इसराइल-ग़ज़ा युद्ध के बीच चीन ने अरब और मुस्लिम बहुल आबादी वाले देशों के विदेश मंत्रियों की एक बैठक बुलाई हुई थी.
सऊदी अरब, इंडोनेशिया, जॉर्डन, मिस्र और फ़लस्तीनी प्राधिकरण के विदेश मंत्रियों का प्रतिनिधिमंडल इसमें शामिल हुए. बैठक का मुख्य एजेंडा इसराइल-ग़ज़ा युद्ध का हल तलाशना था.
कहा जा रहा है कि चीन की अगुआई में हुई यह बैठक मध्य-पूर्व में अमेरिका की कमज़ोर पड़ी मौजूदगी के बाद के ख़ालीपन को भरने की कोशिश है.
माना जा रहा है कि इस बैठक पर अमेरिका की भी पैनी नज़र थी.
लेकिन इसी बैठक के बीच चीन का उठाया एक और क़दम अमेरिका के लिए चिंता का सबब बन सकता है.
असल में चीन और सऊदी अरब के बीच एक अहम समझौते पर हस्ताक्षर हुए हैं. समझौता है ‘करेंसी स्वैप’ का.
द्विपक्षीय व्यापार बढ़ाने और सहज बनाने के लिए, सऊदी सेंट्रल बैंक और पीपल्स बैंक ऑफ चाइना ने तीन साल के करेंसी स्वैप अग्रीमेंट यानी मुद्रा विनिमय समझौते पर सहमति जताई है.
दोनों बैंकों ने आने वाले तीन सालों में अधिकतम 50 अरब युआन तक का व्यापार करेंसी स्वैप एग्रीमेंट के तहत करने का फ़ैसला किया है.
इस समझौते को आपसी सहयोग से आगे भी बढ़ाया जा सकता है.
सऊदी सेंट्रल बैंक के मुताबिक़, “करेंसी स्वैप समझौते से दोनों देशों के बीच वित्तीय सहयोग मज़बूत होगा. साथ ही स्थानीय मुद्राओं के उपयोग से व्यापार और निवेश को बढ़ावा मिलेगा.”
करेंसी स्वैप क्या है?
करेंसी यानी मुद्रा स्वैप का मतलब है, मुद्रा विनिमय. यानी दोनों देश अपनी मुद्रा में भी कारोबार करेंगे. अगर सऊदी अरब चीन से कुछ आयात करता है तो रियाल में भुगतान कर सकता है और चीन सऊदी अरब से कुछ आयात करता है तो युआन में भुगतान कर सकता है.
यानी अमेरिकी मुद्रा डॉलर का अंतरराष्ट्रीय व्यापार में जो दबदबा है, उससे पार पाने के लिए यह अहम फ़ैसला है.
जिन देशों के बीच करेंसी स्वैप एग्रीमेंट किया जाता है वो एक-दूसरे से सस्ती ब्याज दर पर क़र्ज़ भी ले सकते हैं.
द हिंदू बिज़नेसलाइन के मुताबिक़ साल 2020 तक 41 देशों के साथ चीन का करेंसी स्वैप अग्रीमेंट था. इसमें मध्य-पूर्व के देश भी शामिल हैं.
जैसे चीन ने साल 2012 में संयुक्त अरब अमीरात, 2014 में क़तर और 2016 में मिस्र के साथ करेंसी स्वैप अग्रीमेंट किया था.
लेकिन ये पहली बार है जब चीन ने सऊदी अरब के साथ ये समझौता किया है. चूंकी सऊदी अरब मध्य-पूर्व में अमेरिका का सबसे बड़ा साझेदार है, इसलिए विश्लेषक भी इस समझौते को अहम मान रहे हैं.
क्यों अहम है समझौता?
चीन और सऊदी अरब के बीच ये समझौता ऐसे वक़्त में हुआ है, जब मध्य-पूर्व में स्थितियां तनावपूर्ण है. कहा जा रहा है कि अमेरिका के कथित इसराइल परस्त रुख़ से ज़्यादातर इस्लामिक देश नाराज़ हैं.
जेएनयू में इंटरनेशनल स्टडीज़ में असिस्टेंट प्रोफेसर अंशु जोशी बताती हैं कि उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के बीच हो रहे ऐसे समझौते वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से बहुत बड़ा बदलाव है.
वो कहती हैं, ”स्थानीय मुद्रा में व्यापार करने को बढ़ावा देना डॉलर के प्रभुत्व वाली ग्लोबल इकोनॉमी को चुनौती देने जैसा है.”
वहीं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में चीनी अध्ययन केंद्र में एसोसिएट प्रोफेसर अरविंद येलेरी कहते हैं, ”साल 1997 में आए एशियाई वित्तीय संकट के बाद से ही चीन सतर्क हो गया था और ऐसे विकल्प तलाशने लगा था जिससे डॉलर के उतार-चढ़ाव का उसके व्यापार पर ज़्यादा प्रभाव न पड़े.”
