साहित्य

बचपन में पूरी सर्दियों में हम सबके घरों में दोनों समय साग और सगपाहिता वाली दाल ही बनाई खाई जाती थी

अरूणिमा सिंह
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दिन जब ढलना शुरू हो जाता था लगभग ढाई तीन बजे तक घर के सारे काम बर्तन धोने, झाड़ू लगाकर रसोई साफ करने, चूल्हे पर खाना बनता था तो लकड़ी उपले की व्यवस्था करने के बाद, हाथ मुँह धोकर, सुंदर सी चुटिया बनाकर, सुंदर मुखड़े को थोड़ा और संवार कर, हाथ में सिकाहुली, मौनी लेकर, रंग बिरंगी ओढ़नीया लहराती सखियो की टोली झुण्ड बनाकर खेतों की तरफ निकला करती थी।

सिकाहुली, मौनी के साथ साथ धनिया पत्ती, हरी मिर्च, लहसुन वाला तीखा चटपटा नमक अपने साथ ले जाना नहीं भूलती थी।

खेतों में पहुंचकर पहले चुनाव करती थी कि किस खेत में बढ़िया बथुआ है उसी खेत में पसरा जाय।

किसी को सिर्फ दाल में डालकर सगपहिता बनाना है इसलिए थोड़ा सा बथुआ चाहिए, किसी का आज सरसों का साग बनाने का प्लान है इसलिए उसमें मिलाने के लिए ज्यादा बथुआ चाहिए, कोई शाम को साग, सुबह दाल भी बनाएगा और सब में बथुआ डालना है इसलिए उसे ज्यादा बथुआ चाहिए।

सब सखियां अपनी अपनी मौनी भरने के बाद एक दूसरे की बथुआ खोटने और सरसों उखाड़ने में मदद करती थी ताकि सब एक साथ खाली हो सके।


बथुआ का काम निपटाने के बाद राह में पड़ने वाले चना, मटर के खेत पर धावा बोला जाता था। चने की खट्टी खट्टी अमलोनी वाली कोमल पत्तियाँ, मटर की कुछ मिठास ली हुई पत्तियाँ खोट खोटकर (तोड़ कर ) भर गाल खाते थे साथ में तीखा नमक मुँह में डालकर चटखारे लिए जाते थे। मुँह भर कर एक बार चने का साग खाने को एक गाल साग खाना कहते थे।

मन भरकर चने, मटर का साग खाकर गन्ने की खेत की तरफ निकलते थे। बढ़िया बढ़िया गन्ना चुनकर तोड़कर उसका गेंड (पत्तियाँ ) वही खेत में भनना कर (गोल गोल घुमा कर ) फेंक दिया करते थे। वही चकरोट(कच्ची पगडंडी वाली सड़क ) में बैठकर गन्ना चूस कर घर की राह लेते थे।

गांव के नजदीक वाले खेतों में गांव के लोगों की गृहवाटिका जिसे हमारी अरई बिरवा कहते है होता था। इस गृह वाटिका में सर्दियों में खाई जाने वाली सब प्रकार की सब्जियाँ उगाई जाती है।

इन खेतों में से मूली उखाड़कर वही घास पर रगड़ कर, कुछ अपने कपड़े में पोछकर मिट्टी साफ कर ली जाती थी और फिर उस मूली का काम भी तमाम किया जाता था। फूलगोभी में से कुछ टुकड़े तोड़ कर उदरस्थ होते थे, मटर की फलियाँ हो या शलगम, गाजर हो सब का स्वाद लेते हुए ये टोली दिन छिपने तक घर वापस आती थी।

हमारे समय में मोमो बर्गर खाकर शाम की भूख नहीं मिटाई जाती थी बल्कि खेतों की तरफ निकलने पर न जाने कितनी चीजे खाने को मिल जाती थी। खेत से ही तोड़कर एक दम ताज़ा खाने का स्वाद अप्रितम होता था और स्वास्थ्यवर्धक कितना होता था आप सब समझ ही सकते है।

अब तो शहरों में बस गए है दो दिन का बासी बथुआ खरीदकर लाते है कभी साग बन गया तो कभी सगपहिता बनी।
बचपन में पूरी सर्दियों में हम सबके घरों में दोनों समय साग और सगपाहिता वाली दाल ही बनाई खाई जाती थी।

रात की बनी सगपाहिता वाली दाल और भात को सुबह सानकर कड़ाही में तड़का लगा कर गर्म कर दिया जाता था। जब कड़ाही में एक परत खाना चिपक जाता था तब उसे खुर्च खुर्च कर खाते थे यही हमारा नाश्ता यही हमारा खाना होता था जिसे खाकर बस्ता उठाकर स्कूल भागा करते थे।

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अरूणिमा सिंह