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”जो राम को लाये थे”,,,”राम” नहीं आये उनके काम….अयोध्या ही नहीं हारी, बल्कि अयोध्या मंडल की सभी सीटों से बीजेपी का सफ़ाया हो गया : रिपोर्ट

रामनगरी में उम्मीद तो भाजपा की एकतरफा जीत की थी… मगर इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी व सपा नेता अवधेश प्रसाद कड़े मुकाबले में पचास हजार मतों से जीत गए। मतगणना के हर राउंड में भाजपा प्रत्याशी लल्लू सिंह के पिछड़ने के बावजूद किसी को उनकी हार का इल्म नहीं हुआ। दिन की चमक पर शाम की स्याही चढ़ने के साथ ही पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों में निराशा दिखने लगी। हर किसी की जुबान सवाल करती रही कि आखिर वजह क्या रही? अब कई दिनों तक इसके जवाब आते रहेंगे।

सवाल तो भाजपा के नीति नियंताओं के मन भी उठ रहे कि 500 साल के संघर्ष के बाद अयोध्या में राममंदिर की सौगात देने के बावजूद चूक कहां रह गई? और हार भी सौगात के चार महीने बाद? जिस राममंदिर आंदोलन की वजह से भाजपा ने पूरे देश में जड़ें जमाईं, जिस रामनगरी को भाजपा ने अपने एजेंडे में सबसे शीर्ष पर रखा, जिस अयोध्या की वजह से भाजपा न सिर्फ उत्तर प्रदेश बल्कि दो बार केंद्र की सत्ता तक पहुंची, वहां राजनीति के विशेषज्ञों ने भाजपा की हार के गहरे निहितार्थ निकाले हैं।

जनता की तरफ से आ रहीं प्रतिक्रियाओं के भी मायने निकाले जा रहे हैं। भाजपा न सिर्फ अयोध्या हारी, बल्कि अयोध्या मंडल की सभी सीटों से पार्टी का सफाया हो गया। इन नतीजों के निहितार्थ का असर भविष्य में प्रदेश की राजनीति में स्पष्ट तौर पर दिखाई देगा। आइए अयोध्या में भाजपा की हार को बिंदुवार समझते हैं।

स्थानीय मसले
-सबसे पहले बात राममंदिर आंदोलन के केंद्र रहे अयोध्या विधानसभा क्षेत्र की…। उम्मीद थी कि राममंदिर की वजह से यहां इस बार बंपर वोटिंग होगी, लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव की तुलना में अबकी यहां नौ फीसदी मतदान कम हुआ। इसकी वजह बताई गई कि भाजपा के कैडर वाले स्थानीय मतदाताओं ने मतदान से दूरी बनाई। इसके पीछे शासन-सत्ता से नाराजगी रही। यहां बीते दो वर्षों से चल रहे सड़कों के चौड़ीकरण और अन्य विकास कार्यों की वजह से जनता को व्यक्तिगत नुकसान हुआ। तोड़फोड़ में किसी की दुकान चली गई तो किसी का मकान। दस्तावेजों की कमी की वजह से बड़ी संख्या में नागरिकों को पर्याप्त मुआवजा भी नहीं मिला। बताते हैं कि उनकी सुनी भी नहीं गई। यह नाराजगी कम मतदान प्रतिशत के रूप में सामने आई और भाजपा को नुकसान पहुंचा गई। इसके उलट इस विधानसभा क्षेत्र में इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी के पक्ष में सपा और कांग्रेस के कैडर वोट के अलावा दलितों और मुस्लिमों का वोट एकतरफा सपा प्रत्याशी को गया। यही जीत का आधार बना।

 

 

-स्थानीय नागरिकों की तरफ से यह बात भी सामने आ रही है कि भाजपा ने यहां प्रत्याशी चयन में भी चूक की। बीते एक दशक से सांसदी कर रहे लल्लू सिंह अब तक मोदी के नाम पर जीतते आ रहे थे। इतने लंबे समय तक सांसद रहने के बावजूद वह जनता के दिल में खुद की व्यक्तिगत छवि नहीं बना पाए। इस बार यहां की जनता किसी हाईप्रोफाइल नेता को अपने प्रत्याशी के तौर पर देखना चाहती थी। लल्लू के नाम की घोषणा होने पर लोगों को चुनाव में कोई रोमांच नजर नहीं आया और प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर लगातार तीन बार जिताने से परहेज किया। इसके विपरीत इंडिया गठबंधन ने प्रयोग के तौर पर कद्दावर सपा नेता और नौ बार के विधायक अवधेश प्रसाद पर दांव खेला। अवधेश की अपने कैडर वोटर और सामान्य जनता में अच्छी पैठ बताई जाती है। इनके चुनाव लड़ने का तरीका इतना गोपनीय रहता है कि विपक्षी दलों को भनक तक नहीं लगती कि कब उनके वोट बैंक में सेंध लग गई। अवधेश ने इसी रणनीति से भाजपा के मंजे हुए रणनीतिकारों को मात दे दी।

