विशेष

”गांव के मुरदे मुरदे को दफ़ना देंगे”

Prem anand
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भगवान, क्राइस्ट ने कहा : गांव के मुरदे मुरदे को दफना देंगे। कबीर ने कहा : साधो, ई मुरदन के गांव। और मलूक कहते हैं : मुरदे मुरदे लड़ि मरे। लोकजीवन मृत है, इसका क्या कारण है? क्या जीवन—निषेध का दर्शन इसका कारण है? या अहंकार और अज्ञान कारण है? क्या इस मृतवत जीवन से उबरने के लिए बुद्धत्व ही एकमात्र उपाय है? हमें समझाने की अनुकंपा करें।

आनंद मैत्रेय! मूर्छा एकमात्र कारण है और बुद्धत्व एकमात्र उपाय है। बुद्धत्व यानी जागरण, होश से भर जाना। मूर्छा यानी ऐसे जीना जैसे कोई शराब पी कर रास्ते पर चल रहा हो लड़खड़ाता—लड़खड़ाता। जिसे अपना पता नहीं है, वह मूर्छित है। और जिसे अपना पता है, वह बुद्ध है।

एक दार्शनिक ने सुबह—सुबह अपनी पत्नी से सुना कि : “जानते हो जी, हमारे मुन्ने ने चलना शुरू कर दिया!”

दार्शनिक ने सोचते हुए पूछा : “कब से?”
“अजी, कोई एक हफकीरता हो गया!”
“ओह! तब तो वह काफी दूर निकल गया होगा!” दार्शनिक महोदय चिंतित स्वर में बोले।

होश कहां? अपने दर्शन में खोए हैं। चारों तरफ देखने की फुर्सत कहां?

चंदूलाल हनीमून मनाने किसी हिल स्टेशन पर गए। कार की पिछली सीट पर बैठे वे अपनी नयी—नवेली दुल्हन गुलाबो से प्यार—मुहब्बत कर रहे थे, किंतु उन्हें डर लग रहा था कि साला ड्राइवर कहीं देख न रहा हो!

ड्राइवर रास्ता भटक गया था, किंतु प्रेम में मदहोश चंदूलाल को इसकी खबर न थी कि उसकी कार एक ही जगह का चक्कर काट रही है। जब उसी चौराहे पर से कार फिर गुज़री तो ड्राइवर ने पूछा—”क्यों साहब, यह सातवीं बार है न?”

गुलाबो को दूर खिसकाते हुए गुस्से में चंदूलाल बोले—”सातवीं बार हो या सौवीं बार, तुझे इससे क्या मतलब? तू अपना काम कर, मैं अपना काम कर रहा हूं।”
लोग अपने भीतर बंद हैं, लोगों की आंखें बंद हैं, कान बंद हैं! संवेदनशीलता बंद है।

मूर्छा। एक गहरी मूर्छा है। हम चल लेते हैं, उठ लेते हैं, काम भी कर लेते हैं, किसी तरह जिंदगी बीत ही जाती है। मगर किसी तरह! हमें कुछ पता नहीं चलता कि हम कहां थे, क्यों थे, किसलिए थे? क्यों जन्मे, क्यों जीए, क्यों मरे; कौन था जो आया और कौन था जो गया, कुछ पता नहीं चलता! इसको तुम होश कहोगे? हां, नाम हम बता सकते हैं। वह नाम हमारा नहीं है, दिया हुआ है। और अपना पता भी बता सकते हैं। वह भी हमारा नहीं है, दिया हुआ है। तुम्हें अपना पता ही नहीं है। जागो! झकझोरो अपने को! अपने प्रत्येक कृत्य को जागरण से जोड़ दो!

अचानक ढब्बूजी को खबर लगी कि चंदूलाल अस्पताल में भरती हैं। उसके शरीर में घाव ही घाव हो गए हैं और करीब बीस फैक्चर हुए हैं; हालत गंभीर है। समाचार मिलते ही ढब्बूजी भागे—भागे अस्पताल पहुंचे। देखा कि पूरे शरीर में पट्टियां ही पट्टियां बंधी हैं, आक्सीजन लगी है, ग्लूकोज की बोतल लटकी है, और पास ही में बैठी गुलाबो सिर के बाल नोंचकर जार—जार रो रही है, छाती पीट रही है। ढब्बूजी ने कहा : “भाभी, यह क्या हो गया; कोई दुर्घटना हो गयी क्या?”

“मुझसे क्या पूछते हो”, गुलाबो ने दहाड़ मारते हुए रोकर कहा, “अपने भैया से ही पूछो न!”

“क्या हुआ, भाई चंदूलाल”, ढब्बूजी ने उदास स्वर में पूछा, “क्या कर बैठे यह? आखिर ऐसी कौन—सी गलती हो गयी कि जिससे पूरे शरीर पर प्लास्टर ही प्लास्टर चढ़ गया?”

बेचारे चंदूलाल ने बामुश्किल मुंह खोलकर जवाब दिया, “क्या बताऊं, दोस्त, मैंने तो बस इतना ही कहा था कि दाल में ज़रा नमक कम है।”

यह सुनते ही गुलाबो की आंखें गुस्से से लाल हो गयीं। “शर्म नहीं आती झूठ बोलते”, वह पूरी ताकत लगाकर चीखी, “तुमने यह नहीं कहा था कि नमक ज़रा कम है, तुमने यह कहा था कि नमक है ही नहीं।”

“मगर भाभी इतने नाराज होने की तो कोई बात नहीं थी”, ढब्बूजी ने समझाया, “आपको दाल में और नमक डाल देना था।”

गुलाबो बोली, “यदि घर में नमक होता तो मैंने पहले ही न डाल दिया होता! एक हफकीरते से घर में नमक है ही नहीं। कहो अपने भैया से, घर में सामान लाकर क्यों नहीं रखते?”

“क्या बात करती हो, जी!” चंदूलाल बोले, “मैंने पिछले शनिवार को ही तो दस किलो नमक लाकर तुम्हें दिया था।”

गुलाबो का गुस्सा तो अब आसमान पर चढ़ गया। वह बोली, “अरे कलमुंहे, मुझे बताया क्यों नहीं कि वह नमक है। मैं तो उसे शक्कर समझकर रोज चाय में डालकर तुझे पिलाती रही!”

ऐसी जिंदगी चल रही है!
तुम पूछते हो, क्राइस्ट ने कहा : गांव के मुरदे मुरदे को दफना देंगे। कबीर ने कहाः साधो, ई मुरदन के गांव। और मलूक कहते हैं : मुरदे मुरदे लड़ि मरे। लोकजीवन मृत है, इसका क्या कारण है?

एकमात्र कारण है कि लोग बेहोश हैं, मूर्छित हैं। और एकमात्र औषधि, रामबाण औषधि, और वह बुद्धत्व है। इसके सिवाय न कभी कोई उपाय था, न है, न हो सकता है।

जागो! और जाग तुम सकते हो, वह तुम्हारी संभावना है। वह तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है!
ओशो