साहित्य

दलिदरी की बहादुरी…

दलिदरी की बहादुरी
क्यों रे दलिदरी, कुट्ट्सबाजी ज़्यादे किसने की तेरे साथ, नेता जी के पहलवानों ने या पुलिस वालों ने, बाँवले मंदिर में भिड़ा तो भिड़ा क्यों तू, सुना तेरी लुगाई के भी थप्पड़ लगे, अबै क्या नसे में था तू, बीवी बच्चों के साथ था तो पंगा लिया ही क्यों, सुनी दरोगा पसीज गया तेरी दलील सुन के, अबै ऐसा क्या कह आया, क्या कर के आया तू, दो दिन से गायब, गुम-सुम, न कच्ची को पूछे ना चिलम की हुड़क, अबै कौन सी बड़ी लकड़ी उठा लाया तू, तुम कुछ भी कहो सनम भइया, चाहे मार अपने हिस्से ज़्यादा आई, लेकिन लात घूँसे तो हमने भी कम नहीं चलाए, सच कहूँ भाई तो आज दिल की पूरी हो गई, अगर आज चुप रह जाते तो ख़ुद से नज़र मिलाने लायक नहीं रहते हम, तुम होते तो तुम भी हाथ छोड़ देते, अरे बूढी माई बेहोश हो गई यार, वहाँ लाइन के धक्के खाते,हमारा सब्र का बाँध टूट गया, तब हमनें आवाज़ उठाई, आवाज़ उठाई तो बहस हो गई, मेरे थप्पड़ मार दिया, फिर जो उनके मैं चिपटा, के भइया पाँच आदमी लगे मुझसे जान छुड़ाने को, बड़े आए “वी आई पी” स्साले, तुम्हीं कहो सनम भइया, भगवान् के मंदिर में कौन वी आई पी और कौन गला कंबल, सर्दी-गर्मी हो या बरसात, दो-दो घंटे, लंबी लाइन में सब खड़े, खड़े क्या एक दुसरे पे चढ़े, किसी का पाँव कुचला जा रहा, किसी के मतली आ रही, किसी का बच्चा बिलख रहा और किसी की अम्माँ का सांस फूल रहा, मगर सब के सब जमे पड़े एक ही जगह, धीरे-धीरे खिसकते-खिसकते, एक-आधे मिनट मूर्ती के सामने मत्था टेकने का मौका आ ही जाए, सबके मन में गाली मगर सबकी ज़ुबान पर एक ही बात की आज भीड़ कुछ ज़्यादा ही है,
भीड़ बोलें, मतलब खुद को ही भीड़ बता रहे, मतलब तुम्हारे लिये मैं और मेरे लिये तुम भीड़, मतलब हम सब बस भीड़ और कुछ नहीं, कभी मंदिर की,कभी बाज़ार की और कभी सरकारी भरतार की, बस भीड़, और भीड़ क्यों कहें हमें, हमें तो भेड़ कहना चाहिय। की जिसका ना अपनी चाल पे ना बाल पे और ना अपनी खाल पे कोई हक ना हक का दावा, सब न्यौछावर, और किसपे न्यौछावर, के भइया तुम तो श्रद्धालु हो, तुम पे बड़ा धैर्य, तुम झेल सको, तुम में शक्ति है झेलने की, और हमारी छाती फूल के कुप्पा, की हम ही लगा रहे नइया पार, तो लगे रहो भइया लाइन में और वे कौन, वे कौन जो धड़धड़ाते आते हैं, बड़ी-बड़ी गाड़ियों में, बड़े-बड़े थाल लिये, अगल-बगल मंदिर का सारा बवाल लिये,दर्शन,प्रशादी सब सुलभ, सब पर पहला हक इनका, ना इन्हें लाइन की कोई फ़िक्र ना कोई राहु ना शुक्र, अबै भगवान् के घर पैसे का नंगा नाच, की टिकट खरीदो और पा लो भगवान् को जल्दी-जल्दी, फिर तसल्ली से पूजा करो, सेल्फी खींचो, और जितना हिस्सा लाइन वालों का भींचना है भींचो, के भइया व्यस्त लोग हैं, इन्हें जल्दी है, ये इंतज़ार नहीं कर सकते, क्यों, क्योंकि ये डी एम्, वो मंत्री, और वो फिल्म वाले कलाकार, तो इंतज़ार तो ना होगा इनसे, इन्हें और पचास ज़रूरी काम, अबै इतने व्यस्त चल रहे, तो मंदिर आए क्यों, और आए तो अब यहाँ भी बेईमानी, कोई शर्म नहीं इनके चेहरे पर, कोई लाज नहीं, और ऊपर से ऐसा तपस्वी वाला भाव, की भागीरथी भी पानी भरें इनके आगे, की अब भगवान् और शमशान को ये ही देंगे गंगा जितनी इन्हें ठीक लगेगी बस उतनी, सब स्साले नौटंकी, वी आई पी बोलो वो भी भगवान् के घर में, सनम भइया कसम से, जो किसी बूढी अम्माँ,अपाहिज या बच्चे वाली माई को पहले जाने दें, तो बने मर्यादा, और तो बने राम का राज, तो खिलें लव -कुश और तो ही सजे कोई भी धाम, तुम्हीं कहो जो कोई गलत बात कही हो हमने, कब तक सब्र बांधें, कब तक ना-इंसाफ़ी देखें, छोटे आदमी तो छोटे सही, जितनी औकात उतनी तो लड़ाई लड़ेंगे भइया, हमें पता है, दिल में सबके चुभती है ये बात, लेकिन दुःख ये है कोई बोलता नहीं, मार पड़ी तो क्या, फिर ऐसा हुआ तो फिर लड़ेंगे, और तुम भी साथ चलियो अबकी बार,कसम तुम्हें हमारी, वह रे दलिदरी शाबाश, नाज़ सा होने लगा तुझ पर, जो भइया चुप रह जाता तो सच में सो ना पाता तो कई रात, आज कच्ची और चिलम मेरी तरफ से, ये दिखाई कुछ दलिदरी ने बहादुरी

– अघोरी राहुल

लेखक के निजी विचार हैं, तीसरी जंग हिंदी का कोई सरोकार नहीं है