साहित्य

रात को गुलज़ार हो जाती है गली….By-जयचंद प्रजापति

जयचंद प्रजापति
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रात को गुलज़ार हो जाती है गली
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दिन मे कोई नही आता इस गली में। सूनी रहती है। कोई हलचल नहीं। आवारा गाय और कुत्ते अक्सर इस गली में आकर बिना डर भय के आराम करते हैं।
रात होते ही यह गली गुलजार हो जाती है। चहल कदमी बेफिक्री से। मस्ती का माहौल हो जाता है। एक रंगीन रात हो जाती है। पीने वालों के लिये दस्तक चालू हो जाती है।
तनाव फ्री कर देती है यह गली। कोई टोकने वाला नहीं होता है। अध्धा, पौवा, देशी, विदेशी की घूंट लेना चालू हो जाता है। जिन्दगी का सफर जैसे इस गली से होकर निकलती है।
गरीबी भले हो घर में, सब्जी के पैसे घर में भले ऩ हो। एक शाम तक एक शीशी की व्यवस्था हो ही जाती है। जी भर कर पीता है। एक दिहाड़ी यूं ही लूटा दी जाती है। बीबी घर में सब्जी की इंतजार कर बैठी रह जाती है। बच्चे बिलबिलाते बिन खाये रह जाते।
इस गली में सारे पीने वाले जात पात की डोर को तोड़कर बड़ी आस्था वि्श्वास के साथ टेन्शन मुक्त होने आते है। आधी रात तक हलक के नीचे उतार ली जाती है सारी शराब।
जो थकान मन की संतुुष्टि मंदिर में नहीं मिलती है वो रात को गुलजार हुई इस गली से मिलती है। एक सांत्वना, मस्ती है। आनन्द आता है। एक आजाद पंछी की तरह एक ऩई उड़ान मिलती है। एक पीने वाला शहंशाह महसूस करने लगता है।
इस गली में आने के लिये शहंशाहियत होनी चाहिये।हिम्मत होनी चाहिये। इस गुलजार गली में भले जिन्दगी बर्बाद हो जाये, तबाही का मंजर नजर आ जायेें लेकिन हर पीने वाला शख्स इस गली का आनन्द लेने चला ही आता है।
शहंशाह की फीलिंग होती है इस गुलजार गली में। रंगीन मौसम की तसल्ली मिलती है इस गली में…मौत भी जल्दी मिलती है लेकिन एक सकून मिलती है इस गली में…
जयचन्द प्रजापति ’जय’
प्रयागराज