अरूणिमा सिंह
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धनढिकना भदेला!
हमारे यहां जब तक कुकर का जन्म नहीं हुआ था तब तक बटुली, बटुला का ही प्रचलन था। जो कांसे के बने होते थे। बाद में भारी वजन वाले, मोटे तले वाले सिल्वर के बर्तन भी चलन में आए।
मुझे जितनी जानकारी है उसके अनुसार बटुली बटुला को ही भदेला, भदेली कहते थे।
बटुली जो छोटी होती है जिसमें दाल बनाई जाती है और बटुला जो आकार में माध्यम होता है जिसमें भात बनता है। यदि घर में कोई कार्यक्रम होता था तब बड़े आकार, बड़े मुंह का एक बर्तन होता था जिसमें दो तरफ पकड़ने के लिए बड़े बड़े छल्ले लगे होते थे उसे हंडा या खखरा कहते थे ये भी कांसे धातु के ही बने होते थे। ये हंडा अक्सर बेटी के विवाह में कन्या दान के समय दान किया जाता था जो वर के घर उपहार स्वरूप आता था।
रसोई घर में भात बनाने वाले बटुले का बड़ा भाई धनढीकना भदेला होता था। ये वजन में काफी हल्का और आकार में बड़ा एल्यूमिनियम धातु से बना बर्तन होता है।
जिसका मुख्य कार्य सीजन भर धान की भुजिया करने या नहाने का पानी गर्म करना होता है।
इस भदेले में सिर्फ धान ही ढीकया (गर्म किया) जाता है इसलिए इसे धनढिकना भदेला कहते हैं।
धान की फसल जब तैयार होकर घर आती है तब से ही घर की वरिष्ठ महिला बाहर वाले बड़के चूल्हे पर धान की भुजिया करना शुरू कर देती हैं।
एक दिन में लगभग दो भदेला धान की भुजिया कर ली जाती है और इतनी ही भुजिया प्रतिदिन की जाती है। ताकि जब तक सर्दी बढ़े, सर्दी की वजह से घना कोहरा हो,धूप निकलनी कम हो उससे पहले घर के भंडार घर में पर्याप्त मात्रा में चावल इकठ्ठा करके रख लिया जाय।
अभी कुछ वर्षों पहले तक सभी के घरों में प्रतिदिन भुजिया चावल का बना भात ही खाया जाता था। अरवा चावल कभी कभार मुंह का स्वाद बदलने या अतिथि आने पर बनता था।
भुजिया चावल का बना भात न सिर्फ स्वादिष्ट अपितु बहुत पौष्टिक भी होता है। इसको खाने से बहुत सी बीमारियों से बचा जा सकता है। मधुमेह रोगियों को डॉक्टर भुजिया चावल से बना भात खाने की सलाह देते हैं क्योंकि ये नुकसानदेह नहीं होता है।
भुजिया चावल से भात बनाते समय निकला पसावन (मांड) नमक मिलाकर हम लोग एक एक कटोरा गटक जाते थे या फिर इसमें चावल डालकर खाते थे।
भुजिया करके चावल कुटवाने के अन्य लाभ भी है भुजिया होने से धान कूटते समय कम टूटता है इसलिए अरवा की अपेक्षा ज्यादा मात्रा में चावल मिल जाता है।
शाम के समय आजी भदेला को मुंह छपछप धान और पानी भरकर चूल्हे पर गर्म करती थी और जब धान में बुलबुले उठने लगते थे तब चूल्हे की आग खींच लेती थीं।
रात भर ये गर्म धान से भरा भदेला यूं ही रखा रहता था।
एकदम भिनसारे जागने की आदत वाली आजी एकदम भोरे भोरे उठकर तनिक छोटे वाले दूसरे भदेले में धान छान छान कर डालती थी और फिर उसे चूल्हे पर चढ़ाकर उसकी भुजिया करती थीं। जब धान का छिलका चिटक जाता था तब माना जाता था कि अब भुजिया होकर तैयार हो गई है।
भदेले के गर्दन पर मोटा सूती कपड़ा लपेट कर बड़ी सावधानी से चूल्हे से उतार कर बगल में अच्छी तरह से गोबर, चिकनी मिट्टी से लीपे दुआर पर भदेला पलट दिया जाता था और फिर दुबारा दूसरे लेव (बारी) की भुजिया की जाती थी। इस भुजिया वाले धान में आलू, आंवला, शकरकंद दबा देती थीं जो भुजिया संग भाप से पक जाता था और हम बच्चों का सुबह सुबह वाला नाश्ता हो जाता था।
शाम के गर्म किए बड़के भदेला वाले धान माध्यम आकार वाले भदेले में दो या तीन बार में भुजिया करके खत्म होता था तब कही जाकर ठीक से सुबह होती थी और घर के सभी सदस्य सोकर उठते थे।
आजी इस भदेले को अच्छी तरह से धोकर इसमें पानी भरकर गर्म कर देती थी ताकि सुबह सुबह नहाकर भोजन बनाने वाले, स्कूल, कॉलेज या अन्य कहीं जाने वालों को गर्म पानी मिल सके।
जिसे नहाना होता था वो आधी बाल्टी गर्म पानी भदेले से निकाल ले जाता था और फिर ठंडा पानी लाकर वापस भदेले में डाल जाता था ताकि बाकियों के लिए पानी गर्म होता रहे।
एकदम सुबह सुबह से ही चूल्हे पर चढ़ा ये धनढीकना भदेला दिन चढ़े तक सबके नहाने का पानी गर्म करता रहता था।
भुजिया करने, पानी गर्म करने के लिए चूल्हा जला ही होता था तो इसी चूल्हे पर कड़ाही चढ़ा कर सब्जी भी छौंक दी जाती थी।
इधर सब्जी बन जाती थी और रसोई में गर्म गर्म रोटी बनती रहती थी। जिसको सुबह सुबह नहाकर खाकर निकलना होता था वो अच्छी तरह से सब्जी और गर्म गर्म रोटी खाकर फिर घर से अपने कार्यस्थल की तरफ निकल लेते थे। रसोई में बाद में आराम से दाल चावल इत्यादि बनता रहता था।
अरूणिमा सिंह