साहित्य

‘सांझी दुनिया’…अब कम से कम छोटे-मोटे ख़र्चे तो पूरे हो जाते हैं!

Anita Manoj Social Worker

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‘सांझी दुनिया’
मम्मी फिर पीछे पडी थीं, “बेटा, अच्छा नहीं लगता, अब तो तू उस शहर से जा ही रही है। मिल आ एक बार”
“क्या मम्मी, तुम्ही ने तो बताया था, रमेश भैया के बारे में। तब से वहाँ जाने का मन नहीं करता है मेरा, जानती तो हो” “अरे गुड्डी, तेरी बुआजी तुझे कितना याद कर रही हैं। कह रही थीं, गुड्डी से कहना, जाने के पहले एक बार ज़रूर मिल जाए”
अब मम्मी मानने वाली तो थीं नहीं, इसलिए कल यानि रविवार की छुट्टी के दिन चली गयी थी मैं बुआजी के यहाँ ।
“सरोजा दीदी, इधर आइये ज़रा”, चलने के पहले रेनू भाभी मुझे अंदर ले गयीं
“दीदी, आप से कुछ कहना था”
“हाँ हाँ, कहिये न भाभी”
भाभी हिचकिचाते हुए बोलीं, “वो अपने भैया के बारे में तो आपने भी सुना ही होगा। मतलब, जो उनकी दूसरी बीबी की खबरें फ़ैली हैं”
मैं लज्जा से गड़ गयी। न हाँ बोल पायी थी, न ना।
कुछ संयत हुई तो बेसाख्ता पूछ बैठी, “भाभी, आपने क्यों करने दिया भैया को दूसरा विवाह ? इतनी प्यारा, भरा-पूरा घर संसार था आपका”
भाभी कुछ जवाब देतीं, उससे पहले ही बड़ा भांजा मनीष घर में घुसा था। इस समय अंदर कमरे में मेरी उपस्थिति से अंजान रहा होगा। आते ही गुस्से से चिल्ला कर बोला, “मम्मी, अभी तक मेरी बाइक का इंतज़ाम नहीं हुआ ? आखिर कर क्या रही है वो औरत ? उसने बाइक के लिए रुपये नहीं दिए अब तक ? उसको बोलो, जल्दी दे दे। वरना पापा से डाइवोर्स दिलवाता हूँ”।
मनीष की आवाज़ अंदर तक आ रही थी। रेनू भाभी ने मुझे कनखियों से देखा और नज़रें चुरा लीं। फिर धीरे से बोलीं, “अब आप से क्या छुपाना सरोजा दीदी। । बच्चों के खर्चे बढ़ रहे हैं। फिर अम्माजी के इलाज का भी काफी हो जाता है। अब कम से कम छोटे-मोटे खर्चे तो पूरे हो जाते हैं”।
मैं भौचक रह गयी थी। बेसाख्ता मुँह से निकल गया, “तो आप लोग उससे पैसे भी लेते हैं ? और उसका अपना परिवार, बच्चे उनका खर्चा ?”
“वो तो दीदी, मैंने शादी की परमिशन ही इसी शर्त पर दी थी कि उससे कोई संतान नहीं होनी चाहिए। अपने पति की वसीयत में कोई हिस्सा-बाँट नहीं चाहिए मुझे”, भाभी की आवाज़ में अपनी चतुराई पर गर्व का पुट था।
“भाभी, इतनी ही बड़ी वसीयत थी आपके पति की, तो उस दूसरी पत्नी से खर्चा लेने की क्या ज़रुरत थी आपको” ? मेरा स्वर कडुवाहट से भर गया था।
“दीदी, भोली हैं आप”। भाभी ने मेरी नासमझी पर तरस खाया । “देखिये, बढ़िया सरकारी नौकरी है उसकी। अच्छा घर भी मिला हुआ है। आगे पीछे कोई है नहीं। जो भी हैं, हम ही लोग तो हैं। हम पर नहीं करेगी तो किस पर करेगी खर्चा”?
