विशेष

पूरी रात वो मुझे गर्मी देता रहा….

Pooja Sharma
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जब लड़कियाँ सेक्स करती हैं तो क्या करती हैं?
काफी समय से शादीशुदा हैं. लेकिन समस्या यह है कि मैं अपनी पत्नी की कामोत्तेजना को कभी नहीं समझ पाता। वह संभोग के दौरान भी चुप रहता है। यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि वह सेक्स का आनंद ले रही है या नहीं। वह कभी भी अपनी इच्छा से मेरे पास नहीं आता, केवल अनिच्छा से तब आता है जब मैं उसे आमंत्रित करता हूँ। कैसे पता करें कि पत्नी यौन रूप से उत्तेजित है? या कैसे पता चलेगा कि उसे सेक्स में रुचि है?

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उत्तर:- महिलाओं में यौन उत्तेजना के कई लक्षण होते हैं। लगभग हर कोई जानता है कि जब एक महिला यौन रूप से उत्तेजित होती है, तो उसकी योनि फिसलन भरी हो जाती है। लेकिन इसके अलावा कुछ बाहरी संकेत भी हैं, जिससे आपको पता चल जाएगा कि आपकी पत्नी सेक्स में रुचि रखती है।

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उदाहरण के लिए-
– जब महिलाएं सेक्स में रुचि लेती हैं तो उनके होठों पर खून लग जाता है। होंठ सामान्य से अधिक लाल हो जाते हैं।

-उत्तेजना के कारण महिलाओं के गालों पर भी लाली आ जाती है। कई लोगों को हल्का पसीना आता है और वे जोर-जोर से सांस लेते हैं।

– यौन उत्तेजना होने पर शरीर बहुत संवेदनशील हो जाता है। आपके छोटे से स्पर्श से वह उत्तेजित हो जाएगा.

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– महिला चाहे कितनी भी शर्मीली क्यों न हो, अगर उसे सेक्स में दिलचस्पी होगी तो वह आपके पास आएगी। हो सकता है सीधे तौर पर कुछ न कहते हुए भी वह आपके पास आकर बैठे, धीरे से छुए, चूमे, आंखों के इशारे से बात करे.

– संभोग के दौरान तीव्र उत्तेजना के दौरान वह आपको खरोंचेगा और काटेगा। आपके शरीर, गर्दन, कान आदि में नाखून गड़े हो सकते हैं। वह उत्तेजना में काट लेगा।

– साथ ही संभोग के दौरान शिटकर को समझ आएगा कि वह आनंद ले रहा है और अत्यधिक उत्साहित है। बहुत से लोग तेज़ आवाज़ नहीं करते हैं, लेकिन हल्की “आह उह” ध्वनि निकलती है।
अब आते हैं आपकी समस्या पर. अगर पत्नी को आपके साथ सेक्स करने में कोई दिलचस्पी नहीं है तो इसका कारण उसका शर्मीलापन हो सकता है।

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भले ही यह शर्म की वजह से हो, आप यह बात समझ जाएंगे। वह आपके स्पर्श से रोमांचित हो जाएगी, उसकी योनि फिसलन भरी हो जाएगी और सेक्स के लिए तैयार हो जाएगी, वह आपको सेक्स करने से नहीं रोकेगी।

लेकिन एक बात याद रखें, सेक्स में कोई दिलचस्पी न दिखाना और अनिच्छा दिखाना दो बिल्कुल अलग चीजें हैं। यदि उसे रुचि नहीं है, तो वह आपको दूर धकेल देगा। तो फिर कभी खुश मत होना. पार्टनर को संभोग के लिए तैयार करने में काफी समय लगेगा। मुलाकात के बाद वह जल्द से जल्द आपसे दूर चला जाएगा और इस बारे में कुछ नहीं कहेगा. और वह तुम्हें खुद से नहीं सहलाएगा. पत्नी आपकी है, आप स्वयं समझें कि आपके मामले में क्या हो रहा है।

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Abhisha Mishra

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“आंटी इनसे मिलिए ये दादीजी हैं, हमारे पड़ोस में रहती हैं.”
झुकी थी तरन्नुम… पांव स्पर्श किया…
“सदा सुहागन रहो बेटी, आज करवा चौथ है, सुहाग तेरा बना रहे.”
“दादीजी इनके यहां करवा चौथ नहीं होता है.”
एक पल में तरन्नुम का पूरा शरीर कांप उठा. कमरे के फ़र्श, दीवार मानो सभी कुछ थरथरा रहे थे. वह अपना आपा खो बैठी. बगल में रखी कुर्सी पर वह किसी तरह बैठ गई.
बीस साल बाद..?

