साहित्य

चन्द्ररूपायनम : आम की मिठास…..

संजय नायक ‘शिल्प’

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चन्द्ररूपायनम (आम की मिठास…..)
नीलम ने विजय से पानी मंगवाया। विजय जो कि न जाने कहाँ खोया हुआ था, नीलम की आवाज से ऐसे उठा जैसे किसी सालों से सोते हुए आदमी के कान के पास एटम बम का धमाका हुआ हो।
उसने पास पड़े जग से एक पानी का गिलास भरा और नीलम की तरफ बढ़ा दिया। नीलम ने धीरे धीरे पानी पिया , पर वो साफ समझ रही थी विजय उसकी और इतने गौर से क्यूँ देख रहा है। हालाँकि विजय की पूछने हिम्मत नहीं हो रही थी, पर मन में वही बात चल रही थी, वो रूपा और चन्द्र के बारे में और बहुत कुछ जानना चाहता था।
एक खामोशी पसरी पड़ी थी, नीलम सामने पड़ी टी टेबल को देख रही थी, उसे वहाँ पर पड़ी फलों की डलिया दिखाई दी, उसमें से कुछ आम बाहर को दिख रहे थे, उन आमों को देखकर उसके चेहरे पर एक मुस्कान तैर गई, और आँखें भर आईं, विजय उसे ही देख रहा था। वो समझ गया था, नीलम को कोई पुरानी बात याद आई है, वो बोला कुछ नहीं, बस इंतजार कर रहा था नीलम उसे अगला किस्सा कब सुनाने वाली है?
“आम खाए हैं न तुमने ?” नीलम ने कहा।
” हाँ खाए हैं न…., बहुत खाये हैं….।” विजय ने इस अजीब सवाल का हकलाते हुये उत्तर दिया।
“कभी पेड़ पर चढ़कर पेड़ से तोड़कर खाए हैं????” नीलम ने फिर पूछा।
“न….नहीं तो कभी नहीं।” विजय ने नकारा।
“रूपा और मैंने खाए हैं……..।” नीलम ने बताया।
“अच्छा!!!! फिर तो इस आम के पीछे भी कोई आम की मिठास वाली मीठी कहानी होगी ? ” विजय ने किसी मंझे हुए जासूस की तरह पूछा ।
नीलम ने उसे कड़ी नजरों से देखा, वो थोड़ा झेंप गया ।
“हाँ, है एक मीठी सी याद , जो तुम अब सुने बिना थोड़े रहने वाले हो।” नीलम ने कहा।
विजय किसी मासूम बच्चे की तरह आँखों में उत्सुकता जताते हुये नीलम को देखने लगा , जैसे कोई बच्चा नानी से परियों की कहानी सुनने को लेकर उत्सुक हो जाता है।
हम ग्यारहवीं में पढ़ रहे थे……
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“सुन मैं आज आम का आचार लेकर आई हूँ।” रूपा ने नीलम से कहा।
“अपने उस बंदर को खिला न कभी, वो तो टिफिन भी छुपकर खाता है, मुझे क्यों धौंस जमा रही है तेरे आम के आचार का ? ” नीलम ने रूपा से चिढ़ते हुए कहा।
“तेरी हर बात में ये बन्दर कहाँ से आ जाता है, तू बन्दर की चमची है क्या ? ” रूपा ने उसी लहजे में जवाब दिया।
“सुन रूपा ! तेरे मामा के यहाँ से इस बार आम नहीं आए क्या ? बड़े मीठे होते हैं उनके यहाँ के आम।” नीलम ने जीभ पर आम का स्वाद महसूस करते हुए कहा।
“अभी तो नहीं आए हैं …..पता है पहले मैं मामा के यहाँ जाती थी तब आम के पेड़ पर चढ़कर आम तोड़कर खाती थी।” रूपा ने बहुत रोमांचित होते हुए कहा।
“अच्छा तुझे पेड़ पर चढ़ना आता है???” नीलम ने विस्मय से पूछा।
“थोड़ा बहुत …..टेढ़े पेड़ पर चढ़ सकती हूँ , पर मामा के यहाँ तो लकड़ी की सीढ़ी है, उसे पेड़ से सटाकर चढ़ जाओ और उतर जाओ, बहुत सिंपल है।” रूपा ने बताया।
