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साहसी अकेला भी हुआ तो क्या हुआ ?

Ajit S Rana 

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काक नदी की पतली धारा किनारों से विरक्त सी होकर धीरे धीरे सरक रही थी। आसमान ऊपर चुपचाप पहरा दे रहा था और नीचे लुद्रवा देश की धरती, जिसे उत्तर भड़ किवाड़ भाटी
आजकल जैसलमेर कहा जाता है, प्रभात काल में खूंटी तानकर सो रही थी। नदी के किनारे से कुछ दूरी पर लुद्रवे का प्राचीन दुर्ग गुमसुम सा खड़ा रावल देवराज का नाम स्मरण कर रहा था।

“कैसा पराक्रमी वीर था अकेला होकर
जिसने बाप का बैर लिया पंवारों की

धार पर आक्रमण कर आया और यहाँ युक्ति, साहस और शौर्य से मुझ पर भी अधिकार कर लिया। साहसी अकेला भी हुआ तो क्या हुआ ? हाँ, अकेला भी अथक परिश्रम, साहस और सत्य निष्ठा से संसार को अपने वश में कर लेता है।

उसका विचार -प्रवाह टूट गया वृद्ध राजमाता रावल भोजदेव को पूछ रही है – “बेटा गजनी के बादशाह की फौजे अब कितनी दूर होंगी?”
“माँ…यहाँ से कोस भर दूर मेढ़ों के माल में” “और तू चुपचाप बैठा है?”

“तो क्या करूँ माँ? मैंने बादशाह को वायदा किया कि उसके आक्रमण की खबर आबू नहीं पहुंचाउंगा और बदले में बादशाह ने भी वायदा किया है कि वह लुद्रवे की धरती पर लूटमार अथवा आक्रमण नहीं करेगा।”
राजमाता पंवार जी अपने 15-16 वर्षीय इकलौते पुत्र को हतप्रद सी होकर एकटक देखने लगी, जैसे उसकी दृष्टि पूछ रही थी।

“क्या तुम विजयराज लांजा के पुत्र हो? क्या तुमने मेरा दूध पिया है? क्या तुम्ही ने इस छोटी अवस्था में अनेकों लड़ाइयाँ जीती है?”


“नहीं…या तो सत्य झूठ हो गया या फिर झूठ सत्य का अभिनय कर रहा था।”

परन्तु राजमाता की दृष्टि इतने प्रश्नों को टटोलने के बाद अपने पुत्र भोजदेव से लौट कर अपने वैधव्य पर आकर अटक गयी।लुद्रवे का भाग्य पलट गया है अन्यथा मुझे वैधव्य क्यों देखना पड़ता? क्या मैं सती होने से इसलिए रोकी गई कि इस पुत्र को प्रसव करूँ। काश… आज वे होते… सोचते-सोचते राजमाता पंवार जी के दुर्भाग्य से हारे हुए साहस ने निराश होकर एक निश्वास डाल दिया।

“क्यों माँ, तुम चुप क्यों हो? क्या मेरी संधि तुम्हे पसंद नहीं आई? मैंने लुद्रवे को लुट से बचा लिया, हजारों देश वासियों की जान बच गई।”

“आज तक तो बेटा, आन और बात के लिए जान देना पसंद करना पड़ता था। तुम्हारे पिताजी को यह पसंद था इसलिए मुझे भी पसंद करना पड़ता था और अब वचन चलें जाय पर प्राण नहीं जाय यह बात तुमने पसंद की है इसलिए तुम्हारी माँ होने के कारण मुझे भी यह पसंद करना पड़ेगा। हम स्त्रियों को तो कोई जहाँ रखे, खुश होकर रहना ही पड़ता है।”

आगे राजमाता कुछ कहना ही चाहती थी किन्तु भोजराज ने बाधा देकर पूछा – “किसकी बात और किसकी आन जा रही है, मुझे कुछ भी मालूम नहीं है। कुछ बताओ तो सही माँ..”