चश्मा पर्स में था, इसलिए चेहरा ठीक से देख नहीं पाई थी, पर आवाज़..? यह तो वही आवाज़ थी… उस आवाज़ पर बुढ़ापे की खोल ज़रूर चढ़ चुकी थी, किंतु एक क्षण भी नहीं लगा उसे पहचानने में. रश्मि ने घबराकर तरन्नुम का हाथ पकड़ लिया.

“क्या बात है आंटी? आपकी तबीयत ठीक नहीं लग रही है. चलिए चलकर कमरे में लेट जाइए. शायद सफ़र के कारण आपको थकान हुई होगी.”
तरन्नुम ने आंखें खोली. उसके कंठ सूख गए थे. किसी तरह उसने अपने आपको संभाला और कांपते आवाज़ में पूछा, “वह कहां हैं?”

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“कौन?”

“जिनके मैंने पांव छुए.”
“दादीजी? वह तो चली गईं. पड़ोस में ही रहती हैं. वह देखिए सामने वाला घर है.”
खिड़की से उसने दिखाया. उसकी धड़कन बढ़ती जा रही थी.
“कौन हैं वो लोग?”
रश्मि ने उसे विस्मय से देखा.

“कुछ सालों से यहां रह रहे हैं ये लोग. पहले लखनऊ में रहते थे. मोहल्ले में लोगों ने बताया कि किसी हादसे में दादीजी के पति, दो बेटे और बहू मारे गए. स़िर्फ बड़ा बेटा और दादीजी ही बच पाए. बड़े बेटे की नई-नई शादी हुई थी. बहुत दिनों तक तो विक्षिप्त हालत में रहे वे लोग. किंतु दादीजी की दृढ़ता और मज़बूती ने स्वयं और बेटे दोनों को संभाल लिया.
बड़े बेटे ने मानसिक संतुलन खो दिया था, इसलिए दादीजी शहर दर शहर भटकती रहीं उनके इलाज के लिए. दूसरों के घर में काम करके उन्होंने ज़िंदगी चलाया. धीरे-धीरे वे ठीक हुए. वो कहते हैं ना जीवन, तो जीवन है किसी तरह निकल ही जाता है. ठीक होने पर वे ख़ुद कमाने लगे और मां का काम छुड़वा दिया. कितने ही ज़ख़्म हो ज़िंदगी उन्हें रौंद ही देती है और आगे बढ़ जाती है.” यह कहकर रश्मि चुप हो गई.

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बहुत मुश्किल से उसने पूछा, “और बड़े बेटे का नाम?”
“उनका नाम मयंक है. लोगों ने बहुत कहा, किंतु उन्होंने विवाह नहीं किया. मां-बेटे अकेले ही रहते हैं.”
तरन्नुम ने आंखें बंद कर ली, मानो वह गहरी नींद में सोना चाहती थी. पर वह सो कहां पाई… अतीत के असंख्य पन्नों की फड़फड़ाहट की आवाज़ लगातार उसके कानों से टकरा रही थी.
सुबह से सुनयना व्यस्त थी. करवा चौथ की तैयारी चल रही थी. सज-धज कर जब उसने सास के पांव छुए, तो सास ने ढेर सारा आशीर्वाद दिया, “जुग-जुग जियो बिटिया… सदा सुहागन रहो…”
सुनयना और उसकी सास दोनों ने उपवास रखा था. लाल साड़ी में सजी-धजी सुनयना को देख सास ने कई बार बलैया ली थी कि नज़र ना लगे. पूजा की तैयारी चल रही थी. मयंक यह कहकर ऑफिस चला गया था कि चांद निकलने से पहले वह घर आ जाएगा. अचानक…

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जीवन का वह विभत्स रूप… भीषण शोर-शराबा, हथियार-बंदूक, खून, आग… पूरा घर आग की लपटों में समा गया था. आग की लपटों में उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था. उसकी सांसें घुट रही थीं… फिर भी उसने अपने आप को संभाला और वह घर में सभी को ढूंढ़ने के लिए दौड़ी. किंतु प्रचंड लपटों ने उसे घेर लिया. वह चीखती रही, क्योंकि पूरा परिवार घर के भीतर था.
अर्ध बेहोशी की हालत में वह बाहरी दरवाज़े की तरफ़ आई. दंगाइयों ने जैसे ही उसे देखा, गिद्ध की तरह झपट पड़े. उसने घर के भीतर फिर जाना चाहा था, किंतु आग की लपटों ने उसे जाने से रोक दिया.

एक तरफ़ आग की लपटें दूसरी तरफ़ दंगाई… उसकी सांसें घुटती जा रही थीं. वह बाहर निकलना चाहती थी… उसी समय दंगाइयों में से एक व्यक्ति उसके ऊपर झपटा और उसे घसीटता हुआ बाहर निकाल लिया. पता नहीं उस व़क्त उसमें कहां से इतनी प्रचंड शक्ति आई और वह अपना हाथ झटके से छुड़ाते हुए दौड़ पड़ी… वे सभी उसके पीछे दौड़ पड़े…वह भागती रही, चीखती रही… अंत में सामने देखा… उसे पल भर भी नहीं लगा और वह गोमती में कूद पड़ी.

