इतिहास

भारतीय स्वातंत्रता संग्राम का सबसे बड़ा चेहरा : शेख़ुल हिंद मौलाना महमूद-उल-हसन रहमतूल्लाह अलयही

30 नवम्बर -यौमे वफात(पुण्यतिथी)
भारतीय स्वातंत्रता संग्राम का सबसे बड़ा चेहरा :- शेख़ुल हिंद मौलाना महमूद-उल-हसन रहमतूल्लाह अलयही
====================
*जंग-ए-आज़ादी मे हिन्दुस्तानीयों की कीयादत करने वाले, हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी और ख़ुफ़िया तहरीक “रेशमी रुमाल” की बुन्याद डालने वाले, जमीयत उलमा-ए-हिंद के संस्थाप शेखुल हिंद मौलाना महमूद-उल-हसन{रह.}* 30 नवम्बर 1920 को इंतक़ाल कर गये तो *उनकी मय्यत को देवबंद मे ग़ुसुल के लिये उतरा गया तो उनका बदन बदन न रह कर सिरसिर्फ़ हड्डियो का ढाँचा रह गया था और उनकी उन हड्डियो और खाल पे सिर्फ़ हंटरो की मार के रंगें निशान थे और ये देख वहाँ मौजूद लोग रो पड़े थे*।

🟥🟧🟪🟩🟥🟧🟪🟩
आज़ादी के मतवाले कठोर संघर्ष करके और फ़िरंगियों की यातनाएं सहन करके इस देश को उनके के ज़ालिम पंजों से छुड़ाने में कामयाब हुए।इस संघर्षमें मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों में मौलाना महमूद उल हसन रहमतुल्ला अलयही का भी नाम रौशन की सूरज तरह है। उन्होंने गुलामी की अंधेरियों को चाक करने के लिए अपने तन-मन को जलाकर आज़ादी की शमा को रोशन किया। उन्हें देश को गुलामी से आज़ाद कराने की उनकी विभिन्न प्रकार की कोशिशों के कारण ही”शैख़ुलहिन्द”कहा जाता है।मौलाना महमूद उल हसन रहमतुल्लाह अलयहीने सन् 1851 में बरेली की धरती पर मौलाना जुल्फ़िक़ार अली रहमतुल्लाह अलयही के घर जन्म लिया। वह जब छ: साल की उम्र को पहुंचे उस समय उनकी तालीम पवित्र क़ुरआन, अरबी और फ़ारसी से शुरू कराई गई। जब दारुल उलूम देवबंद मदरसे के रूप में आरंभ किया गया तो उसके पहले उस्ताद मौलवी महमूद रहमतुल्लाह अलयही और पहले विद्यार्थी का नाम भी महमूद (महमूद उल हसन रहमतुल्लाह अलयही ) था। मौलाना महमूद उलहसन रहमतुल्लाह अलयही ने दारुल उलूम में कई क़ाबिल हस्तियों से तालीम हासिल करते हुए मौलाना कासिम नानोतवी रहमतुल्लाह अलयहीसे तालीम पूरी की। इसके बाद देवबंद के उसी दारुल उलूम में उन्हें तालीम देने की ज़िम्मेदारी भी सौंपी गई। वह धीरे-धीरे तरक़्क़ी पाते हुये दारुल उलूम के संरक्षक तक बन गए।

दारूल उलूम में तदरीस के बाद वहीं दर्स देने का काम भी जारी कर दिया। *इल्मी क़ाबिलियत का अंदाज़ा लगाने के लिए ये बात काफ़ी होगी कि मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी, मौलाना अशरफ़ अली थानवी रहमतूल्लाह अलयही ,मौलाना हूसैन अहमद मदनी रहमतूल्लाह अलयही , मौलाना अनवर शाह कश्मीरी रहमतूल्लाह अलयही, मौलाना किफ़ायतुल्लाह रहमतूल्लाह अलयही, मौलाना शब्बीर उस्मानी रहमतूल्लाह अलयही* जैसी शख़्सियत आपके तालिब इल्म थे।