“अच्छाss, तो ये मजबूरी थी आपकी”।
मेरे कथन में व्यंग के पुट की अवहेलना कर भाभी बोलीं, “वैसे भी दीदी, वो भी इन बच्चों को बहुत मानती है”।
“आपको कैसे पता ? मिली हैं आप उससे”? जैसे-जैसे भेद खुलते जा रहे थे, मेरी खीज बढ़ती जा रही थी।
“नहीं, पर पता है मुझे। भाई, जब अपने बच्चे नहीं हैं, तो अपने पति के बच्चे ही तो अपने हुए न”।


भाभी ने एक बार फिर मुझे नासमझ और स्वयं को होशियार साबित कर दिया था।
मेरी आँखों और चेहरे के भावों ने मेरी चुगली कर दी। देख कर भाभी, तुरन्त रंग बदलते हुए,दयनीय सूरत बना कर बोलीं, “क्या करती दीदी। इस बार तो इन्होने साफ़ कह दिया था की मैं उसके बिना रह नहीं सकता। अगर तुम नहीं मानोगी तो मैं उसी घर में उसके साथ ही रहने लग जाऊंगा फिर मेरा तुम लोगो से कोई वास्ता नहीं रहेगा। और अगर मान जाओगी तो सब कुछ पहले जैसे चलता रहेगा बस, मैं उससे भी मिलने जाता रहूंगा”।
“जो मैंने सहा है सरोजा दीदी, वो किसी पत्नी को न सहना पड़े” और चुन्नी आँखों पर रख, उनका सिसकना शुरू हो गया।
ये ड्रामा मुझसे और बर्दाश्त नहीं हुआ। मैं चलने को खड़ी हो गयी। पर भाभी ने मेरा हाथ पकड़ लिया, बोलीं, “दीदी एक काम करेंगी मेरा। एक बार वहाँ होकर आइये न। आपकी ही तरफ तो है उसका घर। बी सत्तावन बताते हैं। कुछ भी बहाना निकाल के मिल लीजिये न। बहुत मन है उसे देखने का, उसके बारे में जानने का कैसी है। कैसे इनको फंसा लिया। देखूं तो। क्या मुझसे अधिक सुन्दर है ? देखिये, ये सब मैं किसी और से या इनसे तो कह नहीं सकती न। आपसे ही कह सकती हूँ। प्लीज एक बार मिल कर आइये न”, रेनू भाभी ने निरीह भंगिमा बना कर कहा।
इसके बाद एक मिनट भी वहाँ रुक नहीं पायी मैं।
कल घर आने के बाद और आज ऑफिस जाते समय मेट्रो में भी रेनू भाभी की बातें मुझे सोचने को मजबूर करती रहीं। ‘छी, एक औरत होकर भी एक औरत को ही कैसे छल सकीं भाभी ? माना भैया ने गलत किया उनके साथ। पर सिर्फ इस वजह से ही क्या उन्हें भी गलती करने का अधिकार मिल गया था ? उस दूसरी स्त्री को माँ बनने से क्यों रोका भाभी ने ? इतना स्वार्थ? जबकि अपना तो भरा पूरा परिवार है उनके पास। पर वो स्त्री किसके सहारे रहेगी ? और भैया ? वो भी ? कैसा अनुभव करती होगी उन की दूसरी पत्नी, जिसे माँ बनने का हक़ तक नहीं मिला था। मिला था, तो सिर्फ विवाहिता होने का तमगा। वो भी एक दोयम दर्जे का। और मात्र इतने से ही उसे संतुष्ट होना पड़ा था’।
ऑफिस पहुँच कर काम शुरू ही किया था कि अचानक ट्रांसफॉर्मर ब्रेक डाउन होने के कारण छुट्टी कर दी गयी। इस अचानक मिली छुट्टी से हर तरफ दबी ढकी ख़ुशी दिखाई दे रही थी। मैं भी तेज़ी से अपने मेट्रो स्टेशन की तरफ बढ़ ली थी। रास्ते में फिर वही कल वाली बातें ही दिमाग में घूमने लगी थीं। हृदय उस अंजान स्त्री के लिए एक करुणा भरी संवेदना का अनुभव कर रहा था, जिसने अपने प्रेम को पाने की ख़ातिर, नारी की सम्पूर्णता के मानक को, यानि मातृत्व सुख को ही तिलांजलि दे दी थी। भैया से प्रेम करने का खामियाजा कब तक भुगतना पड़ेगा बेचारी को ? क्या कभी वो इस सत्य से अवगत हो पाएगी कि भाभी ने कितनी कुशलतापूर्वक उसे स्थायी प्रदाता के पलड़े में बैठा दिया है और स्वयं स्थायी आदाता के पलड़े में विराजमान हो गयी हैं, वो भी ‘बेचारी’ होने का जामा पहन कर।