“यार ! तू तो बड़ी छुपी रुस्तम निकली, आम के पेड़ पर भी चढ़ जाती है, क्या चीज है तू तो, वाह।”नीलम ने उसकी तारीफ के पुल बाँधे।
“क्या चल रहा है, तुम दोनों में ,कोई खिचड़ी पक रही है क्या?” चन्द्र ने पूछा।
“हाँ पक रही है, एक बन्दर के लिए मूंग की दाल में कंकड़ वाले चावल मिलाकर बनाई जा रही है, जिससे उसके दाँत टूट जायें और वो बिल्कुल भी आगे खिचड़ी न खा सके।” नीलम ने जवाब ईंट की तरह चन्द्र के मुँह पर मारा।
“तुझसे तो बात करना ही बेकार है। तुम बताओ रूपा क्या पक रहा है ? ” चन्द्र ने नीलम से ध्यान हटाकर रूपा की और रुख़ किया।
“तेरा सर पक रहा है , ज्यादा बोलता है ये बन्दर , नीलम सुन उधर बरगद के पेड़ के नीचे तूने जो छड़ी रखी है न , वो लेकर आ जरा बन्दर अपने हाथों पर छड़ी से मेहंदी बनवाना चाहता है।” रूपा ने तो नीलम से भी कड़ा जवाब दिया।
“अरे तुम दोनों तो मरने मारने पर उतारू हो गई हो, मुझे माफ़ करो देवियों मैं तो ये पूछने आया था कि रूपा के मामाजी ने आम भेजे कि नहीं ? बहुत दिन हो गए मीठे आम नहीं खाए ।” चन्द्र कहकर वहाँ से जाने लगा।
“सुन बन्दर ! मामाजी ने तो आम नहीं भिजवाए , तुझे आम की इतनी ही पड़ी है तो तू खिला दे हमें तुझे तो बड़ी नॉलेज है न पेड़ पौधों की।” रूपा ने ताना मारा।
“सुनो ! सच तो यही है कि मैं तुम दोनों को एक आम के पेड़ के बारे में बताने आया था, उस पर बहुत मीठे आम लगे हैं ।तुम दोनों को अगर समय हो और मेरी लीडरशिप में आम खाना चाहती हो तो कल मेरे साथ आम खाने चलो । फ्री के मीठे मीठे आम….. और वो पेड़ केवल मेरी नजर में है।” चन्द्र ने कहा और चल पड़ा।
आम के पेड़ की बात सुनकर नीलम और रूपा उसके पीछे दौड़ी और उसका रास्ता रोक लिया।
“सुन बन्दर ! हमें उस आम के पेड़ से आम खाने हैं।” नीलम ने कहा।
“भुक्खड़ कहीं की !! सुनो अगर आम खाने हैं तो कल महीने का आखिरी शनिवार है, बाल सभा के बाद स्कूल आधे दिन ही लगेगी । छुट्टी के बाद हम सब मेरे खोजे हुए उस पेड़ के पास चलेंगे और वहाँ से मीठे, रसीले, बड़े बड़े खुशबूदार आम खाएंगे ।” ये कहते हुये चन्द्र ने नीलम और रूपा के ख्वाबों में रसीले आम के स्वाद दे दिए।
“सुन चन्द्र के बच्चे ! हम दोनों तेरे साथ चलेंगी, मगर जैसा तू कह रहा है वैसे आम नहीं हुए और किसी ने आकर कोई पंगा कर दिया तो तेरी मरम्मत पक्की है । ज्यादा डींग हाँक कर हमें फँसवा नहीं देना कहीं पर।” रूपा ने उस पर अविश्वास करते हुए कहा।
“अरे चिंता मत करो, उस जगह के बारे में मेरे अलावा कोई न जानता है और आम बहुत स्वादिष्ट हैं अगर यकीन न हो तो अभी तुम्हें सैम्पल दे देता हूँ।” चन्द्र ने कहा और अपने बैग में से दो आम निकाल कर उन दोनों की और बढ़ा दिए।
“ये आम उस पेड़ ने मेरे लिए नीचे गिरा दिए थे । तुम दोनों इन्हें खाओ और याद करना किसी अमीर से पाला पड़ा था, जो ये आम खाने को मिले ” चन्द्र ने शेखी बघारी।
” ओए बन्दर ! ज्यादा हवा में मत उड़ , अभी आम खाकर तय करेंगे कि तू किसी लायक है भी कि नहीं।” रूपा ने कहा। उसने दोनों आम चन्द्र के हाथ से झपट लिए और दोनों खाने लगी।