जब *हाजी इमदादुल्लाह रहमतूल्लाह अलयही* हज के लिए रवाना हुए तो *दारूल उलूम का ख़लीफ़ा* आपको बनाया गया, *तहरीके आज़ादी मे आपकी ख़िदमात वा कारनामे बेमिसाल हैं; आपकी जद्दोजहद ए आज़ादी का ज़माना बड़ा लम्बा है; आपने आज़ादी की जद्दोजहद उस वक्त शुरु की थी जब इण्डिया नेशनल कांग्रेस वुजूद में भी नहीं आई थी*।

1867-88 में शैखुल हिन्द मौलाना महमूदुल हसन (र.अ.)को दारुल उलूम देवबंद के सरपरस्त बनने का मौक़ा मिला। इसी के साथ उन्होंने शुरू से ही अपने जीवन का उद्देश्य अपने देश हिन्दुस्तान को फिरंगियों के नाजायज़ क़ब्ज़े से आज़ाद कराना बनाए रखा था। इन्ही प्रयासों में वह पूरी ज़िन्दगी लगे रहे। 1905 में उन्होंने तय योजना के तहत ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ अभियान शुरू कर दिया। उन्होंने अंग्रेज़ को देश के अन्दर और बाहर दोनों ओर से घेरने और उनके ख़िलाफ़ सशस्त्र बग़ावत करके देश से मार भगाने की योजना बनाई। इसका मुख्य केन्द्र देवबन्द रखा। उसकी शाखाएं मुल्क की कई जगहों दिल्ली, दीनाजपुर, अमरोट, करन्जी, खेड़ा और चकवाल में क़ायम की गई। सरहदी क्षेत्र में स्थित रियासत याग्गिस्तान को आज़ादी की लड़ाई का केन्द्र बनाया गया। वहां पहले से ही मौलाना सय्यिद अहमद शहीद (र.अ), मौलवी इनायतुल्लाह (र.अ)और मौलवी शराफ़त अली (र.अ)के शागिर्द, अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जिहाद जारी रखे हुए थे। उस लड़ाई का नेतृत्व हाजी तुरंगज़ई (र.अ)को सौंपा गया। उस मुहिम में आसपास के क़बीलों तथा अफ़ग़ानिस्तान आदि से भी आज़ादी के मतवालों के जमा होने की उम्मीद थी। पंजाब से सिख और बंगाल से इन्किलाबी पार्टी के सदस्यों को भी शामिल होने के लिए आह्वान किया गया था।

*1878 में अंजुमने समरतुत तरतीब क़ायम करके जद्दोजहद का आगाज़ किया और 1909 मे जमियतुल अंसार की बुनियाद डाली; चुंके दारूल उलूम के क़याम का मक़सद वतन की आज़ादी भी था; इसलए आपने दारूल उलूम के अंदर एक तंज़ीम बनाई* जिसकी सरगर्मी सरहदी इलाक़ों में दिखायी देती और *इस तनजीम की बागडोर मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी रहमतूल्लाह अलयही के हाथ* में दे दी, इस तंज़ीम का पहला जलसा *1913 में मुरादाबाद में हुआ और अंग्रेज़ी हुकूमत से जिहाद की तैयारी शुरू कर दी गयी, इसी तंज़ीम से निकली ये तहरीक तारीख़ में रोशन होते हुए रेशमी रुमाल तहरीक बन गयी*।

: *मौलाना महमूद हसन रहमतूल्लाह अलयही* *ने मौलाना सिंधी रहमतूल्लाह अलयही को मदद के वास्ते* *काबुल भेजा और ख़ुद हिज़ाज़ (अरब) को निकले ताकि तुर्की हुकूमत से मदद ली जा सके*, *मक्का और मदिना* के गवर्नर के ख़त को *रेशमी रुमाल पर तहरीर कर आपने मौलाना मियाँ अंसारी रहमतूल्लाह अलयही* के हाथ सरहदी इलाक़ों में भेजवा दिया, *सरहदी इलाक़े, मक्का और मदिना के गवर्नर के मदद के इलान से जोश में भर गए लेकिन इसकी भनक अंग्रेज़ों तक पहुँच गयी अंग्रेज़ों ने अपने ऐजेंट के ज़रिए कुछ ख़ुतुत भी हासिल कर लिए और ये राज़ फ़ाश हो गया*।