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आंख खुली तो उसकी दुनिया ही बदल चुकी थी. बाद में पता चला था हफ़्तों वह अर्धचेतना में थी. जब चेतना में आई, तो विक्षिप्तावस्था में चली गई. चिखती-चिल्लाती रही. लंबे समय तक इलाज कराया था शकील अहमद ने. सही-सही वह अपने बारे में कुछ बता नहीं पाती थी. जब उसे अपना नाम याद आया, तब तक उसका नाम तरन्नुम हो चुका था.

जब वह सामान्य हुई, तो शकील अहमद ने उससे पूछ कर उसके परिवार को बहुत ढूंढ़ने की कोशिश की, परंतु पता चला कि पूरा घर जल चुका था. परिवार का एक भी सदस्य बचा नहीं था. मयंक के बारे में बहुत पता करना चाहा था. पुलिस की मदद ली, परंतु यही पता चला कि मयंक जिस ऑफिस में काम करता था उस ऑफिस को भी जला दिया गया था, एक स्टाफ भी नहीं बचा था.
पूरे शहर में दंगा फैला था. शकील अहमद की पत्नी और बेटी की मृत्यु भी इसी घटना के दौरान हुई थी. उन्हें ढूंढ़ने के क्रम में ही सुनयना उन्हें मिली थी. गोमती से हज़ारों लाशों की छानबीन हुई थी. सुनयना की चंद सांसें अटकी पड़ी थीं. उसे सरकारी विभाग के द्वारा अस्पताल लाया गया था. उसी अस्पताल में शकील अहमद भी अपनी जली हुई बेटी और पत्नी का इलाज करा रहे थे. उनकी पत्नी की बगल वाली बेड पर ही वह थी.

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समय ने दांव खेला वह ज़िंदा बच गई, लेकिन उनकी पत्नी और बेटी ने दुनिया से विदा ले लिया. उसकी विक्षिप्त स्थिति के कारण सरकार के द्वारा उसे किसी मानसिक अस्पताल में भेजने की बात चल रही थी. उस दिन अचानक शायद व़क्त कुछ निर्णय लिया था. शकील अहमद का आठ साल का बेटा सुनयना के बिस्तर के पास आया और हाथ पकड़ कर कहा, “आपा घर चलो. उसके बाद उसने हाथ छोड़ा ही नहीं. कई दिनों तक रोता रहा. विवश हो शकील अहमद सरकारी औपचारिकता पूरा कर उसे घर ले आए.

कई बार उसने आत्महत्या करने की कोशिश की, पर शकील अहमद ने उसे बचा लिया. तरन्नुम नाम पर जब उसने विरोध किया, तब उन्होंन कहा, “जब मैं तुम्हारे बारे में कुछ नहीं जानता था, तब मुझे समझ में नहीं आता था कि तुम्हें क्या कहूं. मेरी बड़ी बेटी का नाम तरन्नुम था जो इस दुनिया में नहीं थी और मुझे लगा कि मेरी तरन्नुम मुझे मिल गई, इसलिए मैं तुम्हें तरन्नुम कहने लगा.”

इकबाल की मासूमियत ने उसे जीवन का आधार दिया. समय गुज़रा शकील अहमद नही रहे और सुनयना ने इकबाल की पूरी ज़िम्मेदारी उठा ली. बीस साल गुज़र गए. इकबाल अठाइस साल का हो चुका था. सुनयना की ज़िम्मेदारी तब पूरी हुई, जब इकबाल को अच्छी कंपनी में नौकरी मिली. उसी कंपनी में कार्यरत जिस लड़की को इकबाल ने पसंद किया, उससे सुनयना ने उसका निकाह करा दिया.

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उस दिन जब इकबाल ने अपना फ़रमान सुनाया, तो वह इतनी विचलित हो गई कि उसके हाथ-पांव ठंडे पड़ने लगे और उसने इनकार करते हुए कहा, “इकबाल तुम सना को लेकर चले जाओ, मैं नहीं जा पाऊंगी. मेरी तबीयत ठीक नहीं है.

किंतु इकबाल नहीं माना. तरन्नुम ने जब दिल्ली केस्टेशन पर पांव रखा, तो अतीत ने उस पर प्रहार करना शुरू कर दिया. आज बरसों बाद लाहौर से उसने बाहर कदम रखा था. शकील अहमद लखनऊ छोड़कर लाहौर के अपने पुश्तैनी घर में जब आए, तब से वह वहीं थी. भीतर एक अजीब सी बेचैनी थी. उदासी… वेदना… घबराहट… जाने इस तरह के कितने तंतुओं ने उसे घेर रखा था, जिसे उसने वर्षों पहले हृदय के किसी कोने में दबा दिया था.