“चन्द्र सुन न, हमें इस पेड़ से और आम खाने हैं, तू ले चल न कल।”अबकी बार रूपा के लहजे में मिन्नत थी।
“ठीक है, कल हम सब मेरे इस स्पेशल पेड़ के आम खाने चल रहे हैं।” ये कहकर चन्द्र वहां से चला गया।
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चन्द्र आगे आगे चल रहा था, शहर से कोई एक किलोमीटर से आगे जाने के बाद एक हनुमान मंदिर था, उससे नीचे एक ढलान थी, उसके आगे एक देशी कीकर का जंगल फैला हुआ था, जंगल इतना घना था कि उसमें हाथ पांव बचाकर चलना पड़ रहा था, एक छोटी सी असावधानी हाथ पांव पर गहरे खरोंच बना सकती थी, चन्द्र आगे आगे था, वो दोनों पीछे पीछे, कुछ दूरी पर आकर देशी कीकर कम हो गई थी, कुछ मैदान सा था, वहाँ एक आम का पेड़ हजारों सैनिकों के बीच एक सेनापति सा खड़ा था दूर से तो कोई सोच भी न सकता था इतनी घनी किकरों के बीच आम का पेड़ भी हो सकता है।
“सुन रे बन्दर तुझे इसका कैसे पता चला इसके बारे में , कोई सोच भी न सकता यहां आम का पेड़ होगा।” रूपा ने पूछा।
“रूपा, मेरी मौसी यानी सौतेली माँ ने दसवीं पास करने के बाद कह दिया था कि आगे पढ़ना नहीं है, तब मैं एक बड़ी सी रस्सी लेकर इधर आया था ताकि फाँसी लगाकर मर जाऊँ, यहाँ कोई नहीं आता, मैं यहाँ आया मैंने फंदा बनाया और इस पेड़ पर लटकाने वाला था कि किसी ने मुझे पीछे से कसकर पकड़ लिया, मेरी बहन थी वो , उसने मुझे अपनी कसम दी और कहा कि अगर मेरे बड़े भाई हो तो कभी अपनी बहन को अकेला छोड़कर मत जाना, वो बहुत रोई, मैंने वो रस्सी यहीं फेंक दी और उसके साथ घर चला गया, उसके बाद मैं यहां अक्सर आता हूँ, ये आम मुझे बहुत मीठे फल देता है।” चन्द्र ने बताया।
अब रूपा और नीलम की आँखें भीगी हुई थी।
“ए पागल , मैं अब पढ़ भी रहा हूँ, और मरा भी नहीं हूं, तुम दोनों आम खाने का जुगाड़ करो, मुझे तो पेड़ पर चढ़ना नहीं आता।” चन्द्र ने कहा।
“कुछ छोटे छोटे पत्थर लेकर आती हूँ, हम आम पर पत्थर मार कर तोड़ लेंगे।” ये कहकर नीलम इधर उधर से कुछ पत्थर बीनने लगी।
उन तीनों ने पत्थरों से आमों पर निशाना लगाया मगर एक भी आम न टूटा।
तीनों ही थक गए थे। “रूपा तुझे पेड़ पर चढ़ना आता है न, चल तू पेड़ पर चढ़कर आम तोड़।” नीलम ने कहा।
रूपा ने बड़ाई के मारे हाँ कह दिया, वो पेड़ पर चढ़ गई,वो चढ़ी तो यूँ जैसे कोई प्रशिक्षित आदमी पेड़ पर चढ़ता हो, और आम तोड़कर नीचे फेंकने लगी, उसने कोई बीसियों आम तोड़ कर फेंक डाले।
“बस रूपा अब नीचे आ जा बहुत हो गये, हम लेट भी हो रहे हैं, आम भी खूब हो गए, घर समय पर न पहुंचे तो क्या जवाब देंगे।” नीलम ने कहा।
नीलम की बात सुनकर, रूपा रूकी, उसने नीचे देखा, और नीचे देखते ही जोर जोर से रोने लगी, “नीलम मुझे डर लग रहा है, मैं नीचे नहीं उतर सकती, चन्द्र मुझे बचा ले मैं गिरकर मर जाऊंगी।” रूपा की ये बात सुनते ही चन्द्र वहाँ से भाग खड़ा हुआ।
“ए कुत्ते , बन्दर मेरी रूपा को छोड़कर कहाँ भाग रहा है, वापस आ न, वापस आ कमीने।” नीलम भी ये कहकर रोने लगी।