”फिर साल 2007 की मंदी से भी चीन ने सबक लेते हुए डॉलर पर अपनी निर्भरता कम करने का निश्चय किया. चीन ने तभी से कोशिश करनी शुरू कर दी कि अपने साझेदार देश के साथ द्विपक्षीय व्यापार के लिए स्थानीय मुद्रा का ही इस्तेमाल करे. ऐसा करके ही वो अपनी मुद्रा को डॉलर और यूरो के मुक़ाबले मज़बूत बना पाएगा.”
दोनों ही विशेषज्ञ मानते हैं कि सऊदी अरब और चीन के रिश्ते के लिहाज़ से भी ये समझौता एक माइलस्टोन की तरह है.
पिछले कुछ सालों से सऊदी अरब का चीन की तरफ़ झुकाव बढ़ा है. वैसे ही चीन की भी सऊदी अरब के साथ साझेदारी बढ़ी है. ये अमेरिका के लिए चिंता पैदा कर सकता है.
अमेरिका के लिए चुनौतीपूर्ण क्यों?
विशेषज्ञ मानते हैं कि स्थानीय मुद्रा को बढ़ावा देना, डॉलर पर निर्भरता को कम करना, सऊदी अरब और मध्य-पूर्व के देशों से नज़दीकी बढ़ाना, ये सीधा-सीधा अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती देने जैसा है.
अमेरिकी मुद्रा डॉलर को वैश्विक मुद्रा की पहचान मिली हुई है. अंतरराष्ट्रीय व्यापार में डॉलर और यूरो काफ़ी लोकप्रिय और स्वीकार्य हैं.
एक विदेशी मुद्रा कितनी मज़बूत और स्वीकार्य है, ये इस बात पर निर्भर करता है कि उसे जारी करने वाले देश की आर्थिक-सामरिक स्थिति कितनी अच्छी है. अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर उसकी पकड़ कितनी है.
जितनी मज़बूत मुद्रा होगी उसकी मौजूदगी दूसरे देशों के सेंट्रल बैंक में उतनी ही अधिक होगी. नतीजतन दूसरे देश इसे ‘रिज़र्व करेंसी’ बनाए रखेंगे.
साल 2008 से 2022 के आंकड़ो के मुताबिक़ अंतरराष्ट्रीय व्यापार का लगभग 75% अमेरिकी डॉलर में हुआ है और दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों में 59 फ़ीसदी अमरीकी डॉलर ही है.
लेकिन कई देशों ने अपने विदेशी व्यापार या कर्ज़े के लिए दूसरे विकल्प तलाशने और आज़माने शुरू कर दिए हैं. इसके पीछे एक मक़सद अमेरिकी डॉलर की बादशाहत को चुनौती देना और डॉलर पर अपनी निर्भरता कम करना भी है. चीन और रूस इसमें अग्रणी हैं. भारत के भी कुछ देशों के साथ करेंसी स्वैप अग्रीमेंट हैं.
रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद जिस तरह से अमेरिका और पश्चिम के देशों ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए, उसके बाद रूस ने भी चीन की मुद्रा को ज़्यादा तवज्जो देनी शुरू कर दिया. इस साल रूस ने डॉलर की तुलना में युआन से ज़्यादा अंतरराष्ट्रीय व्यापार किया है.
चीन ने आईएमएफ़ या अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता को कम करने की मंशा से एक एशियन मुद्रा कोष की स्थापना में भी दिलचस्पी दिखाई है, जिसमें उसे मलेशिया जैसे कुछ देशों का समर्थन भी मिला है.
अमेरिका और यूरोपीय संघ के बाद चीन दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बाज़ार बनाता है. देश की सालाना जीडीपी 17.7 खरब अमेरिकी डॉलर की है.
हालांकि चीन की करेंसी युआन विश्व व्यापार का महज़ 3% है जबकि 87% शेयर अब भी अमेरिकी डॉलर का है.
लेकिन तथ्य ये भी है कि चीन के बढ़ते व्यापार और आयात-निर्यात के फैलाव में दूसरे देशों के सामने अब कम से कम एक विकल्प तो उभर ही रहा है.
तो डॉलर की बादशाहत को चुनौती देने के साथ ही साथ मध्य-पूर्व में भी चीन अमेरिका की जगह लेने की कोशिश कर रहा है.
फिर चाहे सऊदी-ईरान के बीच दोस्ती की पहल कराने में अहम भूमिका निभाने की बात हो या फिर इसराइल-ग़ज़ा में जारी युद्ध को रोकने की कोशिश में सम्मेलन का आयोजन. इसमें कोई दो राय नहीं कि अमेरिका की तुलना में मध्य-पूर्व में चीन का दबदबा बढ़ा है.
आईसीडब्ल्यूए के सीनियर फ़ेलो डॉक्टर फ़ज़्ज़ुर्रहमान मानते हैं कि पिछले दस सालों में अमेरिका का ध्यान मध्य-पूर्व से हटा है.
इस क्षेत्र में उसकी विश्वसनीयता भी कम हुई है. इसी का फ़ायदा चीन को मिल रहा है. जब तक अमेरिका की वहां दिलचस्पी रखी, चीन ने दूरी बनाए रखी.
