साहित्य

​मैं रात भर सोचती…जागती सपनों में….खुद को फिर तन्हा पाकर भयभीत हो जाती हूँ…

Rashi Singh

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मैं रोज कतरों में बिखरती हूँ
​फिर खुद को एकत्रित कर जोड़ती हूँ
​सवाल कभी खुद से करती
​कभी गैरों की आँखों में जवाब ढूँढती हूँ
​कभी खुद को तन्हा इस वन रूपी
​दुनियाँ में भटकता देखती हूँ
​भयभीत हो तन्हाई के ख्वाब से
​फिर काल्पनिक अपने कहे रिश्तों
​से खुद को बांध खुशी महसूस करती हूँ
​अपनों से दूर होने के भय से रोती -बिलखती
​मैं रात भर सोचती …जागती सपनों में
​खुद को फिर तन्हा पाकर भयभीत हो जाती हूँ
​अचानक अपनों की सकुशलता की ईश्वर
​से हाथ जोड़कर विनती तो कभी गुहार लगाती हूँ
​कभी लगता है सब कुछ है साथ में तो कभी
​खुद को बिल्कुल तन्हा पाती हूँ l
​यूँ ही अचानक नहीं हुआ है यह सब
​बहुत सारे अपनों को दूर जाते बहुत दूर जाते
​देखा है इन आँखों ने , मन की पीड़ा को सभी
​से छिपाकर खुद से अनगिनत सवाल पूंछती हूँ
​कहाँ गयीं वो मोहल्ले की बूढ़ी काकी
​जो अक्सर डांटती थीं हमारे भागने पर
​पड़ोस में रह रहे बाबा की खांसी क्यों अब
​सुनाई नहीं देती ?
​जाने कहाँ चले जाते हैं छोड़कर सभी
​क्या उनको हमारी याद नहीं आती ?
​कहते हैं एक दुनियाँ है ऊपर भी
​वहाँ से यहां आना और कुछ दिन
​खेलकर वहीं सबको है जाना
​मैं इस गोल चक्कर के खेल से मुक्ति
​मांगती हूँ …मैं अब सुख दुख के बीच
​में रहा चाहती हूँ l
​चले गए बहुत सारे मेरे मुझे छोड़कर
​अब तन्हा में रहने से घबराती हूँ
​बैरागी मन को दुनियाँ के झमेलों में
​उलझाकर खुश रहने का प्रयत्न करती हूँ l
​मन ही मन कर विलाप याद सबको करती हूँ
​ऊपर जाने वालो क्या तुमको याद नहीं आती ?”
​मैं कतरों में ……………………………….l




​राशि सिंह
​मुरादाबाद उत्तर प्रदेश
(​अप्रकाशित एवं मौलिक रचना )