रूपा को लगा कि चन्द्र उनको फंसाकर वहां से भाग निकला है। रूपा जोर जोर से रोने लगी। रूपा को चन्द्र बहुत बुरा लग रहा था, उन्हें वहाँ फंसाकर वहां से भाग गया था, उसे केवल मौत दिखाई दे रही थी, उसने कभी न सोचा था चन्द्र यूँ उसे अधर में लटकाकर भाग जाएगा।
कोई दो मिनीट बाद चन्द्र वापस लौटा। उसके पास एक रस्सी थी जिसके एक छोर पर फाँसी का फंदा बना हुआ था।
चन्द्र ने वो रस्सी रूपा की और उछाली, “रूपा जो फंदा बना है, उसको अपनी कमर के गिर्द लपेटकर, फंदे को कस लो।” चन्द्र ने कहा।
“नीलम अपना बैग दे।” चन्द्र ने नीलम से कहा।
नीलम ने वैसा ही किया। चन्द्र ने बैग को आगे की और लटकाया, फिर अपना बैग पीछे लटका लिया, ऊपर रूपा अभी भी सुबक रही थी।
“रूपा फंदा कस लो कमर में।” चन्द्र ने कहा और रस्सी के दूसरे छोर पर एक फंदा बनाकर अपनी कमर में लपेट लिया।
“रूपा इस रस्सी को पेड़ की शाख के ऊपर से लेते हुये, नीचे लटको, एक सिरे को मैंने बांध लिया है जैसे जैसे मैं ऊपर जाऊंगा तुम नीचे आती जाओगी, डरना नहीं है बस, तुम ऐसे ही नीचे आ पाओगी, मुझ पर विश्वास रखो कुछ न होने दूँगा।” चन्द्र ने चिल्लाकर रूपा से कहा।
“गधे कहीँ के… मैं कैसे उतरूंगी, तू सिंकड़ी पहलवान है और मैं मोटी हूँ बहुत, वैट बराबर कैसे होगा, बीच में लटक जाएंगे।” रूपा ने डरते हुए और झल्लाते हुए कहा।
“अरे तुम्हें जैसा कहा जाए वैसा करो, मुझ पर छोड़ दो सब , बस तुम लटको।” चन्द्र ने कहा।
रूपा ने उसके कहे अनुसार किया, जैसे ही रूपा नीचे की और आई चन्द्र ऊपर को हवा में उठ गया, जैसे ही वो एक दूसरे के बराबर आये दोनों का वजन समान होने के कारण दोनों अधर में झूल गए, चन्द्र ने अपने कंधे पर लटका बैग रूपा को थमा दिया, नीलम का बैग दोनों के बीच में था जिससे वो एक दूसरे से सटे नहीं, चन्द्र ने जान बूझकर ऐसा किया था। चन्द्र का बैग पकड़ते ही रूपा भारी हो गई, और नीचे की तरफ आई, इधर रूपा जमीन पर आई उधर चन्द्र का सर जाकर उस शाख से टकराया, उसके मुहँ से ‘हाय राम’ निकला,रूपा ने जहाँ राहत की साँस ली, नीलम का हँसी का फव्वारा छूट पड़ा।उसने रूपा को गले से लगा लिया।
चन्द्र ने उस शाख से रस्सी बांधी और बन्दर की तरह लटककर नीचे आ गया। “लाओ मेरे हिस्से के आम दो।” चन्द्र ने सर मसलते हुए कहा।
“तेरा कैसा हिस्सा???? रिस्क तो मैंने और नीलम ने उठाई है, तूने तो यहाँ लाकर हमें फँसा दिया, तुझे तो सजा मिलनी चाहिए, वैसे भी ये आम का पेड़ तो तेरी खोज है ही जब मर्जी आम खा लेना।” रूपा ने कहा।
“इतना जुल्म न कर रूपा, बेचारे बन्दर का माथा फूट गया है, कुछ तो रहम खा इस पर दे दे इस बन्दर को भी एक आम, ये भी क्या याद रखेगा, किन्ही अमीरजादियों से पाला है।” नीलम ने एक आम चन्द्र को देते हुए आखिर अपनी दरियादिली दिखा ही दी।
“चल अब इस जंगल से बाहर निकाल, जंगली कहीं का, बन्दर।” रूपा ने कहा। चन्द्र उनके आगे आगे हो लिया। “चन्द्र सुन तो।” रूपा ने कहा।
“बोलो रूपा।” चन्द्र ने जवाब दिया।