 

 

-चर्चा तो यह भी है कि इंडिया शाइनिंग वाले दौर की तरह हवाई अड्डे जैसी सुविधाएं शहर का नाम राष्ट्रीय स्तर पर चमकाने के लिए तो ठीक हैं, लेकिन इसका फायदा स्थानीय जनता को कम ही हुआ। बाहरी और पैसे वाले पर्यटक इस सुविधा का लाभ उठा पा रहे हैं। अयोध्यावासी बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्थाओं के लिए अभी भी जूझ रहे हैं। यहां मेडिकल कॉलेज तो है, लेकिन डॉक्टरों और संसाधनों का अभाव है। इलाज के लिए भटकने वाले आम मतदाता ने चमक-दमक वाली बड़ी बातों से दूरी बनाई।

 

 

-बीते तीन वर्षों से अयोध्या में चल रहे विकास कार्यों की गति बेहद सुस्त है। खुदी सड़कों, धूल के गुबार और जगह-जगह जलभराव की समस्या ने छोटे व्यापारियों, दुकानदारों के रोजगार पर असर डाला। खास बात ये रही कि अयोध्या का हाईप्रोफाइल मामला होने की वजह से अफसर निरंकुश रहे। आमजन की सुनवाई नहीं हुई। इससे शासन के प्रति नाराजगी बढ़ी।

राज्यव्यापी फैक्टर
-अखिलेश का पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक (पीडीए) फार्मुला अयोध्या में भी काम कर गया। पिछड़ा और मुस्लिम वर्ग का भरपूर वोट तो मिला ही, दलितों ने भी बसपा के बाद अपना नया ठिकाना कांग्रेस को ही समझा और इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी को जमकर वोट किया।

-राजनीति के विशेषज्ञों का मानना है कि बसपा का कैडर वोटर भाजपा से नाराज है। बसपा के कैडर मतदाता को लगता है कि भाजपा ने उनकी अपनी पार्टी को खत्म कर दिया। इस नाराजगी का परिणाम रहा कि दलित मतदाता कांग्रेस की ओर छिटक गया। यह स्थिति भाजपा के लिए हमेशा के लिए चुनौती बन गई है।

-इंडिया गठबंधन की ओर से उठाए गए बेरोजगारी, महंगाई, पेपरलीक, अग्निवीर जैसे मसलों ने आमजन के मन को छुआ। इसके आगे धार्मिक ध्रुवीकरण के सारे पैंतरे फेल हो गए। महंगे इलाज और महंगी पढ़ाई से जनता को निजात नहीं मिली। शिक्षा और स्वास्थ्य माफिया हावी हुए। शिकायतों के बावजूद इन पर कार्रवाई नहीं हुई।

-मोदी-योगी की डबल इंजन की सरकार होने के बावजूद यूपी में 10 साल में आवारा पशुओं की समस्या से निजात नहीं मिली। इससे किसान मतदाता भाजपा के पाले से छिटक गए। ब्लॉक, तहसील और थाना स्तर पर जनता की समस्याओं की सुनवाई न होना भी प्रदेश में भाजपा की खराब स्थिति का कारण बना।

-मुफ्त अनाज और तमाम सरकारी योजनाओं का लाभ गरीबों को तो मिला, लेकिन मध्य आय वर्ग का मतदाता को कोई विशेष राहत नहीं मिली। सिलिंडर पर सब्सिडी घटती गई, डीजल पेट्रोल के दाम बढ़ते गए। भाजपा यह संदेश देने की कोशिश करती रही कि वह गरीबी हटाना चाहती है, रोजगार देना चाहती है, लेकिन बीते 10 वर्षों में महंगाई जस की तस बनी रही। इससे मध्य आयवर्ग का वोटर भाजपा से दूर होने लगा।