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नेतन्याहू को हटाने के प्रयास जारी, नेतन्याहू की सरकार के ख़िलाफ़ इस्राइली जनता सड़कों पर उतरी : रिपोर्ट

6 अप्रैल 2024 को राजधानी तेल अवीव सहित इसराइल के कई हिस्सों में हज़ारों लोग प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू की सरकार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन के लिए सड़कों पर उतर आए.

बीते साल 7 अक्तूबर को हमास के लड़ाकों के इसराइल में हमले के बाद इस 6 महीने पूरे हो गए थे. इन प्रदर्शनों के ज़रिए इसराइली जनता, सरकार की कार्रवाई के प्रति अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर रही थी.

इसराइल के अनुसार सात अक्तूबर को इसराइल पर हुए इस हमले के दौरान 1200 से अधिक इसराइली मारे गए थे और 250 लोगों का अपहरण कर लिया गया था जिनमें अधिकांश आम नागरिक थे.

प्रदर्शनकारी हमले से निपटने और बंधक बनाए गए 130 लोगों को छुड़ाने में सरकार की विफलता से नाराज़ थे. दुनिया के कई देश हमास के सैनिक धड़े को आतंकवादी संगठन घोषित कर चुके हैं.

कई लोग चाहते हैं कि इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू इस्तीफ़ा दें और देश में चुनाव करवाए जाएं. विदेशी नेताओं की ओर से भी प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू की ग़ज़ा में सैनिक कार्रवाई की आलोचना हो रही है.

गज़ा में हमास द्वारा नियंत्रित स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार इसराइली हमले में लगभग 33000 फ़लस्तीनी मारे गए हैं. ग़ज़ा में बिगड़ती मानवीय स्थिति को लेकर भी चिंता व्यक्त की जा रही है जिसके चलते इसराइल का घनिष्ठ सहयोगी अमेरिका भी प्रधानमंत्री नेतन्याहू पर युद्धविराम के लिए दबाव डाल रहा है.

अमेरिका ने यहां तक कह दिया है कि वो इसराइल को हथियार सप्लाई के लिए कुछ शर्तें लादने की सोच रहा है. मगर इसराइली प्रधानमंत्री ने संघर्ष विराम से इनकार कर दिया है. अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन ने कहा है कि वो प्रधानमंत्री नेतन्याहू के ग़ज़ा मामले से निपटने के तरीके से सहमत नहीं हैं.

इसलिए इस हफ़्ते दुनिया जहान में हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि इसराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू का नेतृत्व कितना सुरक्षित है?

बिन्यामिन नेतन्याहू के सत्ता तक पहुंचने का सफ़र

1949 में तेल अवीव में एक धर्मनिरपेक्ष इसराइली परिवार में जन्मे बिन्यामिन नेतन्याहू की परवरिश यरूशलम और अमेरिका में हुई थी. 1967 में इसराइल लौट कर वो सेना में भर्ती हो गए.

लगभग तीस साल बाद 1996 में 46 की उम्र में उन्होंने चुनाव में लिकुड पार्टी का नेतृत्व करते हुए जीत हासिल की और इसराइल के प्रधामंत्री बने.

यूके की ससेक्स यूनिवर्सिटी में आधुनिक इसराइल अध्ययन के प्रोफ़ेसर डेविड टाल कहते हैं कि नेतन्याहू बहुत ही महत्वाकांक्षी व्यक्ति हैं जो राजनीतिक सहयोगियों का इस्तेमाल कर के आगे बढ़ते रहे हैं. वो हमेशा विचारधारा से अधिक प्राथमिकता अपने हितों को देते आए हैं.

“वो राजनीतिक विचारधारा की बात तो करते हैं लेकिन उनकी हरकतें देख कर नहीं लगता कि वो उस विचारधारा के अनुसार काम करते हैं. ज़रूरत पड़ने पर अपने निजी हितों को साधने के लिए वो अपनी विचारधारा के सिद्धांतों से किनारा करने में हिचकिचाते भी नहीं हैं.”


सत्ता से बाहर जाकर फिर की थी नेतन्याहू ने वापसी

 

पहली बार सत्ता में आने के तीन साल बाद ही उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया गया. लेकिन 2009 में वो दोबारा सत्ता में लौटे और लगभग अगले दस सालों तक प्रधानमंत्री बने रहे. लेकिन फिर चुनावों के बाद उन्हें सत्ता से हाथ धोना पड़ा.