इकबाल को कंपनी के काम से दिल्ली आना था. सना की बचपन की दोस्त रश्मि दिल्ली में ही रहती थी. इकबाल का जब काम ख़त्म हो गया, तो उसने अपनी दोस्त से मिलने की ज़िद की. वे तीनों जब वहां पहुंचे, तो रश्मि की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. उसने उन लोगों को दो-तीन दिनों के लिए रोक लिया. भरा-पूरा परिवार था. तरन्नुम की उसकी सास से बहुत जल्दी दोस्ती हो गई. तीन दिन कैसे बीत गए पता ही नहीं चला. आज लाहौर लौटने का दिन था.

“आप लोग एक दिन और रुक जाते तो पड़ोस में दादीजी के यहां हम लोग चलते. करवा चौथ की पूजा के कारण हम लोग कहीं जा नहीं पाए…”

तरन्नुम के मस्तिष्क के सारे तार एक साथ झंकृत हुए थे. मानो पूरे शरीर ने जवाब दे दिया था. उसके पांव को जैसे किसी अदृश्य ताक़त ने जकड़ लिया था. वह ठीक से खड़ी नहीं हो पा रही थी. इकबाल चिंतित था.

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“अचानक आपको क्या हो गया? आईं थीं, तो आप अच्छी-भली थीं.”

बाहर गाड़ी लगी थी. सभी से विदा ले इकबाल तरन्नुम को सहारा देते हुए बाहर लाया. सामान गाड़ी में रखा जा चुका था. सना बैठ गई. किंतु तरन्नुम के पांव उठ ही नहीं रहे थे और अचानक… पड़ोस वाले घर में उसने उस छाया को देखा… बदहवास सी तरन्नुम दौड़ पड़ी. सभी भौंचक्के रह गए… इकबाल दौड़ा, “आपा… तब तक तरन्नुम उस घर के अहाते के गेट को खोलकर बरामदे में पहुंच चुकी थी. कुर्सी पर बैठा पुरुष अचानक खड़ा हो गया. उसके मुख से चीखें निकली.

“मयंक मैं तुम्हारी सुनयना…” और पल भर में वह उस पुरुष को झकझोरती हुई मूर्छित हो गिर पड़ी.

दो दिन हो चुके थे अस्पताल में सुनयना और मयंक को अभी तक होश नहीं आया था. सुनयना को देख मयंक भी होश खो बैठा था. पूरा परिवार मौन था. जिसको जो जानना था जान चुका था… जो समझना था समझ चुका था. अतीत की सारी परतें उघड़ चुकी थीं. बस इंतज़ार था दोनोें के होश में आने का. आज वह कमज़ोर और वृद्ध काया, जो इतने सालों से मज़बूती से ज़िंदगी से लड़ती आई थी, बहू को देख सुन्न पड़ चुकी थी. व़क्त मूक और स्तब्ध था. एक-एक लम्हा सभी के लिए इतना भारी था कि उसका बोझ उठाना मुश्किल होता जा रहा था.

समय के दांव से नियति भी स्तब्ध थी. तरन्नुम होश में आ चुकी थी. एक तरफ़ वर्तमान और दूसरी तरफ़ अतीत दोनों के पलड़ों को तौलती भविष्य को आंक रही थी तरन्नुम. प्रेम… मोह… दुविधा… के डोर से बंधी मानसिक संघर्षों से जूझ रही थी वह. एक-दूसरे की परिस्थितियों को सभी समझ-बुझ रहे थे, किंतु आख़िरी निर्णय किसी ने नहीं लिया.

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वर्षों के टूटे तार आपस में जुड़ने का प्रयास तो कर रहे थे, किन्तु नए तारों के झंझावात से शिथिल पड़ रहे थे. एक तरफ़ वर्षों का खोया पति… दूसरी तरफ… जिसे पुत्र की तरह पाला था, उसका मोह… दोनों जंजीरों ने उसे जकड़ रखा था. किंतु अंततः नया तार प्रबल हुआ… इकबाल तरन्नुम के क़रीब आया और बोला, “आपा, बचपन से मैंने आपको अम्मी की तरह समझा. अब्बा नहीं रहे, फिर भी आपने मुझे दोनों का प्यार दिया. आपने मुझे परिवार दिया… ज़िंदगी दी… आज मैं भी… बेटा कह लें या छोटा भाई… अपना फर्ज़ निभाना चाहता हूं. आपको भी मैं परिवार देना चाहता हूं… ज़िंदगी देना चाहता हूं… आप कहीं भी रहें आपका स्थान कोई नहीं ले सकता. आप तो मेरे रूह में बसती हैं, फिर तो दूरियों का सवाल ही नहीं…”

सभी आंखों में नमी लिए मौन थे. उस मौन को तोड़ा सना ने, “अरे हां, अब एक परिवार की जगह दो परिवार हो गया हम लोगों का. अब तो लाहौर और दिल्ली दोनों की ठंडी हवा का हम आनंद उठाएंगे. अनायास ही अतीत और वर्तमान सभी आपस में घुल-मिल गए…” सभी के होंठों पर मुस्कान फैल गई.

