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दाल भात चोखा!

इश्क बनारस
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दाल भात चोखा!
दाल भात का भोज एक परंपरा है जो ग्रामीण इलाकों में सदियों से चला रहा है यह एक विरासत है जिसे आज भी लोग बचा कर रखे हुए है। इसे आप सिर्फ भोजन के रूप में मत समझिए एक समृद्ध परंपरा के रूप में समझइए। बिहार की सभी जातियों में भात सिर्फ अपने ही लोगों के बीच में खिलाया जाता है सगोत्रीक। हमारे इलाके में भोज का सामाजिक समीकरण आज भी खूब समृद्ध चाहे भोजपुरिया इलाका हो या मगध का या फिर मिथिलांचल भात सबको नहीं खिलाया जाता। जिन्हें भात खिलाया जाता है वह सबसे खास होते हैं।

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दाल चावल कई प्रकार की सब्जियां पापड़ घी दही रायता दही बड़ा सलाद बड़ी इस भोज का मूल होता है सामान्य भोज पक्की होता है जिसमें पूरी पुलाव दही चुरा बुंदिया मिठाई होती है यह सभी को खिलाया जाता है और सबसे अंत में भात का भोज होता है। जो ग्रामीण इलाकों में भाई के भोज के नाम से जाना जाता है। एक कुल के लोग उस इलाके में जहां तक होते हैं उन सबको इस खास भोज में बुलाया जाता है। भोज का निमंत्रण बड़े सम्मान के साथ कई घंटे पहले लोगों को दिया जाता है जब भोज तैयार हो जाता है तब उन्हें बुलाने के लिए नाई जाता है।

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भोजपुरी निमंत्रण को हमारे भोजपुरिया इलाके में अंज्ञा और भोज तैयार होने के बाद बुलाने की प्रक्रिया को बीजे कहते हैं। ग्रामीण इलाकों में कौन व्यक्ति कितना समृद्ध है इसका आकलन इसी बात से किया जाता है इलाके में कितने लोगों से भात का संबंध है। आमतौर पर भात के भोज का आयोजन रात्रि पहर में किया जाता है। आज भी गांव या इलाके से जब भात के भोज का निमंत्रण आता है तो अपनी परंपरा को निभाने के लिए जरूर जाता हूं। 90 का वह दशक याद आता है जब गांव से लोग लोटा में पानी लेकर भात का भोज खाने तो किलोमीटर दूर तक चले जाते थे।

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उस जमाने में बिहार की राजधानी पटना के अलावा कहीं बिजली की सुविधा नहीं थी ग्रामीण इलाकों में पेट्रोमैक्स की लाइट में कोई आयोजन होता था। रात के अंधेरे में कहां से लोग लालटेन लेकर निकलते थे बीच में बच्चों की लाइन होती थी पीछे लाठी लेकर युवा चलते थे धान के खेतों के मेड जिसे भोजपुरी में डरेर्र बोलते हैं पर कच्ची नींद में भोज खाने के उत्साह में चलना एक रोमांच कारी अनुभव था। धान की खुशबू जब नाक में घुसती थी तो भोज की व्याकुलता और बढ़ जाती थी। उसे जमाने में भोज जमीन पर पात में बैठ कर खिलाया जाता था।

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पुरइन का पत्ता पत्तल के रूप में इस्तेमाल किया जाता था क्योंकि इसमें एक दाना भी उनका बर्बाद नहीं होता था। ग्लास के रूप में मिट्टी का कुल्हड़ होता था साइज थोड़ा बड़ा। भोजन के सभी प्रकार परोसे जाने के बाद सबसे अंत में पवित्रि यानी घी दाल में डाला जाता था। जब तक दाल में घी नहीं डाला जाता था लोग खाना शुरू नहीं करते थे आम के पत्ते से जब घी दाल में आता था तो भोजन पवित्र होता था इसी कारण से इसे पवित्री कहा जाता था। थोड़ी बहुत तब्दीली के बाद परंपराएं आज भी उसी तरह है। बचपन की यादें जुड़ी हुई है।