साहित्य

मुंह-दिखाई की रस्म ❤❤🥰🥰🥰🥰

हमारी शादी के समय मुंहदिखाई के लिए भी हर रोज ही तैयार होना पड़ता था, अब तो मुंहदिखाई की रस्म भी at home में बदल गई है, एक दिन में ही निपट जाता है, पर हमारी मुंह दिखाई महीनो चली थी, और दूर दूर की भी रिश्तेदार जो शादी में नही आ पाई थी मुंहदिखाई करने जरूर आती थी😌
मुंह-दिखाई की रस्म ❤❤🥰🥰🥰🥰

…..शादी-विवाह की बात करें तो आज के पंद्रह-सोलह साल पहले की शादियों मे और आज की शादियों में जमीन-आसमान का अंतर हो गया है। अब तो दुल्हन कौन है यही समझने मे ही काफी वक्त लग जाता है और रिसेप्शन होने की वजह से वो मुंह दिखाई की परम्परा भी खतम हो गयी …………………

दुल्हन की कल्पना मात्र से ही वो लजाई सकुचाई दुबली पतली सी काया जिसे नंदों और जिठानियों ने सजाया संवारा हो वही अक्श जेहन मे उभरने लगता है । लाज से आरक्त चेहरा इस कृत्रिम लालिमा में स्वाभाविक लालिमा का रंग घोल देता है।लम्बी सी चोटी बनाये, बांह भर कंगन साथ चूड़ी पहने, रुनझुन बजने वाली पायल संग बिछिया वाले आलता से रंगे पैर वाली, साड़ी में लिपटी नायिका जब धीमे-धीमे पग धरती आँगन मे आकर भरी महफिल मे बैठती है तो एक पल को सभी की नजरे उसी पर टिक जाती है ……

दुल्हन सबके पैर छूती है और सब लोग जोड़ी बनी रहे , दूधों नहाओ पूतो फलो जैसे खूब आशीष देती हैं। ……उसके हाव भाव और गुण सहूर जानने की जिज्ञासा पूरे गाँव को रहती है …इधर उधर से हम उम्र नंदों की चुहलबाजी चलती रहती है….तभी कोई गाँव की बड़ी बुजुर्ग अम्मा क़हती है चलो अब बहू को ढोलक दो …देखे जरा इनकी अम्मा ने गीत वीत सिखाये की नहीं ….गाँव कि सारी ननदे इधर उधर से घूँघट के अंदर ताक झांक उसे गाने के लिए उत्साहित करती है…………..

बेचारी एक तो गहने जेवर से लदी और भारी सारी के बोझ तले दबी जा रही और ऊपर से लाज और शरम से जो गीत आते भी थे वो भी भूले जा रहे……हंसी मज़ाक के बीच सब एक एक करके दुल्हन का घूँघट उठाकर देखती जाती और ढेरो आशीष के साथ कुछ पैसे शगुन के रूप में जरूर देती।

कृपया इसे अन्यथा न ले मेरे इस पोस्ट का मतलब सिर्फ ये है कि घूंघट हो या न हो, सिर पर लिहाज का पल्लू अवश्य होना चाहिए और आँखें, जिनमें दुल्हन की सारी खूबसूरती सिमटी है, बंद करके मुंह-दिखाई करें या न करें लेकिन वे झुकी तो रहनी ही चाहिए, अच्छा लगता है बहु का बहु बनकर रहना भी😊