इकबाल सना को लेकर लाहौर चला गया, यह कहकर कि वह हमेशा मिलने आता रहेगा. मयंक ने भी आश्‍वासन दिया था, “मैं भी सुनयना को लेकर आता रहूंगा.”

रात हो चुकी थी बिस्तर पर सुनयना सास के पांव के पास बैठी थी. उनके पांव को स्पर्श करते हुए कहा, “आपके आशीर्वाद में कितनी शक्ति है… उस दिन भी सुबह में आशीर्वाद दिया था- सदा सुहागन रहो… और बीस साल बाद भी आपने वही आशीर्वाद देकर मेरे पति को लौटा दिया.”

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सास ने सुनी आंखों से दीवार की तरफ़ देखते हुए कहा, “उस दिन छोटे बेटे ने मुझे बचाने के लिए रसोईघर के पिछले दरवाज़े से बाहर की ओर धक्का दे दिया था… मैं गिर पड़ी थी. होश खो बैठी इस कारण उठ नहीं पाई. उसके बाद वह अन्य सभी को बचाने के लिए दौड़ पड़ा था… फिर क्या हुआ पता नहीं… जब तक होश आया, तब तक सब कुछ राख हो चुका था. और मयंक के जिस ऑफिस को जलाया गया था, वहां से मयंक पहले ही निकल गया था. शायद इसी आशीर्वाद को फलीभूत करने के लिए…”

एक अजीब सा सन्नाटा पूरे घर में फैल चुका था. दरवाज़े पर खड़ा मयंक चुपचाप सुन रहा था. अपनी पदचापों से उसने सन्नाटे को तोड़ा. नम आंखों को पोंछते हुए वह कमरे के भीतर आया. पलभर में मां और पत्नी दोनों को उसने अपनी बांहों में भर लिया.

“किंतु व़क्त? वह तो असमंजस में था, इस मिलन को देखकर. ना रो पाया… ना हंस पाया… अतीत दूर खड़ा मौन था. लम्हों ने झकझोरा था व़क्त को… देखा, सामने वर्तमान खड़ा मुस्कुरा रहा था. वर्तमान को मुस्कुराते हुए देखकर उसने मुस्कुराने की कोशिश ज़रूर की.

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Puja Kumari 

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होंठों के जूते
होंठ चूमने वाले
प्रेमियों से भरे इस संसार में,
तुमने हमेशा
पिछले दिन की थकन में डूबे
मेरे सोते पैरों को चूम कर
सुबह जगाया है मुझे।
‘फ़ुट फ़ेटिश है तुम्हें’,
कहकर अपने पैर कंबल में समेटते हुए
झिड़क-सा दिया था मैंने तुम्हें
एक दुपहर।
जवाब में तुमने,
कुछ कहा नहीं।
सिर्फ़ इतना प्रेम किया मेरे पैरों को,
कि मुझे लगने लगा जैसे
मैं जूतों की जगह
तुम्हारे होंठों को पहने घूमती रही हूँ।
आतुर पैर
तुम्हारी दुलारती गोद में आते ही,
किसी रिपोर्टर के धूल सने बीहड़ पैरों से
एक प्रेमिका के आतुर पैरों में
तब्दील हो जाते हैं
मेरे पाँव।
दाहिने पैर के अँगूठे को
यूँ ही सहलाते बैठे तुम
जब भी डूब कर टॉमस मान को पढ़ते हो,
तो इतना प्यार आता है मुझे तुम पर!
बिस्तर पर यूँ पड़े-पड़े ही

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कंधे पर रख देती हूँ एक पैर
उसी पैर के अँगूठे से फिर,
तुम्हारे कान को गुदगुदाती हूँ।
मुझ में कामना की आग
चेहरे से नहीं,
अपने पैरों पर
तुम्हारे
अलसाए स्पर्श से चढ़ती है।
जुराबें
खिड़की से झाँकते देवदारों पर झरती
बारिश की अनवरत बूँदों को
सारी रात सुनती रही हूँ।
पहाड़ों के पीछे,
उफ़क़ तक जाती है मेरी तृष्णा
क्या कोई अंत है इस प्यास का
जो हर बारिश के साथ बढ़ती ही जाती है?
कंबल में भी,
बर्फ़ से ठंडे पड़े मेरे पैर
हर बूँद की आवाज़ पर
तुम्हारे होने की चाहना से
और भर जाते हैं।
देखो न,
कितना चले हैं तुम्हारी याद में!
कितनी भी जुराबें पहन लूँ,
यूँ ही पत्थर से ठंडे पड़े रहते हैं।
तुम्हारी हथेलियों के खोल के सिवा
जैसे कोई अलाव ही नहीं
जो इन्हें नर्म कर