: *मौलाना महमूद हसन रहमतूल्लाह अलयही* *गिरफ़्तार कर लिए गए और* *मॉल्टा भेज दिए गए*। उनके साथ मौलाना हुसेन अहमद मदनी रहमतुल्लाहअलयही, मौलाना अजीज गुल (र.अ.) , हकीम सय्यद नुसरत हुसैन (र.अ.) और मौलाना वहीद अहमद फैजाबादी(र.अ.)गिरफ्तार हुए।

📙शैखुल हिन्द मौलाना महमूद उल हसन रहमतुल्लाह अलयही और उनके साथी अपने देश हिन्दुस्तान कीआज़ादी की ख़ातिर तीन वर्ष सात महीने माल्टा जेल की सख़्तियां झेल कर 8 जून 1920 को मम्बई पहुंचा कर रिहा कर दिए गए। वह उस समय तक बूढ़े हो चूके थे।एक लम्बे समय तक जेल की यातनाएं झेलने के कारण उन्हें बहुत सारी बीमारयों ने घेर लिया था। बदन भी बहुत कमज़ोर हो चुका था। इतनी तकलीफ़ें सहन कमनेके बाद भी उस बीमार बुढ़े आज़ादी के मतवाले ने अपने रिहाई के सफ़र में ही गहरा इरादा कर लिया था कि वह रिहा होने के बाद घर जा कर आराम से नहीं बैठेंगे। वह अपने वतन पहुंचने के बाद पूरे मुल्क का दौरा करेंगे। अपने जीवन की आखिरी सांस तक देश सेवा और आज़ादी के संघर्ष को जारी रखेंगे।

स्वतंत्रता सेनानी मौलाना महमूद उल हसन रहमतुल्लाह अलयही जिसने बचपन से बुढ़ापे तक पूरी उम्र देश सेवा की, जब अपने साथियों के हमराह माल्टा जेल से मुम्बई पहुंचे तो उनका भव्य स्वागत किया गया। मुल्क के बड़े-बड़े उलमा-ए-दीन के साथ ही मौलाना शौकतअली रहमतुल्लाह अलयही,अब्दुल बारी और गांधी जी भी उनके स्वागत के लिए मुम्बई पहुंचे।

उस समय शैखुल हिन्द मौलाना महमूद उल हसन रहमतुल्लाह अलयही ने न तो किसी थकावट और बीमारी का ज़िक्र किया, न ही माल्टा जेल की परेशानियां गिनवाई, क्योंकि वह जानते और समझते थे कि देश की आज़ादी के लिए उन्हें इन सब तकलीफ़ों और परेशानिया का सामना तो करना ही पड़ेगा और वह तो जान तक की कुरबानी देने के लिए पहले ही से हर समय तैयार रहते थे। उन्होंने स्वागत के लिए आये देश के नेताओंके साथ बैठ कर अगली रणनीति पर सोचविचार किया। मौलाना ने हिन्दुस्तान आज़ाद कराने के लिए नॉनवायलेंस (अहिंसा) का प्रोग्राम ज़रूरी समझा। इसी तरह खिलाफत कमिटी और कांग्रेस द्वारा बनाये गये प्रोग्राम पर भी सहमती व्यक्त की।

🟪🟩🟧🟥🟪🟩🟧🟥
पहली आलमी जंग ने दुनिया का नक़्शा पलट दिया था, *ख़िलाफ़त को बचाने की आख़िरी कोशिश में 1919 में क़ायम हुई जमियत उल्मा हिन्द* लगी पड़ी थी;

📘1920 में 19-21 अक्टूबर को दिल्ली में “जमीअत ए उलमा”का तीन दिवसीय जलसा आयोजित किया गया। उस की भी मौलाना महमूद हसन रहमतुल्लाह अलयहीने ही सदारत की।