लेकिन अब जब अमेरिका का ध्यान इसराइल, यूरोप, यूक्रेन युद्ध और प्रशांत महासागर की तरफ़ ज़्यादा है, तो चीन इधर दिलचस्पी ले रहा है.
हाल में इसराइल-ग़ज़ा युद्ध के संबंध में सऊदी प्रिंस सलमान से बातचीत करने पहुंचे अमेरिकी विदेश मंत्री को मोहम्मद बिन सलमान ने घंटों इंतजार कराया था.
वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक सऊदी प्रिंस और अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन के बीच शाम को मुलाक़ात होनी थी लेकिन यह अगले दिन सुबह जाकर हुई.
मुलाक़ात के दौरान भी सऊदी प्रिंस ने ब्लिंकन से कह दिया कि इसरायल को अपना सैन्य अभियान रोकना होगा जिसमें आम नागरिक मारे जा रहे हैं.
अमेरिका-सऊदी अरब व्यापार
अमेरिका-सऊदी अरब के बीच लगभग नब्बे साल पुराना रिश्ता है. दोनों को एक दूसरे का पारंपरिक सहयोगी भी कहा जाता था. लेकिन 2017 में मोहम्मद बिन सलमान के क्राउन प्रिंस बनने के बाद से धीरे-धीरे अमेरिका-सऊदी अरब के बीच दूरियां पनपनी शुरू हो गईं.
इनमें सऊदी अरब के तरफ़ से तेल उत्पादन में कटौती के फ़ैसले से लेकर वॉशिंगटन पोस्ट के सऊदी पत्रकार जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या का मामला अहम कारणों में रहा.
वहीं सलमान के नेतृत्व में देश की विदेश नीति में भी काफ़ी बदलाव आया है.
मध्यपूर्व मामलों के जानकार डॉक्टर फज़्जुर रहमान इसे ऐसे परिभाषित करते हैं, ‘’सऊदी क्राउन प्रिंस देश को हर उस चीज़ से दूर ले जाना चाहते हैं जो उसके अतीत का हिस्सा रहा है, चाहे वो अमेरिका से संबंध हों या फिर रुढ़िवादी इस्लाम या फिर उसकी तेल की राजनीति.’’
हालांकि इन सबके बावजूद अमेरिका सऊदी अरब का दूसरा सबसे बड़ा व्यापार साझेदार है और मध्य पूर्व में सऊदी अरब अमेरिका का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है.
इसी के साथ सऊदी अरब अमेरिकी हथियारों का भी बहुत बड़ा ख़रीददार है. वहीं सऊदी अरब अमेरिका की तरफ़ से आयात किए गए तेल का तीसरा प्रमुख स्रोत है.
2022 में सऊदी अरब के साथ अमेरिकी वस्तुओं और सेवाओं का व्यापार अनुमानित $46.6 बिलियन था. निर्यात $21.6 बिलियन था और आयात 24.9 बिलियन डॉलर था.
चीन-सऊदी अरब व्यापार
साल 2022 में चीन और सऊदी अरब के बीच द्विपक्षीय व्यापार रिकॉर्ड स्तर पर दर्ज किए गए. आंकड़ों के मुताबिक़ दोनों देशों में तकरीबन 106.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर का व्यापार हुआ. पिछले यानी साल 2021 की तुलना में तीस प्रतिशत अधिक.
जबकि साल 2022 में ही अमेरिका से सऊदी अरब का व्यापार महज़ 55 अरब डॉलर का था.
चीन और सऊदी अरब के बीच व्यापार की जाने वाली चीज़ों में तेल सबसे प्रमुख है.
चीन सबसे अधिक तेल सऊदी अरब से ख़रीदता है. चीन के 20 प्रतिशत से ज़्यादा तेल आयात का आपूर्तिकर्ता सऊदी अरब ही है. साल 2022 में चीन ने सऊदी अरब से 67.5 अरब अमेरिकी डॉलर का कच्चा तेल आयात किया था.
इसी साल सऊदी अरब की तेल कंपनी सऊदी अरामको ने चीन में कई अरब डॉलर के निवेश को बढ़ाने और चीन को कच्चे तेल देने से जुड़े दो प्रमुख सौदों की घोषणा की था.
तेल के अलावा चीन सऊदी अरब से कुछ केमिकल भी आयात करता है.
वहीं सऊदी अरब की मशीनरी, इलेक्ट्रॉनिक्स के सामान, टेक्सटाइल जैसी चीज़ों के लिए निर्भरता चीन पर है.
चीन की सरकारी कंपनी चाइना एनर्जी कॉर्पोरेशन सऊदी कंपनी एसडब्ल्यू पावर के साथ मिलकर 2.6 गीगावाट का सोलर प्लांट बना रहा है. यह खाड़ी देशों का सबसे बड़ा सोलर प्रोजेक्ट होगा.
कुछ महीने पहले चीन ने सऊदी अरब में न्यूक्लियर पावर प्लांट बनाने में मदद की भी बात कही थी.
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प्रेरणा
पदनाम,बीबीसी संवाददाता