“आज के बाद मौसी कुछ भी कह ले, तुझे मेरी कसम है ऐसे मरने के उल जुलूल विचार मन में लाया तो, तुझे मैंने अपनी कसम दी है, देख ले कसम तोड़ी तो मैं मर जाऊंगी।”रूपा ने बड़े प्रेम से कहा।
“रूपा तू पूरी पागल है, पर मैं जीते जी तुम्हारी कसम नहीं तोडूंगा, ये वादा है मेरा तुमसे।”चन्द्र ने वादा कर दिया।
“अब ये राम कहानी खत्म हो गई है तो घर के लिए जल्दी कदम बढ़ा लो, स्कूल टाइम खत्म होने का समय हो चला है।” नीलम ने उन्हें याद दिलाते हुए कहा।
“सुन, नीलम सड़क तक पहुंचने से पहले एक एक आम खा लें, बहुत रसीले लग रहे हैं।” रूपा ने कहा।
“तूने तो मेरे मुहँ की बात छीन ली, एक आम इस बन्दर को भी दे दे।” नीलम ने कहा।
तीनों ने एक एक आम खाया।
“वाहः क्या मिठास है इनमें कसम से मजा आ गया।” कहते हुए रूपा ने अपनी पानी की बोतल से हाथ धो लिए।
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रूपा ने कमरे में आकर देखा तो उसके मोबाइल पर नीलम की बहुत सी मिस्ड कॉल थीं। रूपा ने उसे फोन लगाया। “हैल्लो, कहाँ व्यस्त थी अफसर साहिबा, कितने फोन लगाए , एक बार भी न उठाया।” नीलम ने कहा।
“यार सुनेगी तो मजा आ जायेगा, कहाँ व्यस्त थी।” रूपा ने कहा।
“बता न जल्दी, जरूर कुछ स्पेशल बात ही होगी।” नीलम ने उत्साह से पूछा।
“यार मेरे नये सरकारी आवास में एक आम का बड़ा सा पेड़ लगा है, और बहुत बड़े मीठे आम लगे हैं, अभी अभी सीढ़ी लगवाकर पेड़ से आम तोड़कर लाई हूँ, तू जब फोन कर रही थी मैं आम के पेड़ पर ही चढ़ी हुई थी।”रूपा ने रोमांचित होते हुए कहा।
“एक बात कहूँ रूपा, जैसे मीठे आम उस बन्दर ने खिलाये थे वैसे मीठे आम फिर कभी न खाये, और तू उस दिन उस पेड़ पर अटक गई थी, और वो टार्ज़न बनकर तुम्हें पेड़ से उतार लाया था, कितना मजा आया था न।” नीलम ने कहा।
दोनों ठहाका मारकर हँसी, फिर रूपा की आँखें नम हो गई, उसने भर्राये गले से कहा,”नीलम चन्द्र की हर बात निराली थी यार, हम उसे इतना सताते थे, पर उसने कभी चूँ भी न कि, मैं चन्द्र को पल पल याद करती हूँ, अधूरी हूँ उस बिन।”
“माँ आ गई रूपा, मैं फोन रख रही हूँ।” कहकर नीलम ने फोन काट दिया, और आँखें पोंछ ली।
रूपा समझ गई थी , नीलम की माँ नहीं आई थी, बस वो चन्द्र के मैटर को वहीँ खत्म करना चाहती थी, ताकि उसे और दुख न हो। “नीलम तू मेरी सच्ची सहेली है, तू और चन्द्र मेरी जिंदगी के सबसे सुखद पल हो।” सोचते हुए रूपा ने अपने तोड़े हुए आमों में से एक आम उठाकर, चन्द्र के हिस्से के नाम पर अलग रख दिया।
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“विजय पता है, रूपा जब भी आम लाती थी, उसमें से एक आम हमेशा चन्द्र के हिस्से का अलग रख देती थी, फिर उसे किसी मंदिर में रख आती थी, मेरे चन्द्र और रूपा जैसे इस दुनिया में कोई नहीं थे, बस छोड़ गए मुझे अपनी यादों के साथ।” कहते हुए नीलम की रूलाई फूट पड़ी। विजय ने उसे अपने सीने में भर लिया। उसकी नजरें अभी भी टी टेबल पर पड़े आमों पर थी, जैसे उसे वो सीन दिखा रहे हों जब रूपा आम तोड़ने के चक्कर में पेड़ पर चढ़ गई थी।
(पूरी कहानी मेरी वॉल पर पहले से पोस्ट है)
संजय नायक”शिल्प”