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फिर से ज़मीन पर खड़ा कर पाए।
टोनी गटलिफ़ के लिए
गर्मियों की इन दुपहरों में
घंटों तुम्हारे पैर अपनी गोद में रखे,
पड़ा रहता हूँ,
यूँ ही कमरे में।
और तुम?
तुम अपनी किताब के पन्नों में मशग़ूल
मेरी छाती पर सुलाकर अपने पैर
भूल ही जाती हो जैसे!
जब धीरे से चूमता हूँ
तुम्हारे दाहिने पैर के अँगूठे को
तब जाकर याद आता तुम्हें!
‘अरे, मिट्टी लगी है पैरों में!’
हँसते-हँसते कहती हो जब,
तो तुम्हारे साथ-साथ
तुम्हारे मीठे शब्द भी सारे
फ़र्श पर बिखरने लगते हैं।
‘तुम्हारे पैरों में मेरा दिल है। है ना?’
पूछते हुए,
मैं खींच लाता तुम्हें अपने पास।
‘नहीं, टोनी गटलिफ़ का दिल है’
फिर उन शीरीं पैरों को
सीने से लगाकर
चूमते हुए
यही सोचता हूँ
कि मेरा यह फ़्रांसीसी रक़ीब
आख़िर किस आसमान का सितारा है?
तुम हँसते-हँसते थक जाती जब
तो मेरे बालों को सहलाते हुए कहतीं,
‘स्त्री के मिट्टी सने गंदे पैरों को सबसे सुंदर प्रेम
टोनी गटलिफ़ की फ़िल्मों में ही किया गया है
इसलिए, मेरे पैरों में सिर्फ़ उसी का दिल है’
टोनी गटलिफ़ की फ़िल्म ‘गाडजो डिलो’ की स्मृति में
पैरों जितना प्रेम
‘मैं वहीं हूँ, तुम्हारे पैरों के पास’

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यही तो होता है
याद में धँसते
मेरे हर संदेश का जवाब।
न होंठों के पास,
न सीने पर।
वह हमेशा यूँ ही बैठा रहा है—
मेरे पैरों के पास।
चुंबन का महावर
उसे माँ का आख़िरी चेहरा तो नहीं,
बस चिता पर रखे उनके पैर याद थे।
महावर में रँगे
उनके मृत पैरों की वह अंतिम स्मृति,
अक्सर ख़ाली दुपहरों में
उसके भीतर बजने लगती।
तब नींद में डूबे मेरे पैरों को
अपनी बाँहों में खींच कर,
वह अपनी भीगी पलकें
उन पर रख देता।
मद्धम सिसकियों में डूबी
उसकी बुदबुदाती आवाज़ से
फिर नींद टूटती मेरी।
‘तुम महावर मत लगाना कभी।
मैं चूम-चूम कर
यूँ ही
लाल रखा करूँगा तुम्हारे पैर।’
बोसों का मलहम
मई की गर्मियों में
जैसलमेर के रेगिस्तान में उलझी पड़ी हूँ।
चुनावी रिपोर्टिंग का बीसवाँ दिन।
पचास डिग्री पर खौलती रेत पर
जब-जब जूते-बंद पैर उतारती हूँ
तो जुराबों से भाप उठती है।
जलते कोयले-सी रेत।
चलते-चलते सोचती हूँ,
जब ऊपर इतनी जल रही है,
तो भीतर से कितना जलती होगी धरती?
या यह कि
अग्नि-परीक्षा के दौरान क्या सीता को
यूँ ही आग पर चलना पड़ा होगा?
और, मेरी कौन-सी परीक्षा हो रही है यहाँ?
कमबख़्त, इस बीहड़ तक तो नेता भी वोट माँगने नहीं आ रहे।
सारी परीक्षा सिर्फ़ रिपोर्टर की?

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इस जलते आसमान के नीचे भी,
तुम्हारी याद के बादल मुझे घेरे हुए हैं।
जब लौटूँगी,
तब न जाने कितने दिन
अपने सीने पर रख कर ही सोया करोगे
यह ज़ख़्मी पैर।
इक तुम्हारे बोसों से ही तो
सूखते रहे हैं
मेरे पैर के छाले।
लड़की के पैर
कटी-फूटी एड़ियों वाले
अपने रूखे पैरों की ओर
हमेशा उसी करुणा से देखती आई हूँ
जिस करुणा से शायद
प्रेम के क्षणों में
पृथ्वी सूरज को देखती होगी।
जब से जन्मी,
तब से अब तक
हमने साथ ही नापा पूरा देश
पहाड़, जंगल, बीहड़ हो,
नदी या जलता कोयला।
भटकते रहे हैं हम यूँ ही
कभी देश में प्रेम
तो कभी प्रेम में देश तलाशते हुए।
पैरों में पहनने के लिए बने जूते
जब भी संसार ने फेंके मुझ पर
तब बिना जूते वाले
मेरे इन पैरों ने ही
तेज़ दौड़ लगाकर
हमेशा बचाया मुझे।
किसी भी लड़की के
सबसे पुराने प्रेमी
उसके पैर ही तो हैं।
पैर,
जो उसे सिर्फ़ ज़मीन पर नहीं,
अपने होने के लिए

