वह स्थान जहाँ बहादुर शाह जफ़र दफन होना चाहते थे, अपने आप में एक दिल दहला देने वाली कहानी बयान करता है।
**शायर- बादशाह के नाम से मशहूर,** बहादुर शाह जफ़र को अपने पूर्वजों, जिनमें बहादुर शाह प्रथम (1701-1712), शाह आलम द्वितीय (1759-1806), अकबर शाह द्वितीय (1806-1837) शामिल हैं, के साथ दफनाने की ख्वाहिश थी। ये कब्रें मेहरौली में दरगाह के संगमरमर के परिसर में स्थित हैं, जो खास तौर पर 13वीं सदी के सूफी संत, कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह के बगल में हैं।
**दरअसल, उनकी दिलचस्पी सिर्फ कब्रिस्तान में ही नहीं थी बल्कि खास तौर पर कुतुब काकी के मकबरे से थी।** ये सूफी संत चिश्ती सिलसिले से ताल्लुक रखते थे और बहादुर शाह जफ़र उनके **मुरीद (शिष्य)** थे। उनके बीच गहरे आध्यात्मिक रिश्ते थे और जफ़र, कुतुब काकी के प्रति बेहद श्रद्धा रखते थे।
लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। उन्हें बगावत के बाद निर्वासन झेलना पड़ा और रंगून (अब यांगून) की जेल में बंद कर दिया गया। यहीं पर उन्होंने अपना मशहूर शेर “दो गज ज़मीन” लिखा, जिसमें उन्होंने अपने वतन में दफनाने की अधूरी ख्वाहिश का दर्द बयान किया है।
**शेर कुछ यूँ है:**
कितना है बदनसीब ज़फ़र
दफ्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी
मिल ना सकी कुए यार मे
(“कुए यार” का मतलब है – प्रियजनों की जमीन)
इसलिए, ये वाकई में उपयुक्त समय है कि जफर महल के परिसर में उनके चुने हुए दफन स्थान पर एक उपयुक्त स्मारक बनाया जाए, जो न सिर्फ उनके सम्मान का प्रतीक हो बल्कि उनके दर्द और बेबसी की दास्तान भी सुनाए।