साहित्य

‘कब तक पुकारूं’…..’मुझे चांद चाहिए’…’राग दरबारी’…

Dinesh Shrinet 

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अस्सी के दशक तक आते-आते मुख्यधारा और समांतर सिनेमा दोनों की हिंदी साहित्य से दूरी बनने लगी. यह जोखिम भरा निष्कर्ष है मगर ऐसा लगता है कि सिनेमा अपने आसपास के जिस बदलते हुए यथार्थ को दर्ज करना चाहता था, हिंदी में वैसी कहानियां या उपन्यास अस्सी और नब्बे के दशक में नहीं लिखे जा रहे थे.

भारत जिस तरह के सामाजिक राजनीतिक बदलाव से गुजर रहा था, वैसे तीखेपन वाली रचनाएं हिंदी साहित्य में नहीं मिल रही थीं. नई कहानी के बाद का दौर छोटे-छोटे आंदोलनों की भेंट चढ़ गया. सचेतन कहानी, साठोत्तरी पीढ़ी, अकहानी जैसे आंदोलन उठे और बुलबुलों की तरह शांत हो गए.

इस बीच सिनेमा में बहुत से निर्देशकों ने मराठी कहानियों और उपन्यासों को अपनी फिल्मों का आधार बनाया. श्याम बेनेगल ने हंसा वाडकर की रचना पर ‘भूमिका’, गोविंद निहलानी ने जयवंत दलवी की कहानी पर ‘अर्ध सत्य’ और रवींद्र धर्मराज ने एसडी पानवलकर की कहानी पर ‘चक्र’ जैसी फिल्में बनाई जो बेहद चर्चित और सफल रहीं.
हालांकि श्याम बेनेगल ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ से एक बार फिर हिंदी साहित्य की तरफ मुड़े. गोविंद निहलानी ने भी भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ पर एक टीवी सिरीज़ बनाई जिसे बाद में संपादित करके फिल्म का रूप दिया गया. ‘तमस’ एमएस सथ्यू की ‘गर्म हवा’ के बाद भारत विभाजन बनी सबसे सशक्त फिल्म कही जा सकती है.

इसी तरह से केतन मेहता ने गुजराती साहित्य को आधार बनाया, चुनीलाल मडिया की कहानी पर आधारित उनकी फिल्म ‘मिर्च मसाला’ बेहद सफल रही और इसी के साथ समांतर सिनेमा आंदोलन का पटाक्षेप होता भी दिखा. वहीं दूसरी तरफ टेलीविजन साहित्य की तरफ मुड़ता दिख रहा था. दूरदर्शन की इसमें बड़ी भूमिका रही है. हिंदी की साहित्यिक रचनाओं पर आधारित ‘चंद्रकांता’, ‘राग दरबारी’, ‘कब तक पुकारूं’, ‘मुझे चांद चाहिए’, ‘कक्काजी कहिन’, ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’ जैसे धारावाहिक इस दौरान सामने आए और सफल रहे.

लेकिन कुल मिलाकर हिंदी साहित्य सिनेमा के लिए अप्रासंगिक होता चला गया. इस बीच छुटपुट फिल्में आती रहीं, जिसमें संजय सहाय की कहानी पर बनी गौतम घोष की ‘पतंग’, शिवमूर्ति की कहानी पर ‘तिरिया चरित्तर’ और चंद्रप्रकाश द्विवेदी की काशीनाथ सिंह की रचना पर आधारित ‘मोहल्ला अस्सी’ जैसी फिल्मों का नाम लिया जा सकता है.

साहित्यिक रचनाओं पर फिल्में बनाने वाले एक उल्लेखनीय निर्देशक विशाल भारद्वाज सामने आए मगर उन्होंने अपनी अधिकतर फिल्मों का आधार शेक्सपीयर के नाटक या रस्किन बांड की कहानियों और रचनाओं को बनाया. दूसरी तरफ देखते-देखते लोकप्रिय अंगरेजी लेखक चेतन भगत भी फिल्मकारों की पसंद बन गए.

इसी बीच अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज के साथ-साथ फिल्मकारों की एक बिल्कुल नई पीढ़ी सामने आई, जिसने छोटे शहरों, कसबों के जीवन को सिनेमा के पर्दे पर उतारना शुरू किया. सिनेमा पहले के मुकाबले अब ज्यादा यथार्थवादी हुआ है और व्यावसायिक और कलात्मक सिनेमा का विभाजन भी खत्म हुआ है.

हिंदी सिनेमा की इस नई धारा ने बहुत सारे अछूते विषयों को छुआ है. डार्क ह्यूमर ने सिनेमा के पर्दे पर जगह पाई है. ‘लंच बॉक्स’, ‘मसान’, ‘गली गुइयां’, ‘पगलैट’, ‘न्यूटन’, ‘अलीगढ़’, ‘आर्टिकल 15’ जैसी फिल्मों को देखकर यह लगता है कि जिस यथार्थ तक इस दौर का सिनेमा प्रस्तुत कर पा रहा है, हिंदी का कथा साहित्य बहुत पीछे छूट गया है.

बीते एक दशक से हिंदी कथा साहित्य अपनी शर्तों पर कोई पहचान नहीं बना सका, न ही मौजूदा दौर में लिखने वाले अपने परवर्ती लेखकों से कथ्य या प्रस्तुति के मामले में आगे बढ़ते दिख रहे हैं. बेस्ट सेलर की होड़ में कई ठीक-ठाक लेखक भी औसत दर्जे की लोकप्रिय रचनाएं लिखने की कोशिश में लग गए हैं.

इन दिनों खूब किताबें छप रही हैं. बहुत सी कहानियों और उपन्यासों पर वेब सिरीज और फिल्में बनने की चर्चा भी है, लेकिन वहां साहित्य अपनी शर्तों पर मौजूद नहीं है. साहित्य ने तय कर लिया है कि हमें सिनेमा बनना है, सिनेमा साहित्य की बनने की तरफ बढ़ सके ऐसी कोशिशें ख़त्म हो गई हैं. नई धारा का सिनेमा कहीं आगे निकल चुका है.

(हिंदी अकादमी, दिल्ली की पत्रिका में प्रकाशित आलेख का अंश)