साहित्य

मुझे इमरोज़ नहीं होना…..By-संजय नायक “शिल्प”

संजय नायक ‘शिल्प’
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मुझे इमरोज नहीं होना…..
इस दुरूह समय में, जो मेरा इस वक़्त चल रहा है, जहाँ हादसों और बीमारियों का साथ मुझे मिला है…ये मेरे चीजें मेरे लिए नई तो नहीं हैं।

खैर तुम्हें ये जानकर हैरानी होगी, जहाँ मैं रह रहा हूँ, मेरी बालकनी के ठीक सामने खुला आसमान दिखाई देता है। दिखाई देते हैं जलते बुझते सितारे और उन करोड़ों सितारों के साथ मे, मैं अकेला कभी अँधेरे आसमान को ताकता रहता हूँ, तो कभी दिन के उजाले में नीला आसमान बीसियों कपासी बादलों को अपने दामन में समेटे हुए दिखाई देता है।

अक्सर मैं आधी रात को इस बालकनी में आ खड़ा होता हूँ करोड़ों सितारों में एक तन्हा चाँद अक्सर घटता बढ़ता दिखता रहता है। कभी मैं चाँद को देखता हूँ कभी सामने खड़े सेमल के पेड़ को तकता रहता हूँ।
दिन में इस बालकनी से दो रास्ते दिखाई देते हैं, एक जो मेरे शहर की ओर जाता है, और फिर मेरे शहर को पीछे छोड़कर तुम्हारे शहर की ओर…दूसरा रास्ता कहाँ तक जाता है, न मैंने जानने की कोशिश की है न मुझे इससे कोई इत्तेफाक है।

ज़्यादा सामान नहीं लाया हूँ मैं, कुछ ज़रूरी सामान के अलावा कुछ पुराने कपड़े और शुगर नापने की मशीन लाया हूँ । एक चीज और है मेरे पास , जो पहली मुलाकात में दी थी तुमने, एक किताब, “कागज़ और कैनवास”।

मैं अक्सर सुबह चाय की चुस्कियों के साथ इसमें से कोई कविता पढ़ लिया करता हूँ। मैं अमृता के बारे में तो ज़रा जानता था पर इमरोज़ के बारे में तुमने ही बताया था। हालांकि मैं कभी इमरोज़ बनना पसन्द नहीं करता… पर ये किरदार, ये आदमी ये शख्सियत मुझे हमेशा अपनी ओर खींचती थी। पर मैं हमेशा सर झटक कर उसे अपनी दिमागदानी से बाहर धकेल देना चाहता था।

कोई साहिर जो बचपन से दर्द में भरा था, कोई अमृता जो अनेकों प्रेम के लिये जानी जाती रही , कोई इमरोज़ जो बस अमृता अमृता करता रहता था…अगर मैं आज के ज़माने की बजाय 100 साल बाद पैदा हुआ होता तो केवल इसे कल्पित कल्पनाओं के अलावा कुछ न समझता । पर ये सब मेरे समकालीन घट रहा है तो मैं इसके होने से कैसे इनकार कर सकता हूँ?

जब सुना इमरोज़ नहीं रहा , तो लगा अंदर कोई मर गया है। कौन मरा मैं या मेरे अंदर का ‘ इमरोज़ ‘ ये तो कोई बहुत ज्ञानी गुणी इंसान ही बता सकता है …पर ये सच है अमृता गई इमरोज़ गया एक रोज़ तुम भी जाओगी मैं भी, पर न तुम कविता कहानियां लिखती हो न मैं कोई चित्र बनाता हूँ।

सुबह जब उठ कर सैर पर निकलता हूँ तो धुन्ध छाई रहती है। एक धुँआ सा उठा रहता है, उस धुँए से ज्यादा धुँआ मेरे होठों से निकलता है। बरबस ही उंगलियों में फँसी सिगरेट होठों से चुम्बन करती है । सुबह का आलम तो यही रहता है। सुबह जिन उंगलियों में सिगरेट फँसी होती है शाम गहराते ही उनमें जाम आ जाता है । जानता हूँ तुम्हें दोनों ही पसन्द नहीं है, मैं पसंद हूँ पर मेरी आदतें तुम्हें दुखा देती हैं। पर ये सब छूट जाएगा जल्दी ही, तुम्हें यकीन करना ही होगा।

अब मैं रोटियां गोल बनाना सीख गया हूँ । हाँ पर जलने से अभी भी बचा न पा रहा हूँ । जानती हो रोटियां बनना सत्य है वो गोल बन रही हैं या नहीं ये मायने नहीं रखता । प्रेम होना मायने रखता है, प्रेमी से मिले कि नहीं मिले , शायद ये मायने नहीं रखता होगा । मैंने अब गाना गाना भी बन्द कर दिया है, जानती हो क्यों… उस दिन तुमने कहा था न “लंबी जुदाई मत गाया करो” लगता है ये गाना हमारा नसीब बन गया है। पर सुनो ! ऐसा कुछ नहीं होता , जहाँ प्रेम होता है जुदाई भी होती है । हर जुदाई प्रेम को और पुख्ता बना देती है…खैर जाने दो मैं भी क्या बात लेकर बैठ गया हूँ।

