साहित्य

‘ये लड़की अधिक खूबसूरत है, लेकिन…’…By-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल

द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
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ज्योति टाकीज में उस शाम फर्स्ट शो में बहुत भीड़ थी. उस भीड़ में से अचानक एक हाथ उठा. अनोखेलाल उसी ओर बढ़े. उनके मित्र टिकट लेकर खड़े थे, साथ में एक कन्या थी. अनोखेलाल ने कृपा से उनका परिचय कराया, ‘इनसे मिलो, ये मेरे सहपाठी हैं, बालमुकुन्द दुबे, विद्युत विभाग में हैं.’ कृपा ने उन्हें हाथ जोड़कर नमस्ते कहा. उसके बाद अनोखेलाल ने बालमुकुन्द से पूछा, ‘ये बिटिया कौन है?’

‘मेरी बेटी रत्ना है.’ बालमुकुन्द ने बताया.
‘अच्छा-अच्छा, पढ़ती हो तुम?’
‘बारहवीं में हूँ.’ लड़की बोली.

‘चलो, ज़ल्दी करो, लगता है, पिक्चर शुरू हो गयी है.’ अनोखेलाल बोले और सब सिनेमा हाल में घुस गए. फिल्म ख़त्म होने के बाद बालमुकुन्द अपनी बेटी के साथ घर लौट गए.

‘चलो, आज ‘दिगंबर लाज’ में खाना खाएँगे.’ अनोखेलाल ने कृपा से कहा.

‘जी.’
‘पिक्चर कैसी लगी?’
‘अच्छी थी.’
‘रत्ना कैसी लगी.’
‘अच्छी थी.’
‘इससे शादी करोगे?’

‘कक्का जी, मैं आपसे कितनी बार कहूं कि शादी मैं उससे करूंगा जिससे प्यार करता हूँ.’
‘ठीक है, उसी से करना. कौन मना करता है? लेकिन ईमानदारी से बताना कि तेरी प्रेमिका के मुकाबले ये लड़की कैसी है?’

‘ये लड़की अधिक खूबसूरत है, लेकिन…’

‘मैं तेरे दिल की बात समझता हूँ कि तुमने उससे प्यार किया है, उसे शादी का वचन दिया है.’
‘आप सही बोल रहे हैं.’ कृपा ने कहा. इतने में दिगंबर लाज आ गया. दोनों कोने की एक टेबल में बैठ गये. खाने का आर्डर दिया. अनोखेलाल ने बातचीत का छोर फिर पकड़ा, ‘तुम अपनी प्रेमिका से शादी करना चाहते हो, प्रेमविवाह, है न?’

‘हाँ कक्का जी.’
‘तुमको यह मालूम है कि प्रेम अलग बात होती है और विवाह अलग?’
‘क्यों जिससे प्रेम करते हैं, क्या उससे विवाह करना क्या गलत है?’

‘मैंने यह तो नहीं कहा.’
‘तो आप मुझे बहका क्यों रहे हो?’

‘बात को समझो बच्चू. जिससे प्यार हो उससे विवाह करने में समझदारी नहीं है क्योंकि प्यार में जिस मधुर जीवन की कल्पना की जाती है, वह गृहस्थी की झंझट में जल्दी ही भसक जाती है.’

‘सच्चा प्यार होगा, तब भी?’
‘हाँ, तब भी. प्यार क्षणिक आवेग है जबकि विवाह लम्बे समय तक चलने वाला साथ होता है इसलिए प्यार किसी से भी हो सकता है लेकिन विवाह किसी से भी नहीं किया जाता, बहुत सोच-समझकर निर्णय लेना चाहिए.’

‘आपकी बात मुझे जम रही है लेकिन सच में, मैं उसके बिना नहीं जी सकता.’
‘मैं तुम्हारा दुःख समझता हूँ. एक बात बताओ, ‘मेरा नाम जोकर’ देखे थे?’
‘हां, देखा था.’

‘स्कूल की टीचर झाड़ी के पीछे खड़ी होकर कपड़े बदलती है, वह दृश्य तुमको याद है?’
‘हाँ, याद है.’

‘और वह दृश्य याद है जब रूसी हीरोइन अपने देश वापस जाने से पहले राजू से मिलने उसके घर जाती है?’
‘याद है.’

‘वो राजू से क्या कहती है?’
‘वो तो याद नहीं.’

‘तुम छोकरों में यही खराबी है कि औरत के कपड़े के भीतर झांकते हो, उसके दिमाग के अन्दर नहीं झांकते. मैं याद दिलाता हूँ, उसने राजू से कहा था, “मिलना बिछुड़ना और बिछुड़ना मिलना, यही ज़िन्दगी है”, याद आया?’

‘कुछ-कुछ याद आया.’

‘उसके जाने के बाद क्या राजू ने अपने जीवन ख़त्म कर लिया? नहीं न? उसने नयी ज़िन्दगी शुरू की. इस जीवन में जो भी हमसे मिलता है वह ट्रेन में सफ़र करने वाले यात्री की तरह है. उसका स्टेशन आएगा, वह तुम्हें छोड़कर उतर जाएगा; तुम्हारा स्टेशन आ जाएगा, तुम उसे छोड़कर उतर जाओगे.’ कक्का जी ने उसे जीवन की रीत समझाई.

कृपाशंकर ने उसके बाद कोई प्रश्न नहीं किया और चुपचाप भोजन करता रहा. अनोखेलाल ने भी चुप्पी साध ली. भोजन के बाद कक्का ने भतीजे को उसके घर छोड़ा और अपने घर चले गए.

आप सही समझे हैं, मिट्ठू को ताज़ी हरी मिर्च दिखी तो उसका व्रत भंग हो गया और उसने लपक कर दूसरी मिर्च खा ली.
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