2022 में वो फिर चुनावी मैदान में उतरे. मगर इस बार एक महत्वपूर्ण बात यह हुई कि उनके ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के कई आरोप लगाए गए थे. जब चुनाव के नतीजे सामने आए तो उनकी लिकुड पार्टी बहुमत से दूर थी.

अब सरकार बनाने के लिए उन्हें ऐसे राजनीतिक सहयोगियों की ज़रूरत थी जो उनके साथ गठबंधन सरकार बनाने को तैयार हो जाएं. और उनके पास एक ही विकल्प था कि वो राष्ट्रवादी और अति दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों से साथ गठबंधन बनाएं.

इससे उन्हें ना सिर्फ़ संसद में बहुमत मिल सकता था बल्कि अपनी कानूनी मुश्किलों से बाहर निकलने का रास्ता भी मिल सकता था.

डेविड टाल ने कहा कि, “उनके जेल जाने की प्रबल संभावना थी. उनके लिए जेल जाने से बचने का एक रास्ता यह था कि वो न्यायपालिका की व्यवस्था को ही बदल कर अपने पक्ष में कर लें. अति दक्षिणपंथी दलों के साथ गठबंधन करने से इसराइल को क्या नुकसान होगा इससे कहीं ज़्यादा डर उन्हें जेल जाने का था.”

नेतन्याहू की यह गठबंधन सरकार इसराइल में अब तक की सबसे अधिक दक्षिणपंथी सरकार थी.

न्यायपालिका में बदलाव करने के उनके फ़ैसले के ख़िलाफ़ ज़ोरदार विरोध प्रदर्शन हुए. मगर वो राजनीतिक दांव-पेचों के ज़रिए जेल जाने से बच गए हैं लेकिन उन्होंने पर्दे के पीछे एक और ज़्यादा ख़तरनाक राजनीतिक खेल शुरू कर दिया.

नेतन्याहू और हमास

भूमध्य सागर के करीब इसराइल और मिस्र की सीमा के बीच स्थित 20 लाख की आबादी वाला फ़लस्तीनी क्षेत्र ग़ज़ा साल 2007 से चरमपंथी गुट हमास के नियंत्रण में है. हमास इसराइल का अस्तित्व नहीं मानता और उसके ख़िलाफ़ सशस्त्र विद्रोह के प्रति कटिबद्ध है.

हमास के सैनिक धड़े को इसराइल, अमेरिका, यूके, यूरोपीय संघ सहित कई देश आतंकवादी घोषित कर चुके हैं. डेविड टाल कहते हैं कि इसके बावजूद बिन्यामिन नेतन्याहू कत़र से हमास को मिलने वाले पैसों की सप्लाई को नज़रअंदाज़ करते रहे.

डेविड टाल की राय है कि वो ग़ज़ा में हमास के फलने-फूलने के लिए हर संभव काम करते रहे. ऊपरी तौर पर वह कहते रहे कि वो हमास का अंत करना चाहते हैं लेकिन इसके लिए उन्होंने कुछ नहीं किया.

कुछ रिपोर्टों के अनुसार, 2019 में नेतन्याहू ने अपनी लिकुड पार्टी के कुछ नेताओं के सामने कहा था कि फ़लस्तीनी प्रशासन को पीछे धकेलने के लिए हमास की मदद करना हमारी रणनीति का हिस्सा है ताकि गज़ा के फ़लस्तीनियों को वेस्ट बैंक (पश्चिम तट) के फ़लस्तीनियों से अलग रखा जा सके.

हाल में नेतन्याहू ने कहा था कि मानवीय संकट को टालने के लिए उन्होंने हमास को होने वाली पैसों की सप्लाई नहीं रोकी थी. लेकिन वास्तव में उन्हें इससे एक राजनीतिक फ़ायदा यह हो रहा था कि इस धन से हमास और पश्चिम तट में उसके प्रतिद्वंदी फ़लस्तीनी गुट फ़तह के बीच दुश्मनी को हवा मिल रही थी. इसके चलते स्वतंत्र फ़लस्तीनी राष्ट्र के लिए हमास और फ़तह का साथ आना मुश्किल था.

