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मूंज, सींक, कास!कास और मूंज की मदद से रंग बिरंगी, नई नई डिज़ाइन की वाडिया, सिकौहुली, मौनी, डलवा, डलिया, पिटारा, पिटारी बनाई जाती थी!

अरूणिमा सिंह
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मूंज, सींक, कास!
शाम होते ही हाथ, मुंह पर सरसों तेल चुपड़ कर, बाबू जी का बुशर्ट पहन कर, हाथ में हंसिया लेकर गांव की सभी संखियों की मंडली परती की तरफ निकल पड़ती थी।

हंसिया से फंसा कर फिर लपक कर हाथ से मूंज चीरी जाती थी। चीरी जाने वाली मूंज सरपत की कलियां होती हैं। जिन्हें चीर चीर कर सारी महिलाएं, लड़कियां खूब सारी इकठ्ठा कर लेती हैं और फिर घर लाकर उस मूंज के अंदर से कली नुमा फूल को निकाल कर फिर मूंज को चारों उंगली पर लपेट कर एक आकार दिया जाता था जिसे शायद बल्ला कहते थे। सारी मूंज का बल्ला बनाकर फिर उसे सुखाया जाता था और उसके बाद मनपसंद रंग से रंगा जाता था।

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अगले दिन उसी परती में कास काटने के लिए सभी इकठ्ठा होती थी। कास काट काट कर गट्ठर तैयार करके घर लाती थी और फिर उन्हें भी सुखाया जाता था।

कास और मूंज की मदद से रंग बिरंगी, नई नई डिजाइन की वाडिया, सिकौहुली, मौनी, डलवा, डलिया, पिटारा, पिटारी बनाई जाती थी।

हाथों से बने ये बर्तन बेटी के विवाह में ग्यारह, इक्कीस, इक्कावन के हिसाब से दिए जाते थे। जो बहुरिया जितना अधिक डलवा, मौनी लेकर आती थी उसे उतना ही सुघड़ माना जाता था। विवाह में शामिल होने आई रिश्तेदार महिलाएं बहु के साथ आए इन डलवा में से अपनी पसंद का डलवा उपहार स्वरूप अपने साथ अपने घर ले जाती थी और फिर घर पर बखान करती थीं कि बड़ी सुघर दुलहिन है डलवा, सिकौहिली से घर भर दी है!

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बेटी के विवाह में जो रिश्तेदार शामिल होने आते थे वो भी अपने घर से एक सिकौहुली, बेना बेटी के विदाई के समय देने के लिए लाते थे ताकि बिटिया के घर वालों की मदद हो सके और बेटी संग खूब डलवा सिकौहुली विदाई में ससुराल जाए।

अब इन्हें बनाने वाले, सीखने वाले लोग कम हो गए हैं। इनकी जगह प्लास्टिक और लोहे, स्टील के टब, तसले ने ले लिया है।
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अरूणिमा सिंह