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मज़हब क्या है!

Joher
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मज़हब क्या है!
मैं किसी भी मज़हब को, ज़िन्दगी जीने के तरीके के तौर पर समझता हूँ, जहां सुप्रीम पावर किसी उम्मीद जैसा है, जो हर जगह हार जाने के बाद भी, हममें एक उम्मीद जगाए रखता है, की कुछ बेहतर हो सकता है। वही सुप्रीम पावर हमारे आपके बीच अपने कानून को पुख़्ता करने के लिए किसी न किसी को वक़्त वक़्त पर भेजता रहा है।
ये सही है कि, सुप्रीम पावर को अपनी इबादत जिसे बंदगी कहते है, वो करवाने की जरूरत ही क्यों पड़ती है? जिसका सबकुछ है, जिसे किसी की ज़रूरत ही नहीं है, वो इंसानों से अपनी बंदगी क्यों करवाएगा? सवाल सही हो सकता है, लेकिन मुझे ऐसा डिसिप्लिन की वजह से लगता है।

इंसान का मतलब ही, मज़हब को जीना है, भले ही वो सुप्रीम पावर को माने या न माने, आप अपने अंदर से मज़हब को निकाल कर देखिए, क्या बचता है आपमे? सही गलत का फ़र्क कैसे समझेंगे आप? क्या खाना है और क्या नहीं, कौन समझायेगा आपको? दूसरों के साथ कैसे बिहेव करना है, कैसे तय करेंगे आप? जो आपको पसंद नही, वो अगर दूसरे, अपने औरा में कर रहे हैं, तो उसे कैसे समझेंगे आप? आपको लग रहा होगा, ये तो इथिक्स है, लेकिन इथिक्स का वजूद कहाँ से आया?

क्या 18वीं सदी से पहले इथिक्स नहीं था? फिर किसी ऐसी महिला का नाम बताइए जिसका दुनियाँ के इतिहास में कोई नाम रहा हो। एक नाम नहीं मिलेगा। क्यों नहीं मिलेगी, जवाब तलाशिए। मज़हब रिफार्म का भी नाम है, जहां शरीयत, महज़ मज़हब के नाम पर अपने आपको अडिग नहीं करती है, बल्कि वो जो सुप्रीम पावर है, वो वक़्त वक़्त पर अपना नया दीन दुनियाँ में भेजता रहता है। ताकि दुनियाँ में रिफार्म होता रहे और लोग ज़रूरत के मुताबिक एक हद में आगे बढ़ते रहे।

लोग कहते हैं, जो सुप्रीम पावर है, वो डरा कर हमें आपको रखता ताकि उसकी इबादत, अर्चना होती रहे। आप अपने आप मे से, सिर्फ़ डर की भावना को निकाल कर देखिए, क्या हो अगर सिर्फ़ ट्रैफिक लॉ का डर आपके ज़ेहन से निकाल दिया जाए या इस लॉ के बारे में आपको कभी पता ही न हो? सड़क पर कैसे चलेंगे आप? मज़हब आपको डराता नहीं है, बल्कि ज़िन्दगी जीने का तरीका बताता है।

पहले, जो राजा दूसरे राजा के साम्राज्य को जीत लेता था, उस राष्ट्र के पुरषों को मारकर, उनकी महिलाओं को सिर्फ़ भोगने के लिए अपनी दासी बना लिया करता था, यहां तक कि जीता हुआ राजा हारे हुए राजा की रानी के साथ भी ऐसा ही करता था। इस चलन को किसने रोका? क्या उस वक़्त एथिक्स नहीं हुआ करता था? अगर मज़हब नहीं होता तो आज भी ये बहुत आम होता। तलाक के तरीके को बिना धर्म के कैसे देखियेगा, प्रोपर्टी का बटवारा बिना धर्म के कैसे कीजियेगा। इन सब मॉडर्न कानून का रूट आपको मज़हब जिसे धर्म कहा जाता है, वही से मिलेगा वहीं से इसे अपनाया गया है।

