साहित्य

ग़ज़ल : सर्द रातों के ये दुशाले से…हैं भरे बर्फ़ के पियाले से…By-कुसुम शर्मा अंतरा

Kusum Sharma Antra 

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ग़ज़ल
खोना हूं कुछ पाना हूं
मैं भी इक मयख़ाना हूं
मुझ में वक्त का दरिया है
सिर्फ़ मैं आना जाना हूं
दुनिया ने ठुकराया है
मैं सदियों का ताना हूं
हूं बेशक गुलकंद सी पर
नफ़रत का पैमाना हूं
मुझ को समझ न पाओगे
मैं तो इक अफ़साना हूं
तंज सभी सह जाती हूं
दर्द का मैं तयख़ाना हूं
सूरत-सीरत पर न जाना
मैं लहज़ा बचकाना हूं
कुसुम शर्मा अंतरा
उधमपुर
जम्मू कश्मीर

Kusum Sharma Antra
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ग़ज़ल
सर्द रातों के ये दुशाले से
हैं भरे बर्फ़ के पियाले से
चांदनी भी है ओढ़ कर निकली
कितने सपनों भरे उजाले से
आप किसकी तरफ़ हो कह भी दो
हम तो हैं आपके हवाले से
धूल यादों को कर चुकी धुंधला
वक्त के लग रहे हैं जाले से
तल्खियों का मिज़ाज ऐसा है
दर्द के उठ रहे हैं नाले से
शोर-ओ-गुल ज़िंदगी का है इतना
फिर भी होटों पे कुछ हैं ताले से
कुसुम शर्मा अंतरा
जम्मू कश्मीर