साहित्य

मैंने तुम्हें कोई नुकसान पहुंचाया है ही नहीं….तो तुमने मुझे बहस का बगीचा क्यों बना दिया…By-विमल सागर

Vimal Sagar
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यह सिलसिला बहस का किसने शुरू किया
मेरे तो अपने रास्ते अलग थे …
फिर मेरा रास्ता अख्तियार किसने किया…
मैंने तुम्हें कोई नुकसान पहुंचाया है ही नहीं….
……. तो तुमने मुझे बहस का बगीचा क्यों बना दिया
तुम्हारी वजह क्या थी चलन या फिर अपने को होशियार दिखाना ….
मैंने तो तुमसे कोई बहस की नहीं थी ….
तुमने मुझसे बहस क्यों कर दी……
मैं खामखा आदमी नहीं हूं बेवजह बहस करना
मेरी बातों में तार्किकता स्वयं ही झलकती है…
यह मेरी आदत व मेरी जिंदगी ….
मैं अपने आप में कितनी इंसानियत रखता हूं …
कि मुझे किसी का गुनहगार बने की जरूरत भी नहीं
….मैं किसी का कत्ल तो क्या करता कभी मैंने चींटी को नुकसान पहुंचा ही नहीं ….
मेरी जिंदगी के दर्द को तुम क्या बयान करोगे मैंने कभी अपने दर्दों को दिखाया ही नहीं …..


तुमने बहस क्यों कर ली …..मैंने तो तुम्हें कभी बहस का जरिया बनाया ही नहीं …..
तुमने अपने दर्द को बताया होता ……तो तुम्हारे दर्द का इलाज होता …..तुम्हारे पर मैं इल्जाम भी ना देता क्योंकि तुम्हारे गुनाहों का पिटारा पिटारा यूं ना भरा होता ……
कभी ना कभी तो सूर्य अस्त बुराइयों का होता ही है…. भले ही दूसरे दिन उग जाये …..लेकिन इस तरह जिंदगी का पहलू चलता ही रहता है ….जब बुराइयां होती हैं तो बुझती भी जरूर है…. और अच्छाई या होती हैं तो हमेशा बरकरार रहती है ……
तुमने मुझे बेवजह का मुद्दा क्यों बना लिया………..
मैं तुम्हारा नेता नहीं ….मुझे राजनीति करनी नहीं आती क्योंकि मैं जिंदगी सुकून प्यार मोहब्बत से जीता हूँ…..
वही प्यार मोहब्बत सुकून से जिंदगी जीने की नसीहत भी तुम्हें देता हूं …..
तुमने मुझे बहस का जरिया क्यों बना दिया मैं तो किसी सरहद की जमीन भी नहीं हूं …….
तुमने बहस का मुद्दा क्यों बना लिया मैं किसी आशिक की चाहत भी नहीं
तुमने मुझे बेवजह का बहस का मुद्दा क्यों बना दिया मैं तुम्हारी कोई तुलना अपने से करता ही नहीं
तुमने मुझे बेवजह का मुद्दा क्यों बना लिया मैंने कभी तुम्हारी हीनता को बढ़ावा नहीं दिया
उसे दौड़ में शामिल रहता हूं जिस प्रतिस्पर्धा में लाखों की भीड़ होती है
मैं तुम्हारे साथ बहस प्रतिस्पर्धा करके क्या करूंगा
मैं घरों के घरों दीवारों में कान नहीं लगाता
क्योंकि मैं बात कहना और सुनना खुलेआम जो सब। सुना है
मुझे बेवजह का मुद्दा मत बनाओ मैं किसी की खरीदी हुई जागीर नहीं हूं इसीलिए अपनी आवाज में बुलंदी और तार्किकता बरकार रखना
मेरे सवाल मेरे जवाब में तुम्हारे सवालों के उत्तर मिल जाते हैं तुम फिर से अपने आप को हीनता के भाव से लिप्त पाकर फिर अपने आप को यह सोच करके कि हम इसे आगे नहीं है फिर एक नया मुद्दा लेकर के फिर हाजिर हो जाती है क्योंकि तुम्हें कोई और मिलता ही नहीं शायद तुमसे कमजोरी या तुम्हारे लिए जवाब देने वाले या किसी के अंदर इंसानियत बची ही नहीं
हमारी सारी जिंदगी की ख्वाहिश है और जो एक योग्य व्यक्ति बनने की हमारी युवावस्था तक लगभग पूरी हो जाती उसके बाद बुढ़ापे में अगर कहो कि हम किसी के अच्छा योग को तोड़ तोड़ कर अपना राह सुगम बना ले तो यह एक अपराध की श्रेणी में आता है इससे ज्यादा और कुछ नहीं हर कदम पर हर बहस पर एक नया अपराध एक नया गुनाह आपका पीछा कभी नहीं छोड़ेगा।।
विमल सागर