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चूरन, रंजू बिट्टी और मैं…..By–रमेश पटेल ‘स्माइल’

Ramesh Patel
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संस्मरण – चूरन, रंजू बिट्टी और मैं
ये उन दिनों की बात है जब मेरा नाम स्कूल में नहीं लिखवाया गया था। उस समय मैं चार साल का रहा होऊंगा। इसलिए मैं स्कूल नहीं जाता था। मेरे घर से लगभग 400 मीटर की दूरी पर ही प्राइमरी और मिडिल दोनों स्कूल थे। मिडिल में मेरे मनोज भईया और प्राइमरी में मेरी दो बहनें संगीता बिट्टी और रंजू बिट्टी पढ़ती थीं। रंजू बिट्टी से मेरी काफी बनती थी। इसलिए किसी–किसी दिन मैं भी उनके पीछे–पीछे स्कूल चला जाता था; पढ़ने के लिए नहीं बल्कि कुछ खाने–पीने के लिए। विद्यालय के बगल में ही आम की बहुत बड़ी बाग थी, अब भी है लेकिन कई पेड़ गिर चुके हैं। उसी बाग में स्कूल के बगल चंदेलेपुर वाले गुप्ता सेठ अपनी कापी–कलम की दुकान लगाते थे साथ ही ढेर सारी खाने–पीने की चीज़े भी लगाते थे। उनकी दुकान रंग–बिरंगी चीज़ों से सदा सजी रहती थी जो कि मुझे बहुत आकर्षित करती थी। जैसे ही मैं दुकान पर पहुंचता तो मेरा जी ललचाने लगता। छोटा होने के कारण मेरे अन्दर चटोरापन ज़्यादा था। रंजू बिट्टी मेरी भावनाओं को समझकर कुछ न कुछ खरीदकर मेरे हाथ में थमा देतीं और घर चले जाने को कहतीं।

ये रूटीन प्रतिदिन का नहीं था, रंजू बिट्टी के पास जब पैसे रहते थे तभी मैं उनके पीछे–पीछे होता था अन्यथा वो लाख कहें कि चलो तुम्हें गट्टी खिलाएंगे,चिलगम खिलाएंगे तो मजाल हो कि मैं चला जाऊं उनके साथ।

एक दिन पता नहीं क्या सूझा कि मैं रंजू बिट्टी के साथ पीछे–पीछे चल दिया। वो बोलीं,”कुछ लिहे नाई बाटी जवन सोचत अहा कि चलब त तोहका कुछ खियाउब। समझ्या?”
मैंने कहा,”हम ओहिसने चलत अही, खाइ बिन थोड़ऊ चलत अही। जना तू हमेसई हमई खियावथू।”
“खियाईत नाई?”,–थोड़ा गुस्सा करते हुए बोलीं।


“खियावथू, अब चला।”,–मैंने कहा।
इतना कहकर हम दोनों स्कूल चल पड़े। स्कूल पहुंचने के बाद बिट्टी ने बोलीं, “जा; अब घरे चला। ठीक?”
मैं वहीं खड़ा हो गया। फिर बोली,”सोचत अहा कि हमरे लगे पईसा बा का, पैसा नाई बा। जा घरे।”

फिर भी मैं गया नहीं तो वो मुझे गुस्से में लाल–लाल आंखें दिखाकर चली गईं। उस दिन मुझे न जानें क्या सूझा था कि मैं नहीं गया। सीधे मैं गुप्ता सेठ की दुकान पर गया, भीड़ अधिक थी मैं वहां खड़े होकर खाने वाली चीज़ों को बड़ी कातर दृष्टि देख रहा था। सोच रहा था कि काश पैसा होता तो आज खट्टा–मिठ्ठा चूरन ही खरीदता। मेरे पास पैसे भी नहीं थे, देखने के आलावा और मैं कर ही क्या सकता था, मुंह में पानी आ रहा था। धीरे–धीरे सेठ जी की दुकान पर से भीड़ कम हो गई। सेठ जी अब एक क़िताब निकालकर मेरी ओर बिना ध्यान दिए कुछ पढ़ने लगे। मैं भी वहीं बगल में ही खेलने लगा। थोड़ी ही देर में एक लड़की आई जो मेरे ही उम्र की लग रही थी, लेकिन उसका नाम स्कूल में लिखवाया गया था, वो दिखने में होशियार लग रही थी। उसे देख मैं खेलना बंद कर दिया। वो सेठ जी से खट्टा–मिठ्ठा चूरन खरीदी और लेकर जाने लगी। अब चूरन को उसके हाथ में देखकर मैं भी उसके पास चला गया। उससे बहुत ही विनम्र स्वर में मांगा, “हे बिट्टी रचिके चुरनवा हमहू के दइदा।” वो झट से चूरन को छुपा कर बोली,”आवा दिहे बाटी; हम अपुना बिन लिहे बाटी कि तोहका बिन, हां?”

