साहित्य

पढ़ाई मत करो शिक्षा लो…By-अरूणिमा सिंह

अरूणिमा सिंह
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मैं एक किसान की बेटी हूँ। मैं जब छोटी थी तबसे लेकर अब तक अपने आस पास बहुत से बदलाव होते देखा है।

उस समय अनाज का मूल्य रुपये की अपेक्षा अधिक होता था या यूं कहें कि अनाज को रुपये से अधिक महत्व दिया जाता था।

घर की रोजमर्रा के वस्तुओं का मूल्य अनाज देकर ही चुकाया जाता था।

पण्डित जी, नाई, धोबी, कुम्हार, गोड़ाइतिन, दर्जी, माली, इत्यादि लोग पीढ़ी दर पीढ़ी अपने पारंपरिक रोजगार को महत्व देते थे और अपनाते थे।

वर्ष भर ये लोग निःशुल्क अपने यजमान के कार्य करते थे और जब फसल तैयार होती थी तब यजमान निर्धारित अनाज देकर उनका मूल्य चुकाता था।

अगर कोई काम नहीं भी किया है तब भी यजमान उनके हिस्से का अनाज खुशी खुशी देता था।

वर्ष भर परिवार की जरूरतों के हिसाब से दलहन, तिलहन, सब्जियां मसाले हर तरह की फसल किसान अपने खेत में पैदा करता था।

एक किसान अपनी मेहनत की फसल से अपने परिवार, हर वर्ग का रोजगार, धर्म कार्यो में भी योगदान, रोजाना न जाने कितने साधु, सन्यासी, भिखमंगे, चूहे, गिलहरी, चिड़िया, कीट, पतंगे, जानवर हर किसी का पोषण करता , उनका पेट भरता और समाज एवं राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेदारी चुपचाप निर्वहन करता है।
खेत में जितना अन्न पैदा होता था उसी हिसाब से घर के खर्च को नियंत्रित कर लिया जाता था । गृहस्वामिनी उसी हिसाब से नियंत्रित रूप से कुशलता से घर चलाती थी किसी भी दशा में गृहस्वामी को घर के अंदर की तंगी का पता नहीं चल पाता था और न ही घर के अन्य सदस्यों को किसी प्रकार की तंगी होने पाती थी। इसलिए गृहस्वामिनी को “अन्नपूर्णा” कहा जाता था।

घर में बाजार से अनाज खरीदकर लाना बुरा माना जाता था। यदि किसी के घर में अनाज की कमी हो गई और खरीदकर लाना पड़ा तो वो चोरी छिपे खरीदकर लाते थे क्योकि यदि किसी को पता चल गया तो लोग कहेंगे बताओ अनाज कम पड़ गया खरीद कर खा रहे हैं। ये बहुत ही बेज्जती वाली बात समझी जाती थी।
आज के समय में तो हर कोई खुलेआम खरीदकर खा रहा है अनाज खरीदना बेज्जती की नही इज्जत की बात हो गई क्योकि आजकल लोग अनाज नही ब्रांड खरीदकर खाते हैं।

लोगो ने अपने पारम्परिक काम छोड़ दिये हैं यजमानी व्यवस्था लगभग खत्म हो चली है।

यजमानी व्यवस्था खत्म होने के नाते लोग अब बाजार की तरफ मुड़ गए हैं। पैसा दिया और कार्य हो गया।
अब पैसो का बोलबाला हो गया है। हर क्षेत्र बाजारवाद से ग्रस्त हो गया है। हर कोई अपना पारम्परिक रोजगार छोड़कर नौकरी करना चाहता है। नौकरी पाने के लिए होड़ मची हुई है। हर जगह जबरदस्त कम्पटीशन हो रहा है।

नौकरी के लिए एक जगह खाली होती है और उसके लिए हजारों की संख्या में दावेदार खड़े हो जाते हैं।
लोग बेरोजगार हैं । बेरोजगारी का जिम्मेदार सरकार को ठहराते हैं।

पढ़े लिखे होने के बावजूद नौकरी न मिलने से नौजवान तनावग्रस्त होकर आत्महत्या कर लेते हैं या फिर गलत राह पर निकल पड़ते हैं।

अब आप सब कहेंगे कि पारंपरिक रोजगार से पेट भरना मुश्किल होने लगा था उतनी कमाई में आज के समय में घर थोड़ी चलता है।

तो जरा अपने आस पास नजर दौड़ाकर देखिये क्या आपके छोड़ देने से आपके पारम्परिक रोजगार खत्म हो गए या उनकी जरूरत खत्म हो गई है???

नही! आज भी सब कुछ वैसे ही है। लेकिन अब सब रोजगार इधर उधर हो गए हैं। उनमें बदलाव आ गया है लेकिन अब भी कुछ खत्म नहीं हुआ है।

उदाहरण के लिए बताती हूँ जैसे — मोची ने जूते बनाने बन्द कर दिए तो क्या लोगो ने जूते पहनने बन्द कर दिया??


नही आज भी लोग जूते पहनते हैं लेकिन जूते बनाने की कम्पनी हो या जूते बेचने की दुकान हो वो मोची की नही है।

आज भी सब कुछ वैसे ही है लेकिन लोग अपने कार्य छोड़कर बाकी सब कुछ करने को तैयार है।

वो चाहते तो अपने पारम्परिक रोजगार को बढ़ावा देकर अपने क्षेत्र में अपना विकास खुद कर सकते थे लेकिन नही ऐसा नहीं हुआ क्योकि उन्होंने पढ़ाई की और एक पढ़ा लिखा व्यक्ति अपनी पैतृक दुकान पर बैठे तो उसके पढ़ने का क्या फायदा??

वो दूसरों की दुकान पर नौकरी कर लेगा लेकिन शिक्षा ग्रहण करके अपने रोजगार को आगे नही बढ़ाएगा।
आज के समय में लोग शिक्षा ग्रहण नही कर रहे हैं पढ़ाई कर रहे हैं।

शिक्षा ग्रहण करते तो सीखते कि अपने आप को या अपने कार्यो को और ज्यादा बेहतर कैसे बनाये??

पढ़ाई करना मतलब बस नौकरी करना है और पैसे कमाने हैं।

खैर अब बस बहुत लिख दिया मेरे हाथ दुखने लगे हैं और पूरा पढ़ते पढ़ते आप लोग भी बोर हो जायेगे इसलिए अब विराम लेती हूं।

अंत में बस इतना ही कहना चाहती हूं कि पढ़ाई मत करो शिक्षा लो।

अरूणिमा सिंह