
जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।”

और आगे:
“खिच गये दृगों में सीता के राममय नयन,”

राम को सीता हर पल हर क्षण याद आती है – दोनों एकाकार हैं – इसीलिये जग तुलसी को सियाराममय दिखाई देता है और वे कहते हैं “जाके प्रिय न राम वैदेही, तजिये ताहि कोटि बैरी सम, यद्यपि परम सनेही”

यहाँ न भक्ति है, न उपासना और न धर्म – यह विशुद्ध मानवीय धरातल है – राम राजा हैं और राजा का पहला उत्तरदायित्व प्रजा के प्रति है – प्रजा में मन में शंका है राम सीता की अग्नि-परीक्षा लेते हैं, जब-जब जनता शंका करती है वे बार-बार राजधर्म का पालन करते हैं और ‘अतिशय प्रिय’ को जनता की शंका पर छोड़ भी देते हैं – आरोप लगाना आसान है, उसकी पीड़ा को, विवशता को महसूस करना आसान नहीं है – महसूस कीजिये जब राम ने प्राणों सी प्यारी सीता से अग्नि-परीक्षा देने के लिए कहा होगा, जब उसे गर्भावस्था में बनवास छुड़वाया होगा … उसी पीड़ा को, वेदना को, विवशता को वाल्मीकि से लगाकर निराला तक दिखाते चले आ रहे हैं !
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हम तो भाई, अज्ञानी हैं – इतना ही समझे हैं, बस !

क्रौंच ने अपने साथी के मारे जाने पर जो क्रन्दन और शोक व्यक्त किया, उसकी कोई सीमा नहीं थी – कवि ने जोड़े के बिछड़ने की पीड़ा-वेदना-शोक को महसूस किया और न केवल दुःख में एक नये छंद (श्लोक) की रचना कर दी बल्कि एक नया पात्र (राम) भी रच डाला उस पीड़ा-वेदना-शोक-कष्ट को व्यक्त करने के लिए – “मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥”

कालान्तर में जिस रचनाकार को अपने वियोग-विरह को व्यक्त करने की ज़रूरत पड़ी उसने इस पात्र को उठा लिया – उसकी बीबी का पात्र बनाकर का अपहरण करवा दिया और मियां-बीबी के अतिशय प्रेम की रचना कर डाली !

तुलसी का पत्नी-प्रेम इतना प्रसिद्ध है कि मुहावरा है “वो तो तुलसीदास हैं” और तुलसी का वियोग भी कम कष्टकार नहीं रहा होगा !

निराला तो पत्नी के वियोग में लगभग पागल ही हो गए !
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उत्तरकांड: राम न आस्था हैं, न ब्रह्म, न ईश्वर, न अवतार, न लीला, न इतिहास, न पुराण – यह केवल रचनाकार का अपना निजी शोक-पीड़ा-दुःख है !

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डिस्क्लेमर : लेखक के निजी विचार हैं, लेख X पर वॉयरल हैं, तीसरी जंग हिंदी का कोई सरोकार नहीं!

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