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महरौली के बाद, लाल पत्थरों के की ये छोटी सी इमारत, दिल्ली की दूसरी ख़ास इमारत है!

Danish Khan

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महरौली के बाद, लाल पत्थरों के की ये छोटी सी इमारत, दिल्ली की दूसरी खास इमारत है।।

जो इतिहास की धारा मोड़ चुकी है।शेर मण्डल कहते है इसे, दिल्ली के पुराने किले में खड़ी है।

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तब दिल्ली पर लोधियों का परचम था।
लोधियों की सल्तनत, झगड़ों में उलझी थी। तो निपटान करने को, लाहौर के गवर्नर दौलत खान ने दूर देश के छोकरे बाबर को हमले के लिए उकसाया।
जादूगर बाबर!!!

हिंदुकुश के पार, फरगाना का कम उम्र में यतीम हो चुका ये लड़का; किस तरह अपनो से जूझता है, दुश्मनों से जूझता है,

और हजारो मील पहाड़ों के पार जाकर एक साम्राज्य रचता है। बाबर की जिंदगी, मानवीय जिजीविषा की अमर कहानी है।

ये ब्रिलिएंट कमांडर, अपने से चौगुनी सेना को पानीपत में हराकर, उत्तर भारत को 4 साल झँझवात की तरह हिलाकर, एकाएक शांत हो जाता है।

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कुछ लोग उसे अयोध्या की बाबरी मस्जिद के लिए याद करते हैं। बेचारा कभी जीवन में अयोध्या गया नही।

बहरहाल हुमायूं तख्त पर आया। सत्ता की सीट बनी- दिल्ली का पुराना किला, जिसे छठवीं दिल्ली कह सकते है।

पर शायद पहली दिल्ली कही जानी चाहिए। खोदखाद में यहां मृदभांड, और हड्डियां मिली हैं, जो कुछ हजार साल पुरानी है। शायद यही पांडवों का इंद्रप्रस्थ हो।

तो पुरानी दीवारो पर नया किला बना। पत्थरो को दूर अरावली से काटकर कौन लाये। महरौली, लालकोट, सिरी के पुराने भवनों के पत्थर उखाड़कर उन्ही से नए भवन बने।

नई दिल्लीयां, हमेशा, पुरानी दिल्लीयो के पत्थर उखाड़कर बनी है।

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पर बाबर की मौत से उत्साहित अफगान फिर संगठित हो रहे थे। इस बार शेरखान के बैनर तले..

बक्सर के पास चौसा में 26 जून 1539 को हुमायूं की मुकम्मल हार हुई। वो भागा, कि सीधे काबुल जाकर शरणार्थी हो गया।

शेरखान, शेरशाह सूरी हुआ। 10 सालों तक नेहरू को रोने वाले, शेरशाह सूरी से यह सीख सकते है कि महज 5 साल में इतिहास पर छाप कैसे छोड़ी जाए।

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ग्रांड ट्रंक रोड और भारत की मुद्रा- रुपया चलाने वाला शेरशाह, कालिंजर जीतने की कोशिश में 5 साल बाद मारा गया।

हुमायूं को अवसर दिखा।
वो लौटा, और बिखरे अफगानों को हराकर फिर से अपनी सल्तनत कायम की।

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शेरशाह ने उसके किले को मजबूत बनाया, बढाया था। पहाड़ी की सबसे ऊंची जगह पर शायद ये कोई ऑब्जर्वेशन पॉइंट बनाया गया होगा।

हुमायूं ने रिनोवेट कर, शेर मण्डल को अपनी लाइब्रेरी बनाई। जी हां, लाइब्रेरी..
हमारे 2000 साल के इतिहास में किसी राजा या सुल्तान की पर्सनल लायब्रेरी का जिक्र मैं सिर्फ यहीं देख पाता हूँ।

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20 जनवरी 1556 की शाम वह शेरमण्डल की छत से नजारा ले रहा था। फ़िर वापस जाने को मुड़ा। सीढ़ियों पर कदम रखे ही थे, कि अजान की आवाज आई।
छत पर वापस जाने के लिए उसने मुड़ने की कोशिश की, सन्तुलन बिगड़ा। बादशाह सीढ़ियों पर कई कई टप्पे खाते, नीचे आ गिरा।

अचेत होती आँखों का आखरी नजारा इस शेर मण्डल का गुम्बज था। कानो में अजान गूंज रही होगी ।

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अकबर पंजाब के कलानौर में था, जब बाप की मौत की खबर मिली।
सल्तनत कोई मजबूत तो थी नही। इससे पहले कि दूसरे सरदार गद्दी पर दावा करें, दुश्मन हावी हो जायें, बैरम खां ने वहीं एक खेत मे आनन फानन में राज्याभिषेक करवाया।

मगर खबर तो फैल चुकी थी। शेरशाह का सिपहसालार रहा हेमू, दिल्ली पर चढ़ गया। किला जीत लिया और हेमचंद्र विक्रमादित्य के नाम से राज्याभिषेक कराया।

और फ़िर राजा साहब, पानीपत के मैदान में हुमायूं के बेटे का सामना करने निकल पड़े। उनका पहला हाथ ही मुगलो पर भारी पड़ा, हार सामने थी।
मुगलिया सूरज डूबने को था।

पर एक गलती भारी पड़ गयी। हाथी पर चढ़ा हुआ हेमू, किसी भी तीरंदाज के लिए आसान शिकार था।
तो वही हुआ,जो होना था।

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लड़ाई जीतकर अकबर ने सल्तनत को नया मयार दिया, नई राजधानी दी -आगरा

नए मायने भी दिये।

पहली बार कोई इस्लामी बादशाह खुद को हिंदुस्तानी बनाने में जुट गया। उसका साथ राजपूतों ने दिया,अफगानों, तुर्कियो, ममलूको ने दिया।

देश उसकी छतरी तले एक होने लगा। सुलहकुल और इबादतखाने में दो दुश्मन रही कौमे, बैठकर बातचीत करने लगी।

मुगलिया सल्तनत का सूरज, अब अगले 100 साल आगरा से उगता रहा।

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शाहजहां ने लाल किला बनवाया, लेकिन दिल्ली उसका दूसरा आवास था, पहला नही। आखरी पल तो उसने ताज को निहारते ही गुजारे।

दिल्ली का वजन लौटा औरँगेजेब के दौर में, और रंगीनियत की वापसी लिए मोहम्मदशाह रंगीला का इंतज़ार करना पड़ा।
मुगलिया सूरज अब अस्ताचलगामी था।

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रंगीनियत से दूर, ये पुराना किला, महज छावनी बनकर रह गया। और रह गया शेर मण्डल, जो इस किले में चमत्कारी रूप से, पूर्णतः संरक्षित अकेली इमारत है।

सोचता हूँ, कि इसकी सीढ़ियों से हुमायूं गिरा न होता, तो हेमू का सामना वही करता।

जाने तब इतिहास की धारा क्या होती।

– Reborn Manish