मैं बहुत दुःखी हो गया। उसके बाद वो बोली,”एतनई खाइके मन बा त अपने पैसा से खा, दुसरे से मांग के कई दिन खाबा।?” एतना सुनते ही मुझे इतना क्रोध आया कि मैंने कहा, हे देखा,देई के नाई बा त एस जिन बोला, ठीक?”

काहें न बोली,हां?”– कहते हुए हाथ में चूरन लेकर चाटने लगी। फिर बोली,”और पहिले तुहिन त बोल्या हा, बोला?”
अब मेरे सब्र का बांध टूट चुका था और मुझमें उसके तीक्ष्ण शब्दों को सहन करने की शक्ति नहीं थी।पता नहीं क्या सूझा कि मैंने गुस्से में उसकी फुल्ली ही नोच लिया, उसके नाक से खून बहने लगा। वो रोते हुए स्कूल में चली गई और मुंशीजी को बता दी। फिर क्या, मुंशी जी क्लास के तीन–चार तगड़े सिपाही को उनके हिसाब से मुझ जैसे खतरनाक जीव को पकड़ने के लिए भेज दिए। साथ में वो लड़की भी हमें दिखाने के लिए आई, वो जैसे ही मेरी ओर इशारा करके उन्हें बताई वो सभी देर न करते हुए जल्दी से मेरे पास आए और मुझे उठा कर खुशी से क्लास में ले गए। पहले तो मुंशीजी को मुझ जैसे भोले–भाले से दिखने वाले जीव पर विश्वास न हुआ, लेकिन जब उन्होंने मुझसे पूछा तो मैंने फुल्ली नोचने वाली बात स्वीकार कर ली। मुझे आशा थी कि सच बोलने पर मुंशीजी छोड़ देंगे लेकिन मेरी आशा पर पानी फिर गया। उन्होंने मेरी गलती पाई जाने पर क्लास के सामने ही बेहया की डंडी से दे दना दन, दे दना दन तीन–चार डंडी मारे और गुस्से में बोले, और मारोगे किसी को बोलो और मारोगे?”

इस तरह के दंड से मेरी आंखों से आंसू गिर पड़े, मैंने उस लड़की को देखा,उसके चेहरे पर संतोष के भाव थे और मैंने क्लास की ओर देखा जो कि सब हंस रहे थे लेकिन उसी क्लास में एक ऐसी भी लड़की थी जोकि रो रही थी, वो थी मेरी रंजू बिट्टी। मैं उन्हें देखते ही वहां से सिसकियां भरते हुए सीधे घर चला आया। शाम को रंजू बिट्टी मेरे पास आईं , स्कूल में मार खाने की वज़ह से मैं उनसे नज़रें चुरा रहा था, उन्होंने मेरी ठुड्ढी उठाते हुए प्यार से बोलीं,”भईया देखा हम तोहका बिन काऊ लियाई बाटी?”

मैंने देखा तो उनके हाथ में दो पैकिट खट्टा–मिठ्ठा चूरन की पुड़िया थी, झट से मैं उनसे ले लिया , खुशी से झूम उठा और तुरन्त ही सभी ग़मों को भूल गया।
–रमेश पटेल ‘स्माइल’
अवधानपुर, भोजेमऊ, प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)