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कुँवारी दुल्हन
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पूरी रात वो मुझे गर्मी देता रहा

Hello दोस्तों मेरा नाम सीमा है मैं एक प्राइवेट जॉब करती हूँ और काम की वजह से मुझे अक्सर बाहर जाना पड़ता है एक दिन मोर्निंग में बॉस ने अपने केबिन में बुलाया और बोले कि सीमा एक प्रोजेक्ट की प्रोग्रेस रिपोर्ट बनानी है जिसके लिए तुमको बंगलोर जाना पड़ेगा मैंने सर झुका कर बोल दिया जी सर मुझे अगले दिन ही बंगलोर के लिए निकलना था तो मैं ऑफिस से सीधा घर गयी और बैग बैक करने लगी साथी ही जरूरत का सामान भी पैक किया इस प्रोजेक्ट में मुझे 5 दिन का टाइम समय लगना तय था, अगले दिन मैं मोर्निंग में बैगलोर के लिए निकल ली और शाम तक मैं पहुंच गई, मेरा वहां पहले से ही रहने के लिए रूम आदि की व्यवस्था थी वहां के प्रोजेक्ट इंजीनियर ने पूरा इन्तेजार कर रखा था मैं गयी और रूम में अपना सामान सेट की और चाय वगैरा ली फिर रात में डिनर करके सो गई, सुबह जल्दी उठ गई और इंजीनियर अमित के साथ साइट देखने निकल गयी

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अमित एक अच्छा इंसान था उसने मुझे पूरे प्रोजेक्ट का विजिट कराया। और सारी रिपोर्ट तैयार कराई फिर शाम को हम वापस रूम पर आ गए हम जहां रुके थे उसके पड़ोस के कमरा अमित का था मैं शाम को रिपोर्ट rivew कर रही थी तभी मुझे कुछ पॉइंट समझ नही आ रहे थे तो मैंने अमित को बुलाया और उनके बारे में पूछा अमित ने सभी को अच्छे से समझाया, मैं जब से यहां आयी थी तब से एक बात नोटिस कर रही थी कि अमित मुझे बहुत ही प्यासी नजरो से देखता था जैसे कि उसे मुझसे कुछ चाहिए , हमने काम खत्म किया और खाना खा के मैं सो गई रात में अचानक से मुझे बुखार आ गया और कोई भी दवाई पास में न थी मुझे बहुत ही ठंड लग रही थी मैंने न चाहते हुए अमित को आवाज दी अमित मेरे पास आया उसने मेरी यह हालात देख बहुत घबरा गया मैंने उससे कहा कि डॉक्टर बुला दो अमित ने कहा कि हमारी साइड शहर से काफी दूर है और रात भी हो चुकी है लेकिन तभी अमित को ख्याल आया कि पास में एक डॉक्टर है

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अमित ने फौरन ही उसे कॉल की लेकिन डॉक्टर ने बताया कि वो दूसरे शहर किसी काम से आया है अब तो बहुत ही प्रॉब्लम थी अमित ने सारी बात मुझसे बताई मैने कहा अमित plz मेरा सर दर्द हो रहा है दबा दो और मुझे ठंड भी बहुत लग रही है अमित ने मेरा सर दबाया मुझे सर दर्द में तो बहुत आराम मिला लेकिन ठंड इतनी लग रही थीं कि मैं बहुत परेशान हो गयी आखिरकार मैंने अमित से कहा कि वो मेरे पास लेट जाएं जिससे मुझे जिस्म की गर्मी मिले अमित ने मुझे अपनी बाहों में भर लिया और मैं भी उससे लिपट गयी पूरी रात वो मुझे ऐसे ही लिपटाये रहा इससे मुझे कुछ आराम मिला और मैं उसकी बाहों में सो गई, सुबह अमित मुझे डॉक्टर के पास ले गया और दवाई दिलाई मैं अमित का यह अहसान कभी नही भूलूंगी ।।

 