“बेटा… जब तुम्हारे पिता रावलजी मेरा पाणिग्रहण करने आबू गए थे तब मेरी माँ ने उनके ललाट पर दही का तिलक लगाते हुए कहा था – “जवांई राजा, आप तो उत्तर के भड़ किंवाड़ रहना तब तुम्हारे पिता ने यह बात स्वीकारी थी। आज तुम्हारे पिता की चिता जलकर शांत ही नहीं हुई कि उसकी उसकी राख को कुचलता हुआ बादशाह उसी आबू पर आक्रमण करने जा रहा है और उत्तर का भड़-किंवाड़ चरमरा कर टुटा नहीं, प्राण बचाने की राजनीती में छला जाकर अपने आप खुल गया। इसी दरवाजे से निकलती हुई फौजे अब आबू पर आक्रमण करेंगी तब मेरी माँ सोचेगी कि मेरे जवांई को सौ वर्ष तो पहले ही पहुँच गए पर मेरा छोटा सा मासूम दोहिता भी इस विशाल सेना से युद्ध करता हुआ काम आया होगा वरना किसकी मजाल है जो भाटियों के रहते इस दिशा से चढ़कर आ जावे। परन्तु जब तुम्हारा विवाह होगा और आबू में निमंत्रण के पीले चावल पहुंचेंगे, तब उन्हें कितना आश्चर्य होगा कि हमारा दोहिता तो अभी जिन्दा है।”

“… बस बंद करो माँ। यह पहले ही कह दिया होता कि पिताजी ने ऐसा वचन दिया है, पर कोई बात नहीं, भोजदेव प्राण देकर भी अपनी भूल सुधारने की क्षमता रखता है। पिता का वचन मै हर कीमत चुका कर पूरा करूँगा।”

“नहीं बेटा.. तुम्हारे पिता ने तो मेरी माता को वचन दिया था परन्तु इस धरती से तुम्हारा जन्म हुआ है और तुम्हारा जन्म ही उसकी आन रखने का वचन है। इस नीलाकाश के नीचे तुम बड़े हुए हो और तुम्हारा बड़ा होना ही इस गगन से स्वतंत्र्य और स्वच्छ वायु बहाने का वचन है। तुमने इस सिंहासन पर बैठकर राज्य सुख और वैभव का भोग भोग है और यह सिंहासन ही इस देश की आजादी का, इस देश की शान का, इस देश की स्त्रियों के सुहाग, सम्मान और सतीत्व की सुरक्षा का जीता जागता ज्वलंत वचन है।

क्या तुम …
“क्षमा करो माँ… मैं शर्मिंदा हूँ। शत्रु समीप है, तूफानों से अड़ने के लिए मुझे स्वस्थ रहने दो। मैं भोला हूँ- भूल गया पर इस जिन्दगी को विधाता की भूल नहीं बनाना चाहता।”
रावल भोजदेव ने घंटा बजाकर अपने चाचा जैसल को बुलाया “चाचा जी… समय कम है, रणक्षेत्र के जुए में जिन्दगी और वर्चस्व की बाजी लगानी पड़ेगी। आप बादशाह से मिल जाईये और मैं आक्रमण करता हूँ | कमजोर शत्रु पर अवसर पाकर आघात कर, हो सके तो लुद्रवा का पाट छीन लें अन्यथा बादशाह से मेरा तो बैर ले ही लेंगे।”

जैसल ने इंकार किया, युक्तियाँ भी दी, किन्तु भतीजे की युक्ति, साहस और प्रत्युत्पन्न मति के सामने हथियार डाल दिए। इधर जैसल ने बादशाह को भोजदेव के आक्रमण का भेद दिया और उधर कुछ ही दुरी पर लुद्रवे का नक्कारा सुनाई दिया।