कल सब्जी मंडी गया तो तुम्हारे फेवरिट हरे चने छिले हुए बिक रहे थे । मुझे बनाने तो नहीं आते , पर मैं ले आया । तुम्हें पत्र लिखते लिखते ही सब खाकर खत्म कर दिए । तुम होती तो डांटती …कहती कि कच्चे क्यों खा गए ? कड़ाही में थोड़ा तेल डालकर ,चने मिक्स कर थोड़ा नमक डाल लेते… तुम कब सीखोगे ये सब ? और मैं ये झूठा वादा कर लेता तुमसे कि अगली बार कच्चे न खाऊंगा। तुम्हारे कहे अनुसार धीमी आँच पर उन्हें अधपका सा पका लेता। मेरी इन बेवकूफी वाली बातों से तुम बोर क्यों नहीं होती, पता नहीं।

अच्छा सुनो तो, मैंने मेथी दाना भिगोकर खाना शुरू कर दिया है, मुँह कड़वाहट से भर जाता है। इसी मुँह के खारे हो जाने से तुम्हें मैंने तुम्हें कुछ कड़वा बोल दिया हो तो माफ कर देना। वैसे तुम इतनी मीठी बातें करती हो तो मेरे मेरे शुगर का लेवल बढ़ जाता है । अच्छा यही रहेगा तुम खरा पर खारा बोलती रहो।

कल अचानक शाम को चाय बनाने के बाद , सिगरेट फूँकने का मन हो आया था। सिगरेट होंठों में दबाई ही थी कि रसोई से कोई सूं सूं की आवाज सुनाई दी। जाकर देखा तो रेगुलेटर के पास से गैस का रिसाव हो रहा था। मेरे होंठों से लगी सिगरेट गिर गई और काँपते हाथों से सिलेंडर से रेग्युलेटर निकाला । सिलेंडर को कैप लगाकर बाहर खुले आँगन में रखने के बाद कल्पना की , कि अगर मैंने सिगरेट लाइटर जलाया होता तो क्या एक धमाका हो सकता था। फिर तुम्हारी कही बात याद आई, “होत वही जो राम रची राखा”, तो क्या हमारी जुदाई भी राम जी ने रच रखी है?

सवाल तो बहुत हैं परन्तु जवाब नहीं मिलते हैं…. खैर न जाने ये जुदाई इमरोज़ के हिस्से में ही लिखी थी या मैं भी उसकी तरह तन्हा हूँ ? मैं जानना नहीं चाहता, आजकल तुम कहीं जाती हो तो मुझसे पहले बताती क्यों नहीं जैसा पहले बताया करती थी । अब तो कई बार ये सुनने को मिलता है, “बाहर हूँ, बाद में बात करूँगी” बड़ा अजीब होता है न मुहब्बत का रिश्ता । एक झटके में नहीं मरता, धीरे धीरे अपनी चिता की ओर बढ़ता है।

पर ये चिता की ओर बढ़ते बढ़ते चिन्ताएं बढ़ा देता है । अब मुझे वो दोस्तों की महफिलें पसन्द नहीं आतीं । तुम्हारी हमारी की गई बातें, कही गई बातें रह रहकर याद आती हैं। मैं सोचता हूँ, तुम्हारा हाल भी यही होगा। मेरी तरह तुम भी व्यथित होंगी, अगर हो तो हमें खुलकर बात करनी चाहिए । कहीं ऐसा न हो हम दोनों की इस निरंतर दूरी के बीच जब भगवान की अदालत में दोनों की पेशी हो तो हम दोनों ही दोषी न पाए जाएं । मैं इस बारे में गौर कर रहा हूँ, तुम भी करना, वैसे मैंने तुम्हारे कहने पर, स्प्राउट की कच्ची सामग्री ले ली है और रोज तुम्हारे कहे अनुसार खाना शुरू कर दिया है।

अच्छा सुनो ! तुम्हें याद है हम आखिरी बार किस तारीख को मिले थे? अगर हो तो मुझे अपने खत के जवाब में लिख भेजना । और हाँ सुनो, अब मैं अमृता प्रीतम की जीवनी ‘रसीदी टिकट’ खरीद ली है । एक दिन मैं भी एक ट्रेन की टिकट लूँगा जो तुम्हारे शहर के लिये होगी। पर सोचता हूँ वापसी की ट्रेन टिकट कटाने जाऊँ तो रेलवे काउंटर पर ये कह कर लौटा दिया जाऊँ, “दो दिन के लिए ट्रेन्स रद्द कर दी गईं हैं।” फिर मैं जब तुम्हें फोन पर ये बताऊं तो तुम खुश होते हुए कहो, “आ जाओ फिर घर पर, दो दिन और साथ गुजारेंगे।” और फिर मैं अपने ऑफिस तीन दिन की छुट्टियों के लिए ईमेल कर दूँगा😊।” पर सुनो मैं इमरोज़ नहीं बनना चाहता , तुम मेरी पीठ पर अपनी उँगली से कुछ न लिखोगी। बस मेरे सीने पर अपनी उँगली से लिखते रहना, “आई लव यू, चौकीदार❤️।” और फिर तुम कहो “तुम मेरी पसन्द के पुरूष हो, रेयर ऑफ रेयरेस्ट…!!!!”

तुम्हारा अपना…
तुम्हारा चौकीदार।
संजय नायक”शिल्प”