साहित्य

उमराव जान अदा : क़िताब vs फ़िल्म

Anju Sharma

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उमराव जान अदा : किताब vs फ़िल्म
महज नौ बरस की उम्र में फैज़ाबाद से अगवा कर ली गई एक मासूम लड़की है अमीरन। जिसे सरकारी जमादार पिता की एक गवाही की एवज में सजा पाये एक मुजरिम पड़ोसी द्वारा बदला लेने की नीयत से लखनऊ के एक कोठे पर बेच दिया गया। अपने अब्बा, अम्मी, भाई से दूर हो होकर कोठे पर पहुँची नन्ही अमीरन, उमराव जान हो गई। अपनी बदकिस्मती की सजा ताउम्र भुगतती रही उमराव जान को चाहने वाले बेशुमार मिले। गौहर मिर्जा, सुल्तान नवाब, डाकू फ़ैज़ अली के रुप में जो पुरुष उसके जीवन में आये उनसे किसी तौर वह जुड़ी भी पर नसीब ने साथ नहीं दिया। बचपन से साथी बना गौहर मिर्जा शातिर और धोखेबाज़ निकला, फिर जिनसे दिल का रिश्ता जुड़ा वे प्रेमी सुल्तान नवाब अपनी गृहस्थी में मगन हो गए और चाहने वाला डाकू फ़ैज़ अली पुलिस के हत्थे चढ़ गया। उमराव रही अकेली की अकेली।

1899 में मिर्ज़ा हादी रुसवा द्वारा लिखित इस उपन्यास में एक परिवार में कहानी शुरू हुई फैज़ाबाद से, लखनऊ, कानपुर, फ़ैजाबाद और अंत में फिर लखनऊ में जाकर इसका अंत हुआ। जब उमराव फैज़ाबाद पहुँचती है तो किस्मत उसे फिर लौटा लाती है अपने घर परिवार में पर डाल से टूटा पत्ता क्या कभी दोबारा डाल से जुड़ा है जो उमराव फिर अमीरन बनती। फिर लौटा लायी गयी होती है लखनऊ जहाँ फिर वही कोठा, वही हुसैनी बुआ, वही खानम और वही महफिलें।

68 पेज के इस उपन्यास में रफ्तार इतनी तेज है कि बारहा ठहरने की ख़्वाहिश होती है। शायद एक अन्य पुरुष ने इसे लिखा है लिहाजा आत्मकथात्मक शैली में होते हुए भी इसमें से वह स्त्री संवेदना या भाव पक्ष सिरे से गायब है जो फ़िल्म की जान है। ख़याल आता है कि यदि वाकई इसे उमराव जान ने लिखा होता तो उस बेशुमार और बेपनाह दर्द का कुछ अंश यहाँ जरूर मिलता जो उम्र भर उमराव को मिला। यदि आपने फ़िल्म पहले देखी है तो महसूस करेंगे कि किताब आत्मकथात्मक होते हुए भी उमराव से कहीं कोई भावनात्मक जुड़ाव उत्पन्न करने में चूक जाती है जैसा कि फ़िल्म देखते हुए महसूस होता है। अलबत्ता लखनवी तहज़ीब, कोठों का माहौल और उन्नीसवीं सदी के लखनऊ के रहन सहन, पहनावे, तौर तरीकों आदि पर संक्षेप में ही सही पर अच्छी पड़ताल है इस उपन्यास में।

एक और बात, उमराव जान पर बनी दो फिल्मों की बात की जाए तो मैं यहाँ फ़िल्म के रूप में केवल मुज़फ्फर अली वाली उमराव जान (1981) की बात कर रही हूँ जिसमें उनका किरदार रेखा ने अदा किया और क्या खूब अदा किया। किसी अभिनेता के जीवन को अगर किसी एक फ़िल्म से याद किया जाए तो मुझे लगता है रेखा के लिये वह यादगार फ़िल्म उमराव जान है। ये फ़िल्म इसलिये भी ख़ास है कि न सिर्फ़ रेखा बल्कि सबने यहाँ अपना सर्वश्रेष्ठ दिया है। फ़िल्म की कहानी दर्शकों को बांध लेती है, जाहिर है मुज़फ्फर अली और उनकी टीम ने स्क्रिप्ट पर बहुत अच्छा काम किया था। फ़िल्म देखकर ये बात बहुत संजीदगी से महसूस होती है कि कहीं कोई उमराव जान रही होगी तो यक़ीनन रेखा जैसी ही रही होगी।

किताब में बहुत सी घटनाएँ घटती चली जाती हैं और वे किसी गैप की ओर इशारा करती हैं जबकि जहाँ जो जितना किताब में मिसिंग है फ़िल्म उसे बखूबी पूरा करती है। विशेषकर रेखा सहित तमाम मंजे हुए कलाकारों शौकत आज़मी, दीना पाठक, जागीरदार, नसीरुद्दीन शाह, फारुख शेख़, प्रेमा नारायण, राज बब्बर आदि के किरदारों ने इसमें जान फूंक दी। शहरयार की शायरी और ख़य्याम का उम्दा संगीत भी इस फ़िल्म का एक ख़ास किरदार ही कहा जाएगा जो फ़िल्म की पृष्ठभूमि, उसके माहौल और संवेदना के प्रस्तुतिकरण में पूरी तरह सफल है। इस फ़िल्म के गानों पर इन दोनों ने जो मेहनत की है वह किसी जुनून के बिना संभव ही नहीं। इसके संगीत पर तो अलग से एक लेख लिखा जा सकता है। ये दस गाने दस नगीनों की भाँति हैं जो सिनेमा के इतिहास में अमर हो गए हैं। आशा भोंसले की गाई गज़लों का विशेष तौर पर उल्लेख किया जाना चाहिये। बाकी शास्त्रीय संगीत और लोकसंगीत दोनों ही यहाँ लाज़वाब हैं। इसके बारे में कभी विस्तार से लिखना होगा।

बहरहाल मेरा मशविरा यही है कि किताब को बस एक बार पढ़ा जा सकता है पर उमराव जान अदा को जानना है तो रेखा अभिनीत मुज़फ्फर अली की इस शानदार फिल्म को जरूर देखिये। देर तक याद रखेंगे।
किताब की पीडीएफ ढूंढने पर ऑनलाइन मिल जाएगी और फ़िल्म अमेज़न प्राइम पर उपलब्ध है।

—अंजू शर्मा