उनके सदारती ख़ुतबे में अंग्रेजों से नफ़रत, और उन्हें किसी तरह से सहयोग न देने का एलान किया गया। असहयोग के लिए फ़ौजी और गैर-फ़ौजी सभी नौकरियां छोड़ देने की सलाह दी गई। उनकी इस अपील पर जमीअत उलमा के जलसे में मौजूद सैकड़ों मुस्लिम उलमा ने दस्तख़त किए
जलसे के आख़िरी दिन शैखुल हिन्द मौलाना महमूद उल हसन रहमतुल्लाह अलयहीकी तक़रीर हुई जिसके अंश का सारांश इस प्रकार है,➡️

📗इसमें कोई शक नहीं कि अल्लाह तआला ने आपके हम वतनों (हिन्दू भाइयो)की बहुसंख्यक क़ौम को आपके इस पवित्र संघर्ष में आपका साथी बना दिया है।मुझे दोनों क़ौमों, हिन्दू मुस्लिम एकता के बहुत अच्छे नतीजे निकलने की उम्मीद है। हालात की नज़ाकत को देखते हुए दोनों तरफ़ के ज़िम्मेदार और प्रभावशाली लोगों ने आपसी एकता की जो कोशिश की है उनकी मैं, दिल से क़दर करता हूँ। वह इस मुश्किल वक़्त में आपसी एकता और भाई चारे को कायम करके इस संघर्ष को कामयाबी की ओर ले जा रहे हैं। अगर हम इसके विपरीत स्थिति निर्मित करेंगे, अपनी एकता को ख़त्म कर देंगे तो फिर हमारा

आजादी का संघर्ष सदैव के लिए असंभव हो जायेगा। उधर अंग्रेज़ हकूमत का पंजा दिन प्रति दिन अपनी पकड़ मज़बूत करता जायगा। उन्होंने कहा कि भारत देश के हिन्दू-मुसलमान दोनों सम्प्रदाय और सिख यह तीनों अगर अमन और भाईचारे से रहेंगे तो मैं, नहीं समझता कि कोई चौथी क़ौम, चाहे वह कितनी ही सबल और सशक्त हो, हिंसा और अत्याचारों से न तो हिन्दुस्तान के आदर्शों को मिटा सकती है और न ही देश की एकता में बंधी हुई क़ौम को हरा सकती है। मैं पहले ही कह चुका हूं और आज फिर कहता हूं कि इन क़ौमों के आपसी रिश्ते और देखना चाहते हैं, तो इनकी हदों को अच्छी तरह अगर मज़बूत समझ लें। वे हदें ये हैं कि ख़ुदा की बांधी हुई हदों में कोई रुकावट न आए।

जिसका हल इसके अलावा और कुछ भी नहीं हो सकता कि क़ौमों के मज़हबी कामों में से किसी भी क़ौम के छोटे से छोटे मज़हबी काम में भी कोई छेड़छाड़ न की जाये। मज़हबी मामलों के अलावा किसी दूसरे मामले में भी कोई ऐसा तरीक़ा हरगिज़ न अपनाया जाये जिसकी वजह से किसी भी क़ौम को दिली अथवा दिमाग़ी दुख या तकलीफ़ पहुंचे।

🟩🟪🟥🟧🟩🟪🟥🟧
मौलाना महमूद उल हसन रहमतुल्लाह अलयही की तक़रीर न केवल उस समय के लोगों तक के लिए सीमित थी, बल्कि इस देश की वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों तक के लिए भी एक ऐसा संदेश है जिस पर चल कर सफल और सशक्त होने की संभावना है।