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रजनी की दुनिया
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जवान उम्र में सम्भोग के लिए मैने सारी हदे पार कर दी लेकिन अब विश्वास नहीं होता की में ६ वर्ष की पहले की एक बिगड़ैल और गैरजिम्मेदार, सामाजिक परंपराओं को तोड़ने वाली लड़की थी
उस दिन सुबह से ही मौसम खुशगवार था। अंशुल के घर में फूलों की महक थी, और हवा गुनगुना रही थी। अंशुल के मम्मी-पापा कल ही कानपुर से आ गए थे। अंशुल ने उन्हें सब कुछ बता दिया था। उन्हें खुशी थी कि बेटा पांच साल बाद ही सही, ठीक रास्ते पर आ गया था। वरना शादी के नाम से तो वह भड़क जाया करता था।

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मम्मी-पापा के सामने शिखा को खड़ा कर अंशुल ने कहा, “अब आप देख लीजिए। जैसा आप चाहते थे, वैसा ही मैंने किया। आप एक सुंदर, पढ़ी-लिखी और अच्छी बहू अपने बेटे के लिए चाहते थे। क्या शिखा से अच्छी और सुंदर बहू कोई हो सकती है?”

शिखा जैसे ही अंशुल की मम्मी के चरण छूने के लिए झुकी, उन्होंने उसे रोक लिया और गले से लगा लिया। शिखा पहली ही नजर में सबको पसंद आ गई थी।
अंशुल ने मम्मी-पापा को शिखा के अतीत के बारे में बताना जरूरी नहीं समझा। उसने बस इतना कहा कि शिखा एक रिश्तेदार के घर पली-बढ़ी है और अब दिल्ली में नौकरी कर रही है। मम्मी-पापा समझदार थे और शिखा की भावनाओं का सम्मान करते हुए कोई सवाल नहीं किया।

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शिखा और अंशुल की शादी बेहद सादगी और परंपरागत तरीके से हुई। ज्यादा तामझाम और दिखावा अंशुल के परिवार को पसंद नहीं था। करीबी रिश्तेदारों और दोस्तों के बीच शादी संपन्न हुई।
शादी के बाद शिखा ने न सिर्फ अंशुल के घर को, बल्कि उसके व्यक्तित्व को भी संवार दिया। अंशुल की मम्मी ने उसे बेटी की तरह घर की जिम्मेदारियां सिखाईं। शिखा ने भी हर बात को खुलकर सीखा। नतीजा यह हुआ कि वह एक समझदार पत्नी, आदर्श बहू और सुलझी हुई गृहिणी बन गई।

अब शिखा को विश्वास नहीं हो रहा था कि कभी वह इतनी विद्रोही और गैरजिम्मेदार लड़की थी। वह अपने अतीत को याद कर सोचती कि बिना शादी के किसी पुरुष के साथ रहना और शादी कर एक परिवार का हिस्सा बनना कितना अलग है।

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कॉलेज के दिनों की शिखा पढ़ाई में होशियार थी लेकिन अपने विद्रोही स्वभाव के कारण कॉलेज में मशहूर थी। वह हर गतिविधि में भाग लेती, लेकिन उसकी चंचलता के कारण उसकी सच्चाई शायद ही किसी को समझ में आती।

कॉलेज में ही उसकी मुलाकात राघव से हुई, जो यूनियन का अध्यक्ष था। दोनों ने होस्टल छोड़ ममफोर्डगंज में एक कमरा लेकर साथ रहना शुरू कर दिया। यह पूरे शहर के लिए एक चौंकाने वाली बात थी।
परंतु राघव के साथ बिताए गए पांच सालों ने शिखा को जीवन का सबसे बड़ा सबक सिखाया। राघव ने उसे केवल अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल किया। जब उसका मन भर गया, तो उसने शिखा को छोड़ दिया।

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अंशुल की मुलाकात शिखा से शादी के कई साल बाद, मैट्रो में अंशुल और शिखा की मुलाकात हुई। एक-दूसरे को पहचानते ही उनके चेहरे पर हैरानी और खुशी के भाव आ गए।
बातों का सिलसिला शुरू हुआ। अंशुल ने बताया कि उसने शादी नहीं की क्योंकि वह अपने जीवन को स्थिर करने में व्यस्त था। शिखा ने धीरे-धीरे अपने अतीत की बातें साझा कीं और स्वीकार किया कि उसने अपने फैसलों से बहुत कुछ सीखा है।

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नए रिश्ते की शुरुआत अंशुल और शिखा ने एक-दूसरे के साथ समय बिताना शुरू किया। धीरे-धीरे दोनों के बीच का रिश्ता गहराता गया। शिखा ने अंशुल के साथ अपने जीवन की नई शुरुआत की।
कुछ महीनों बाद, शिखा और अंशुल की शादी हो गई। शिखा ने अंशुल के घर में न सिर्फ अपने लिए जगह बनाई, बल्कि मम्मी-पापा के दिल में भी खास जगह बना ली।
अब, शिखा एक खुशहाल जिंदगी जी रही थी। अंशुल अक्सर मजाक में कहता, “तुमने मुझे तो पाया, लेकिन मम्मी-पापा को मुझसे छीन लिया!”