अपने स्टॉप पर उतरी तो पाँव खुद ही मुड़ लिए ‘बी’ ब्लॉक की तरफ। मस्तिष्क रीता था। कुछ नहीं सोचा था कि उससे मिलूंगी तो क्या बहाना बनाऊंगी, क्या कह कर अपना परिचय दूँगी। बस हृदय में विचारों का झंझावात समेटे ‘बी सत्तावन’ढूंढ रही थी।
रीतनगर के किनारे से ही शुरू हो गए थे सरकारी क्वार्टर्स। किधर पड़ेगा ‘बी सत्तावन’, सोच ही रही थी कि एक ग्रोसरी स्टोर दिखा। सोचा, वहीं पूछती हूँ। एक महिला कुछ सामान ले रही थी। सलीके से बंधी हलके पीले रंग की साड़ी में लिपटी उसकी उजली छरहरी काया और पृष्ठ भाग को देख कर, उसके आभिजात्य सौंदर्य का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता था। कुछ आगे बढ़ने पर कुछ जानी-पहचानी से लगी। कुछ कदम और बढ़ाने पर तो शक की कोई गुंजाइश ही नहीं बची थी।
हाँ, वह कमलिनी ही थी। मेरी प्रिय बाल-सखी ‘लिनी’। कोरियन पिता और कश्मीरी माँ, दोनों से ही अपूर्व नैसर्गिक सौंदर्य विरासत में पाया था उसने। उनकी इकलौती संतान थी वह । इसी से हमारे घर से अधिक ही लगाव था उसका। बचपन की मधुर स्मृतियों से मेरा मन-मयूर नृत्य कर उठा था। मुझे काली कलूटी कह कर चिढ़ाने वाले बच्चों को अपनी तीखी ज़बानी तलवार से वो ऐसी-ऐसी उपाधियों से विभूषित किया करती थी कि सब घबरा कर वहाँ से पलायन कर जाते थे। उसके संरक्षण में मुझे एक मज़बूत सम्बल मिलता था। हांलांकि हमारी जोड़ी को ‘चाक एंड ब्लैकबोर्ड’, ‘ज़ेबरा लाइन्स’, ‘ब्लैक एंड वाइट मूवी’, या ‘साल्ट न पेपर’ जैसी उपाधियाँ भी मिलती रहती थीं। पर बारहवीं पूरी होते-होते उन लोगो का ट्रांसफर दूसरी जगह हो गया था। कुछ समय हाल-चाल मिलते रहे फिर वह सब बंद हो गया था ।
मैंने उसके पास जा, कंधे पर हाथ रख, स्नेह से कहा, “लिनी”।
“हाय तू” —- कह, पलट के, वह इतनी ज़ोर से चिल्ला कर मुझसे लिपट गयी थी कि आसपास की कई जोड़ी नज़रें हम पर चिपक गयीं। मैं संकोच से गड़ी जा रही थी, पर सदा की ही भाँति उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। काम पूरा कर, बड़े ही स्वाभाविक अंदाज़ में उसने अपना पर्स कंधे पर टांगा, सामान का झोला उठाया और “चल घर” कहते हुए, दूसरे हाथ से मेरा हाथ पकड़ ऐसे चलने लगी जैसे सारा कार्यक्रम पूर्व-नियोजित था।
मैंने कहा, “अरे अभी किसी काम से आयी हूँ, फिर किसी दिन आऊंगी।”
“बड़ी आयी काम वाली। चुपचाप चल। पास में ही है घर ।” उसने पहले जैसे अधिकारपूर्ण स्वर में कहा।