🟪🟧🟩🟥🟪🟧🟩🟥
*मौलाना मुहम्मद अली जौहर के कहने पर आप अलीगढ़ गए और वहाँ 29 अक्तुबर 1920 को आपके ज़रिए जामिया मीलिया इस्लामिया की संग बुनियाद रखी गयी (बाद में दिल्ली शिफ़्ट कर दी गयी*)।
: मौलाना का एक बयान जो देवबन्द में ख़िताब किया था जिसमे मौलाना कहते हैं :- *मुझे मुसलमानो की परेशान हाली* की *दो वजह मालूम* पड़ती है *एक क़ुरान का छोड़ देना और दूसरा आपस का इख़्तेलाफ़ और ख़ानाजंगी*, इसलिए जेल से अज़म लेकर आया हूँ कि *क़ुरान के मानी को आम किया जाएगा और मुसलमानो के जंग व जिदाल को किसी क़ीमत पर बर्दाश्त नही किया जाएगा*।

🔹🔹🔹🔹🔹🔹🔹🔹🔹
मौलाना महमूद उल हसन,शैखुल हिन्द रहमतुल्लाह अलयही आज़ादी के सिपाही अपनी पूरी जिन्दगी देश सेवा और देश की आज़ादी को समर्पित करते हुए 30 नवम्बर 1920 को अपने प्यारे वतन हिन्दुस्तान और आज़ादी के मतवालों को हौसला देते हुए अलविदा कह गए।
🟥🟩🟧🟪🟥🟩🟧🟪

*जब शेखुल इस्लाम मौलाना हुसैन अहमद मदनी{रह.} कलकत्ता से देवबंद गये तो उन्होने फरमाया की “जब अंग्रेज़ो ने शेखुल हिंद {रह.} को माल्टा जेल मे क़ैद कर रखा था तो अँग्रेज़ शेखुल हिंद मौलाना महमूद-उल-हसन{रह.} को जेल के तहख़ाने मे ले जाते और लोहा की सलाख को गर्म करके शेखुल हिंद मौलाना महमूद-उल-हसन{रह.} के शरीर पे दागते थे और उनसे कहते की महमूद-उल-हसन अंग्रेज़ो के हक़ मे फ़तवा दे दो*”
जब आप *अंग्रेज़ो के अत्याचार से बेहोश* हो जाते और *फिर होश मे आते* तो कहते की *‘तुम मेरा जिस्म पिघला सकते हो मैं हज़रत बिलाल हबशी रज़ी अल्लाहो अनहो का वारिस हूं जिन को गर्म रेत के ऊपर लिटाया जाता था सिने पर चट्टान रख दी जाती थी*।
: *मै तो खबीब रज़ी० का वारिस हूं जिनके कमर के ऊपर ज़ख्मो के निशानात थे*।
: *मै तो इमाम मालिक रह० का वारिस हूं जिनके चेहरे पर सिहाई मल कर उन को मदीने मे फिराया गया था।*
: *मै इमाम अबू हनीफ़ा रह० का वारिस हूं जिनका जनाज़ा जेल से निकला था*।
*मै तो इमाम अहमद बिन हम्बल रह० का वारिस हूं जिनको सत्तर कोड़े लगाए गए थे*।
*मै इल्मी वारिस हूं मजदिद् अल्फ़ सानी रह० का, मै रूहानी वारिस हूं शाह वलीउल्ला मोहद्दीस देहेलवी रह० का। भला मै कैसे तुम्हारी इस बात को कुबूल कर लुं ? मेरी चमड़ी उधड़ सकती है लेकिन मैं अंग्रेज़ो के हक़ मे फ़तवा नही दे सकता”*

—————-////——————–
अल्लाह हमे माफ करे हमने हमारे बुजूरगो की कदर नही की
—————–////—————
*आज जो हम चैन की सांस ले रहे है ये हमारे बुरुर्गो की कुर्बानियो का नतीजा है*

————////—————/–
संदर्भ – फखरे वतन
— फारूक अर्गली
2)जंग ए आजादि और मुसलमान
– खालिद मोहम्मद खान
सेवानिवृत्त अवर सचिव
एम पी विधानसभा

◆◆◆◆◆◆■■■■■■■■■◆◆◆◆◆◆◆
*संकलन -अनुवादक- अताउल्लाखा रफिक खा पठाण सर*
सेवानिवृत्त शिक्षक
टूनकी तालुका संग्रामपूर बुलढाणा महाराष्ट्र*
9423338726