नेतन्याहू और उनके गठबंधन के अति दक्षिणपंथी सदस्य स्वतंत्र फ़लस्तीनी राष्ट्र के ख़िलाफ़ हैं.

डेविड टाल ने बताया कि, “लिकुड पार्टी हमेशा से फ़लस्तीनी राष्ट्र को अपने लिए ख़तरा मानती रही है क्योंकि उसके अनुसार पश्चिम तट इसराइल का हिस्सा है. नेतन्याहू कहते रहे हैं कि वो फ़लस्तीनी राष्ट्र नहीं बनने देंगे.”

7 अक्तूबर को हुए हमलों के बाद नेतन्याहू सरकार की जवाबी कार्रवाई पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नज़रें हैं.

एक बड़ा काला दिन

7 अक्तूबर की सुबह हमास के कई हथियारबंद लड़ाके गज़ा की सीमा पार के इसराइल में घुस गये. इसराइल के अनुसार इन लड़ाकों ने इसराइल में कम से कम 1200 लोगों की हत्या की और 250 लोगों का अपहरण कर के गज़ा ले गए.

इस हमले के दौरान महिलाओं के साथ बलात्कार और यौन हमलों के सबूत बीबीसी ने देखे हैं. वॉशिंगटन स्थित ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूट में सेंटर फॉर मिडिल ईस्ट पॉलिसी के निदेशक नेतन साक्स कहते हैं कि वो दिन इसराइल के इतिहास का सबसे काला दिन था. जर्मनी में यहूदियों के जनसंहार के बाद पहली बार एक दिन में इतने यूहूदी लोग मारे गए थे.

“यह इसराइल के सुरक्षातंत्र की चौंकाने वाली विफलता थी. हमले के समय इसराइली नेतृत्व की प्रतिक्रिया भी उतनी ही चौंकाने वाली थी. हमले से निपटने की कोई तैयारी दिखाई नहीं दी. हालांकि उस समय इसराइल अंदरूनी उथल-पुथल में फंसा हुआ था उसके बावजूद भी इसराइल की विफलता समझ से बाहर है.”

इस हमले के बाद बिन्यामिन नेतन्याहू के प्रति लोगों के रवैये में क्या फ़र्क पड़ा?

नेतन साक्स का कहना है कि उस समय नेतन्याहू प्रधानमंत्री थे और इसराइल के पूरे सुरक्षातंत्र के नेता थे इसलिए उसकी विफलता का दोष भी उन्हीं को जाता है. हमले के फ़ौरन बाद बिन्यामिन नेतन्याहू ने वादा किया कि वो इसराइली बंधकों को छुड़वाऐंगे और हमास का ख़ात्मा करेंगे. उन्होंने गज़ा पर हमला कर दिया मगर नेतन साक्स कहते हैं कि दोनों उद्देश्य एक साथ हासिल करना मुश्किल है.

“हमास बंधकों को मानवीय ढाल की तरह इस्तेमाल कर रहा है. बंधकों और ग़ज़ा की जनता को ख़तरे में डाले बिना उन तक पहुंचना मुश्किल है. इसलिए अब बंधकों को छुड़वाने के लिए हमास से समझौते के प्रयास चल रहे हैं. लेकिन इससे हमास को ख़त्म करने का उनका उद्देश्य खटाई में पड़ जाएगा.”

 

इसराइल को करना पड़ रहा है आलोचना का सामना

इस दौरान ग़ज़ा में हमले के चलते इसराइल को अंतरराष्ट्रीय समुदाय की आलोचना का सामना करना पड़ रहा है. ग़ज़ा के स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार इसराइल के हमले में अब तक 33000 लोग मारे गए हैं और भुखमरी की स्थिति पैदा हो सकती है. हाल में सात अंतरराष्ट्रीय सहायताकर्मियों के मारे जाने की वारदात की व्यापक निंदा हुई है. मगर क्या अंतरराष्ट्रीय समुदाय की राय का नेतन्याहू पर असर पड़ेगा?