मैं पहले की ही तरह उसे कुछ नहीं कह पायी। मेरी आखें रास्ते में पड़ने वाले घरो का नंबर पढ़ती जा रही थी। ‘बी बयालीस’, ‘बी तेतालीस’, ‘बी उनचास’, ‘पचास’। न जाने क्यों हृदय एक अनचीन्हे भय से त्रस्त होता जा रहा था। ‘हे प्रभु, जिस घर में हम रुकें, वह ‘बी सत्तावन’ न हो बस’। हम लिफ्ट से बाहर निकले। आमने-सामने चार फ्लैट्स थे। मैं बुरी तरह भयाक्रांत थी। बायीं तरफ ‘बी सत्तावन’, ‘बी अट्ठावन’, दायीं तरफ ‘बी उनसठ’, ‘बी साठ’। मैं लिनी से दो कदम पीछे हो गयी, कुछ क्षण के लिए नेत्र बंद कर लिए, “हे प्रभु, दया करना।” जब आखें खोलीं तो लिनी ‘बी सत्तावन’ का दरवाज़ा खोल रही थी। गाज गिर चुकी थी मुझ पर।
अंदर पहुँच, मैं निढाल सी सोफे पर ढह गयी। आखें अभी घर का ब्यौरा ले ही रही थीं, कि पीछे से आवाज़ आयी, “ले पहले चाय पी। फिर खाना बनाते हैं”।
मैंने मुड़ कर देखा, लिनी का सौंदर्य पहले से भी कई और सोपान ऊपर चढ़ चुका था। क्या विवाह होने भर से ही कोई इतना सुन्दर बन सकता है। चेहरा थोड़ा सा भर गया था। रंगत पहले ही दूधिया सफ़ेद थी। पर अब उसमे गहरे गुलाबों का रंग और सितारों की चमक भी घुल चुकी थी। हंसने पर उज्जवल दन्त पंक्ति और दोनों गालों पर पड़ने वाले गड्ढे किसी का भी मन मोहने की क्षमत रखते थे। हलकी घुंघराली अपार केशराशि पीठ से नीचे तक लटकती ढीली चोटी में बंधी थी। माथे पर लाल बिंदी दमक रही थी और मांग में लाल सिन्दूर। मेकअप के नाम पर घनी काली बरौनियों से ढकी आँखों में काजल की महीन रेखा थी और प्राकृतिक अरुणिम अधरों पर हलकी गुलाबी लिपस्टिक। सिर्फ इतने से ही लिनी का विवाहिता रूप आखें चौंधिया दे रहा था।
बी सत्तावन का ताला खुलते ही जो कटु सत्य स्वयं को साधिकार स्थापित कर चुका था, मेरा मन अभी भी उसे झुठलाने में ही लगा था। शायद भैया की दूसरी पत्नी अब तक दूसरे घर में शिफ्ट हो गयी हो और रेनू भाभी को पता ही न हो। “लिनी, तूने शादी कर ली। कहाँ हैं तेरे पति ? क्या नाम है उनका”?, शंका में डूबते उतराते, मैं ढेर सारे प्रश्न उस पर दाग चुकी थी।
“बताती हूँ बाबा, साँस तो लेने दे”। हम हाथों में चाय के कप लेकर उसके बैडरूम की वुडेन फ्लोर पर ही बैठ गयी थीं।
“रोजा, मैंने एक विवाहित आदमी से शादी की है”, लिनी की आवाज़ का गाम्भीर्य मुझे उसकी बातों पर विश्वास करने के लिए बाध्य कर रहा था। “पापा तो अम्मा के बाद ही कोरिया वापस चले गए थे। रिश्तेदारों वगैरा से भी बहुत मेलजोल कभी रहा नहीं, तो मैं एक तरह से अकेली ही थी। तब पहली पोस्टिंग के दौरान रमेश जी और मेरी जान पहचान हुई थी। परिचय धीरे-धीरे प्रगाढ़ता में, फिर प्रणय में बदल गया था। उस समय उन्होंने मुझे बहुत सहारा दिया था। हर काम में मेरी मदद करते थे। धीरे धीरे मैं उन पर पूरी तरह से डिपेंडेंट हो गयी थी”।
“तुझे पता नहीं था कि वो विवाहित हैं”? मैंने पूछ ही लिया था।
“मुझे पता चला था, पर, काफी समय बाद। पर तब तक दिल की डोर मेरे हाथ से निकल चुकी थी। तब हमने शादी करने की सोची। छोटी जगह में ये सब काफी उछाला जाता है। इसलिए हमने दिल्ली ट्रांसफर ले लिया था। रमेश जी की पहली पत्नी से परमिशन लेकर हमने मंदिर में शादी की। अब यहां सुख से हूँ”।
“ख़ाक सुख से है तू।” तेरे पति कहाँ रहते हैं”?