बादशाह की सेना ने देखा 15 वर्ष का का एक छोटा सा बालक बरसात की घटा की तरह चारों और छा गया है। मदमत्त और उन्मुक्त -सा होकर वह तलवार चला रहा था और उसके आगे नर मुंड दौड़ रहे थे।
“सोई हुई धरती जाग उठी, “काक नदी की सुखी हुई धारा सजल हो गई, “गुम सुम खड़े दुर्ग ने आँखे फाड़ फाड़ कर देखा – उमड़ता हुआ साकार यौवन अधखिले हुए अरमानों को मसलता हुआ जा रहा है।
“देवराज और विजयराज की आत्माओं ने अंगडाई लेकर उठते हुए देखा- इतिहास की धरती पर मिटते हुए उनके चरण चिन्ह एक बार फिर उभर आए है और उनके मुंह से बरबस निकल पड़ा – वाह रे भोज… वाह…।

दो दिन घडी चढ़ते चढ़ते बादशाह की पन्द्रह हजार फ़ौज में त्राहि त्राहि मच गई। उस त्राहि त्राहि के बीच रणक्षेत्र में भोजदेव का बिना सिर का शरीर लड़ते लड़ते थक कर सो गया – देश का एक कर्तव्य निष्ठ सतर्क प्रहरी सदा के लिए सो गया।

भोजदेव सो गया उसकी उठती हुई जवानी के उमड़ते हुए अरमान सो गए, उसकी वह शानदार जिन्दगी सो गई किन्तु आन नहीं सोई। वह अब भी जाग रही है।

जैसल ने भी कर्तव्य की शेष कृति को पूरा किया।

बादशाह को धोखा हुआ, उसने दुतरफी और करारी मात खाई।आबू लुटने के उसके अरमान धूल धूसरित हो गए, सजधज कर दुबारा तैयारी के साथ आकर जैसल से बदला लेने के लिए वह अपने देश लौट पड़ा और जैसल ने भी उसके स्वागत के लिए एक नए और सुद्रढ़ दुर्ग को खड़ा कर दिया जिसका नाम दिया- जैसलमेर।

इस दुर्ग को याद है कि इस पर और कई लोग चढ़कर आये है पर वह कभी लौटकर नहीं आया जिसे जैसल और भोजदेव ने हराया। आज भी यह दुर्ग खड़ा हुआ मन ही मन “उत्तर भड़ किंवाड़” के मन्त्र का जाप कर रहा है।

आज भी यह इस बात का साक्षी है कि जिन्हें आज देशद्रोही कहा जाता है, वे ही इस देश के कभी एक मात्र रक्षक थे। जिनसे आज बिना रक्त की एक बूंद बहाए ही राज्य, जागीर, भूमि और सर्वस्व छीन लिया गया है, एक मात्र वे ही उनकी रक्षा के लिए खून ही नहीं, सर्वस्व तक को बहा देने वाले थे। जिन्हें आज शोषक, सामंत या सांपों की औलाद कहा जाता है वही एक दिन जगत के पोषक, सेवक और रक्षक थे। जिन्हें आज अध्यापकों से बढ़कर नौकरी नहीं मिलती, जिनके पास सिर छिपाने के लिए अपनी कहलाने वाली दो बीघा जमीन नसीब नहीं होती, जिनके भाग्य आज राजनीतिज्ञों की चापलूसी पर आधारित होकर कभी इधर और कभी उधर डोला करते है, वे एक दिन न केवल अपने भाग्य के स्वयं विधाता ही थे बल्कि इस देश के भी वही भाग्य विधाता थे। जिन्हें आज बेईमान, ठग और जालिम कहा जाता है वे भी एक दिन इंसान कहलाते थे। इस भूमि के स्वामित्व के लिए आज जिनके हृदय में अनुराग के समस्त स्रोत क्षुब्ध हो गए है, वही एक दिन इस भूमि के लिए क्या नहीं करते थे।

लुद्रवे का दुर्ग मिट गया है जैसलमेर का दुर्ग जीर्ण हो गया है, यह धरती भी जीर्ण हो जाएगी पर वे कहानियां कभी जीर्ण नहीं होगी जिन्हें बनाने के लिए कौम के कुशल कारीगरों ने अपने खून का गारा बनाकर लीपा है।

आलेख साभार
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Ajit Rana