नेतन साक्स ने कहा कि, “मुझे नहीं लगता कि नेतन्याहू और कई इसराइली लोग यह समझ पा रहे हैं कि पिछले 5-6 महीने में इसराइल की सामरिक स्थिति को कितना नुकसान पहुंचा है. वो नहीं जानते कि सामरिक रूप से यह कार्रवाई कितनी महंगी साबित होगी.”

बिन्यामिन नेतन्याहू जनता से आह्वान कर रहे हैं कि इस मुश्किल घड़ी में जनता को एकजुट होना चाहिए. मगर इस कार्रवाई का असर इसराइल के उन पश्चिमी देशों के साथ संबंध पर भी पड़ेगा जो उसे हथियार देते हैं.

 

विशेष संबंध

इस युद्ध से पहले अमेरिका इसराइल पर किस प्रकार का प्रभाव रखता था, दोनों के बीच विशेष संबंधों का क्या स्वरूप रहा है? यह समझने के लिए हमने बात की एरन डेविड मिलर से जो वॉशिंगटन स्थित कार्नेगी एंडोवमेंट फ़ॉर इंटनेशनल पीस में वरिष्ठ शोधकर्ता हैं.

वो कहते हैं कि अमेरिका इसराइल को हथियार देता है और संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसका बचाव करता है. अमेरिका के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों के इसराइल के साथ घनिष्ठ संबंध रहे हैं. मगर दोनों देशों के बीच विशेष संबंधों का एक कारण यह है कि दोनों लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखते हैं.

“मध्य पूर्व एक अत्यंत अस्थिर क्षेत्र है. वहां इसराइल एक मात्र लोकतांत्रिक शक्ति है. हालांकि वहां लोकतंत्र आदर्श तो नहीं है लेकिन अगर वहां लोकतंत्र नहीं होता तो उसका अमेरिका के साथ विशेष संबंध इतने लंबे समय तक कायम नहीं रहता.”

कुछ लोगों की राय है कि अमेरिका में पचास लाख से ज़्यादा यहूदी रहते हैं और यह भी अमेरिकी प्रशासन द्वारा इसराइल के समर्थन का एक कारण है. एरन मिलर के अनुसार उससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण यह कारण है कि अमेरिका के इवैंजिलिकल ईसाई और यहूदियों के बीच साझा मूल्य और आस्थाएं हैं और वो इसराइल के समर्थक हैं.

वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडन इसराइल की ग़ज़ा में लड़ाई से आम नागरिकों को हो रहे जान-माल के नुकसान से नाराज़ हैं और उन्होंने इसराइल को चेतावनी दी है कि उसे अमेरिका से मिलने वाली सहायता इस बात पर निर्भर होगी कि वो ग़ज़ा में आम लोगों को सहायता पहुंचाने का रास्ता खोलने के लिए क्या ठोस कदम उठाता है.

नेतन्याहू आरोपों को खारिज कर रहे हैं

एरन डेविड मिलर ने कहा, ”राष्ट्रपति बाइडन की नेतन्याहू के प्रति नाराज़गी बढ़ती जा रही है क्योंकि वो जानते हैं कि प्रधानमंत्री नेतन्याहू अपने कानूनी मसले को इसराइल और अमेरिका के हितों से अधिक प्राथमिकता दे रहे हैं.”

प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने उनके आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि इसराइली जनता उनके साथ है और जानती है कि उसके लिए क्या अच्छा है. राष्ट्रपति बाइडन ने संघर्ष विराम की अपील करते हुए कहा कि ग़ज़ा में मानवीय सहायता का रास्ता खोला जाए. इससे पहले उन्होंने हमास से भी बंधकों को रिहा करने की अपील की थी मगर उन्होंने सीधे तौर पर इसराइल को हथियार सप्लाई बंद करने की बात नहीं की.

एरन डेविड मिलर के अनुसार अमेरिका का इसराइल पर प्रभाव ज़रूर है मगर अमेरिकी राष्ट्रपति इसराइली प्रधानमंत्री के साथ सीधा संघर्ष नहीं चाहते क्योंकि इसके उलटे नतीजे भी आ सकते हैं और राजनीतिक दृष्टि से यह महंगा साबित हो सकता है.

इसराइल के प्रति अमेरिका का रवैया कड़ा हो रहा है. वहीं दूसरी तरफ़ इसराइल में आम चुनाव दो साल बाद होने हैं मगर कई लोग जल्द चुनाव करवाने की बात भी कर रहे हैं.