रेनू भाभी से पूरा विवरण सुनने के बाद भी, मैं उसके मुँह से उसका वर्ज़न सुनना चाहती थी।
“वो वहीं रहते हैं, अपने परिवार के साथ। यहां भी आते रहते हैं। कई बार तो दो दो तीन तीन दिन रह जाते हैं”।
“तुझे लेकर बाहर जाते हैं”?
“हाँ मूवी गए थे हम लोग”
“कितनी मूवीज देखीं”?
“उनके साथ किसी पार्टी, फंक्शन में गयी”? लिनी को मेरे आक्रोश का भान हो गया था। उसने सिर झुका लिया।
फिर बोली, “देख रोजा, तू बिलकुल परेशान मत हो। मेरी दुनिया सांझी है। वहां सब मुझे बहुत मानते हैं। दोनों बच्चे तो मुझे छोटी माँ का दर्ज़ा दिए बैठे हैं”।
“तुझे कैसे पता ? कभी मिली है उनसे”?” मेरे कानो में गूँज गया था मनीष का लिनी के लिए सम्बोधन “वो औरत”।
“नहीं, मिली तो नहीं, इन्होने बताया था”।
‘तो क्या रमेश भैया भी’…….मेरा शक़ गहरा होता जा रहा था।
“अच्छा, वो तुझे पैसे देते हैं”?
“अअअ…. अरे, उसकी ज़रुरत क्या है? अच्छी खासी नौकरी तो है मेरी”।
“तो तेरी सैलरी का क्या होता है ? कहाँ खर्च करती है सारे पैसे”?
“अरे, उनके बच्चे मेरे बच्चे। उनके लिए अच्छा लगता है खर्च करना। उन लोगो को ज़रुरत होती है तो मदद कर देती हूँ”।
“और तेरी अपनी संतान”? रहा नहीं गया मुझसे।
उसने सिर झुका लिया, “वो हम लोगो में पहले ही तय हो गया था कि मैं उसके बारे में कभी नहीं कहूँगी। वे कहते हैं ये ही तुम्हारे बच्चे हैं”।
“निरी मूर्खा है तू लिनी”। मैंने क्रोध से दांत पीसते हुए कहा। “अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली है तूने”।
“जानती हूँ, पर मैं उनके बिना नहीं रह सकती थी और मेरा प्रेम पवित्र है। इस सांझी दुनिया को मैंने जानते बूझते स्वीकारा है”, लिनी की आखों में प्रेम अथाह सागर हिलोरें ले रहा था।
अजब थी ये सांझी दुनिया। जिसमे एक ओर थीं रेनू भाभी, जिन्होंने आर्थिक सहायता के लालच में अपने पति को एक दूसरी स्त्री के संग साझा कर लिया था। दूसरी ओर थी कमलिनी, जिसने प्रेम की पराकाष्ठा स्वरूप साझा करी थी एक ऐसी दुनिया, जिसमे उसके हिस्से सिर्फ देना ही देना आया था। ये सांझी दुनिया ही उसकी सम्पूर्ण दुनिया थी।
और रमेश भैया? उनके हिस्से क्या-क्या आया, सोचने की ताब नहीं बची थी मुझमें।
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लेखिका
नमिता अनुराग
इस कहानी का पहला भाग यहीं तक …. जल्दी ही मिलेंगे इस कहानी का अगला भाग लेकर। आप सब स्वस्थ रहिये, खुश रहिये, धन्यवाद!
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