विशेष

नवाबगंज तक आते आते सारे क्रांतिकारी भाई शांत हो जाते हैं!

Jitendra Sharma Alg
=============
दीपावली की छुट्टियों में इस बार घर गया था बरेली से घर जाने के लिए लंबे समय तक रोडवेज का इंतज़ार कर रहा था इतने में वहां प्रतिदिन चलने वाली ईको का ड्राइवर नवाबगंज के लिए आवाज लगाता हुआ आया मैंने उससे पूछा कि कितनी देर में चलोगे उसने कहा कि जैसे ही भर जाएगी तुरंत चल दूंगा मैं बीच वाली सीट पर जाकर बैठ गया कुछ देर बाद लुधियाना से गांव लौट रहे 3 युवा भी आकर बैठ गए जो कि वहाँ कपड़ा फैक्ट्री में काम करते थे। लगभग 1 घण्टा बीत चुका था 5 सवारी ही बैठी थी इतने में 2 युवा और आते हैं और आते ही किराया पूछते हैं ड्राइवर के द्वारा 60 रु प्रति सवारी के हिसाब से बताया जाता है इतना सुनकर वो रोडवेज़ के 48 रु का हवाला देकर निकल जाते हैं कुछ देर बाद 4 मजदूर गाड़ी में आकर बैठ जाते हैं किराया सुनकर वो भी उतर जाते है। गाड़ी में बैठे कुछ लोग उन मजदूरों की आलोचना करने लगते हैं खैर यही क्रम लंबे समय तक चलता रहता है लगभग 1.30 घण्टे के बाद गाड़ी भर जाती है और नवाबगंज की ओर कूच कर जाती है जैसे ही गाड़ी लभेड़ा पहुंचती है वहां टोल बना नजर आता है ।

गाड़ी में बैठा प्रत्येक व्यक्ति उस टोल को गलत बताता है कि इस रोड पर टोल की आवश्यकता नही थी फिर भी …….. फिर क्या था गाड़ी में बन गया माहौल लेकिन नवाबगंज तक आते आते सारे क्रांतिकारी भाई शांत हो जाते हैं ।
यही सिलसिला छुट्टी पूरी कर हरिद्वार बापसी के समय रोडवेज में भी शुरू होता है और बस में बैठे लोग भी उस टोल को गलत बताते हैं ।

इस दौरान मेरे मन मे एक ही विचार आया कि इस टोल को लेकर आम लोगों के मन मे विरोध तो है लेकिन इतना समय हो गया इस पर आज तक किसी जन प्रतिनिधि या किसी संगठन का ध्यान केंद्रित क्यों नही है।

खैर मैं तो रास्ते भर ये सोंचता रहा कि कैसे एक मजदूर त्योहार पर जब अपने घर जाता है तो अपनी खून पसीने से कमाई मासिक मजदूरी का एक बड़ा हिस्सा किराए में ही खर्च कर देता है ट्रेन में सामान्य कोच की कमी और बसों में भीड़ फिर प्राइवेट गाड़ियों का मनमाना किराया सब कुछ झेलता हुआ अपने घर पहुंच पाता है।

और मेरे मन मे एक ही सवाल बार बार उठता है इस सबके लिए आखिर उत्तरदायी कौन ?

आम भारतीय द्वारा व्यक्त किया हुआ