जो जितना धार्मिक होगा, वो उतना ही अच्छा इंसान भी होगा, यहां धार्मिक होना दिखावे की पहचान नहीं है, बल्कि प्रैक्टिस की बात है, धर्म को मानना और उसे प्रैक्टिस करना दो अलग बात है। जो मज़हब/ धर्म को जितना प्रैक्टिस करना है, वो उतना ही डिसिप्लिन रहता है, अपने आस पास नज़र उठा कर देख लीजिए। और मज़हब को प्रैक्टिस करने का मतलब सुप्रीम पावर की सिर्फ़ इबादत या अर्चना करते रहना नहीं है, बल्कि अपने धर्म को जीना है।
हममें से ज़्यादातर लोग, धर्म को ठहराव की तरह देखते हैं कि, इसमे ऐसा लिख दिया गया है, इसके ईतर कुछ हो ही नहीं सकता है। मैं इसे इस्लामिक तरीके से समझा सकता हूँ कि, वो शरीयत मतलब कानून हमें बात दिया गया है, उसमे ज़माने के हिसाब से क्या बदलाव और कैसे किया जा सकता है। इस्लाम मे हलाल और हराम का कॉन्सेप्ट है, जो हलाल है वो सही है जो हराम है वो ग़लत है, और कुछ ऐसी चीजें जो न हलाल है न हराम उसे मकरूह कहा गया है, मतलब उससे बचना चाहिए (जैसे ऐसा झूठ जिससे किसी का नुकसान न हो) जबकि झूठ बोलना इस्लाम मे हराम है, लेकिन यहां गुनाह तब तक नहीं होगा, जब तक ऐसा करने वाला उसे प्रैक्टिस न करने लगे।

इस्लाम मे, अल्लाह सुप्रीम पावर है, जो अपने नबियों के ज़रिए वक़्त के एतबार से अपना कानून ज़मीन पर उतारता आया है और उसके आख़री नबी हमारे सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हैं, उनके ज़रिए अल्लाह का दीन मुक़म्मल हुआ लेकिन ख़त्म नहीं हुआ की इसके अलावा अब किसी चीज़ की गुंजाइश ही नहीं है। आज इस्लाम अपने रुट के साथ, दुनियावी एतबार से बदलते हुए भी बिल्कुल वैसा ही है जैसे 1450 साल पहले था। इसकी वजह ये है कि, अल्लाह ने शरीयत को वक़्त के हिसाब से आज़ाद रखा है, जिसका फैसला मुफ़्ती और काज़ी क़ुरआन और हदीस की रौशनी में दुनीयाँ के एतबार से करते हैं।

मज़हब को महज इबादत और सुप्रीम पावर के डर से मत आंकिए बल्कि इसे ज़िन्दगी जीने के तरीके से समझिए, यही मज़हब है यही धर्म है। आज आप धर्म को जितना बुरा भला कह लिए, इंसानों को बांटने वाला कह लीजिए लेकिन अगर धर्म नहीं होता तो लोग संस्कृति, भाषा, पहनावा और खान पान में बंटे होते जो आज के माहौल से कहीं ज़्यादा भयावह होता।

धर्म ने ही इंसान को इंसान बनाए रखा है, जहाँ सुप्रीम पावर आपको डरा नहीं रहा है, बल्कि ये बता रहा है कि जो सही है वही करते रहो वरना तुम इस दुनियाँ में रहने के काबिल नहीं हो, हमारा आपका सरहदी क़ानून भी तो यही करता है न, तभी तो जो जितना ग़लत है, उसे उसी तरह, फांसी तक कि सज़ा सुना देता है। ऐसे कानून और सज़ा का रूट देखियेगा तो आपको महजब जिसे धर्म भी कहा जाता है, वही से दिखाई देगा, इसी ने इस दुनियां में बैलेंस बनाये रखा है।