 

नेतन्याहू को हटाने के प्रयास

यरूशलम स्थित दी इसराइली डेमोक्रेसी इंस्टीट्यूट की वरिष्ठ शोधकर्ता प्रोफेसर टमार हर्मन मानती हैं कि नेतन्याहू सरकार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन कर रहे अधिकांश लोग बड़े शहरों के मध्यवर्ग के धर्मनिरपेक्ष तबके के हैं. इन लोगों ने नेतन्याहू के न्यायपालिका में सुधार का भी विरोध किया था इसलिए नेतन्याहू उनके विरोध को राजनीतिक अवसरवाद बता कर अनदेखा कर सकते हैं.

लेकिन अब उनके साथ वो लोग भी जुड़ रहे हैं जिनके प्रियजनों का अपहरण करके ग़ज़ा में बंदी बना कर रखा गया है.

“बहुत लोग बंधकों की रिहाई के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदमों से निराश और नाराज़ हैं इसलिए वो विरोध प्रदर्शनों में शामिल हो गए हैं. लेकिन नेतन्याहू अब यह कह कर इसे खारिज कर सकते हैं कि यह लोग बंधकों की रिहाई के लिए नहीं बल्कि उनकी सरकार को गिराने के लिए विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.”

लेकिन क्या सरकार के भीतर उनके नेतृत्व के ख़िलाफ़ विद्रोह हो सकता है? टमार हर्मन कहती हैं कि इसकी संभावना कम है क्योंकि 7 अक्तूबर के हमले के बाद नेतन्याहू ने मध्यपंथी नैशनल यूनिटी पार्टी के नेता बेनी गैन्ज़ को सरकार में शामिल कर लिया है.

 

‘नेतन्याहू को फ़िलहाल ख़तरा नहीं’

टमार हर्मन की राय है कि इससे सरकार में नेतन्याहू की स्थिति मज़बूत हुई है क्योंकि नेशनल यूनिटी पार्टी पहले सरकार में शामिल होने को तैयार नहीं थी. उसके सरकार में शामिल होने से नेतन्याहू के नेतृत्व की वैधता बढ़ गयी है. गठबंधन सरकार में शामिल अति दक्षिणपंथी दल सत्ता में रहना चाहते हैं इसलिए वो भी फ़िलहाल नेतन्याहू का साथ नहीं छोड़ेंगे यानी नेतन्याहू के नेतृत्व को फ़िलहाल वहां से कोई ख़तरा नहीं है.

फ़िलहाल तो ग़ज़ा में चल रही लड़ाई पर पूरा ध्यान केंद्रित है लेकिन इसराइल की लेबनान से लगी सीमा पर और ईरान के साथ भी संघर्ष सुलगने जा रहे हैं. अगर यह संघर्ष ग़ज़ा से बाहर फैल गया तो इसराइली जनता मतभेद भुला कर एकजुट हो जाएगी.

टमार हर्मन ने कहा, “अगर ऐसा होता है तो पूरी स्थिति बदल जाएगी क्योंकि अगर उत्तर में लड़ाई छिड़ गयी तो वो कहीं अधिक बड़ी होगी और सबके लिए अधिक ख़तरनाक होगी. और विरोध प्रदर्शन ख़त्म हो जाएंगे.”

तो अब लौटते हैं अपने मुख्य प्रश्न की ओर कि इसराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू का नेतृत्व कितना सुरक्षित है?

7 अक्तूबर के बाद इसराइल द्वारा ग़ज़ा में छेड़ी गयी लड़ाई से उत्पन्न मानवीय संकट के चलते अब अमेरिका, यूके और जर्मनी इसराइल को बिना शर्त समर्थन देने के बारे में हिचकिचाने लगे हैं.

बिन्यामिन नेतन्याहू देश के भीतर भी विरोध का सामना कर रहे हैं. लेकिन वहां मध्यावधि चुनाव के लिए इतना काफ़ी नहीं है.

नेतन्याहू एक चालाक राजनेता हैं और राजनीतिक चुनौतियों से निपटने में माहिर हैं इसलिए फ़िलहाल तो नहीं लगता कि उनके नेतृत्व को गंभीर ख़तरा है.