विशेष

असली क्या है…नक़ली क्या है…जिस आदमी को एक बार महत्वाकांक्षा का पागलपन चढ़ जाता है, उसका जीवन विषाक्त हो जाता है!

Tajinder Singh
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असली क्या है…नकली क्या है…
मैंने ये बात कहां पढ़ी… याद नही… लेकिन आज उसी को अपने शब्दों में साभार लिख रहा हूँ।
बहुत सालों से खड़ी एक गाड़ी गैराज में रिपेयर होने के लिए गयी। मिस्त्री ने एक एक सामान बदलते हुए लगभग पूरी गाड़ी का सामान ही बदल दिया। अब असल गाड़ी कौन सी है? वो जो खुल कर कबाड़ के रूप में पड़ी है? या वो जिस पर नम्बर प्लेट लगी हुई है?
जिस तरह आप कनफ्यूज हैं, उसी तरह मैं भी हूँ। क्या केवल नम्बर प्लेट के आधार पर नए पुर्जों वाली गाड़ी को असल कहना जायज है या फिर कबाड़ में पुर्जों के रूप में खुली पड़ी गाड़ी ही असल थी।
ये कहानी मुझे स्टॅलिन के पुत्र उदय निधि के बयान पर याद आयी। जिन्होंने सनातन को समाप्त करने वाला कथित विवादित बयान दिया।
सनातन से हिंदुत्व तक का सफर भी कुछ कुछ ऐसा ही है। ये प्रश्न पूछना उचित होगा कि हिंदुत्व में कितने प्रतिशत सनातन बचा है। क्योंकि अक्सर धर्म समाप्त नही होते बल्कि थोड़ा रूप बदल लेते है। ये कोई सेमेटिक धर्म नही जहां बदलाव सम्भव नही। ये तो सनातन है यहां विभिन्न विचारधाराओं का संगम है। यहां तो धर्म के धुर विरोधी चार्वाक और बृहस्पति भी पूजनीय हैं।
वैसे सेमेटिक धर्म मे भी विभिन्न मत वाले लोग हैं। जैसे ईसाई में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट। इस्लाम मे शिया सुन्नी बरेलवी आदि। तो धर्म कभी भी अपने आदि रूप में नही रहता। समय समय पर नए विचारों के कारण उनमें बदलाव आते रहते हैं।
जब सेमेटिक जैसे कट्टर धर्म मे विचारधारा का टकराव हो सकता है तो इतनी स्वतंत्रता देने वाले धर्म मे 5000 सालों में कोई बदलाव न आया हो ऐसा सम्भव नही लगता। कोरोना माई और संतोषी माँ का उदय तो हमारे सामने की बात है। थोड़ा पीछे जाएं तो साईं बाबा को पूजने और मंदिर में स्थान देने को लेकर भी लोग दो भागों में बंटे नजर आते हैं। यहां तो अप दिप्पो भवः की बात करने वाले बुद्ध को भी विष्णु जी का दसवां अवतार बना दिया जाता है और वेदों को न मानने वाले महावीर भी स्थान पाते हैं। इतिहासकार तो वैदिक काल मे यज्ञ में गौ वध को लेकर भी बहस करते नजर आते हैं।
सनातन धर्म तो बहती हुई गंगा के समान है जिसमे समय समय पर विभिन्न धाराएं आकर मिलती गयी हैं। लेकिन सवाल है कि क्या गोमुख की गंगा और कोलकाता से 100 किलोमीटर दूर गंगासागर में समुद्र में मिलती हुई गंगा के जल की शुद्धता का स्तर एक समान है? (मैं यहां भावना की बात नही कर रहा)
खैर मेरा एक सवाल और है कि क्या 5000 साल पुरानी नम्बर प्लेट के आधार पर नए पुर्जो वाली गाड़ी को असल कहा जा सकता है?
आप मेरे सवाल का जवाब दें इससे पहले एक ज्ञान की बात आपको बताऊं…
थोड़ा अपना कान इधर लाइये।
(कान में इसलिए बोल रहा हूँ कि जोर से बोलने पर लोगों की भावना आहत हो जाएगी।)
जैसे नकली नोट असली करेंसी को मार्केट से बाहर कर देते हैं। वैसा ही कुछ असल धर्म और नकली धर्म के साथ भी है।
असली क्या..नकली क्या है..पूछो दिल से मेरे(अपने)????????

TRUE STORY
@TrueStoryUP
ताजनगरी आगरा में किशोरी के साथ दरिंदगी, चलते ऑटो में गैगरेप.. चार युवकों ने बनाया शिकार, पकडे जाने के डर से एक युवक ने किया सुसाइड.. ऑटो ड्राइवर अरेस्ट

UP के आगरा में एक सनसनीखेज मामला सामने आया है। यहां करुआ, जगदीश और रुपेश सहित चार आरोपियों ने नाबालिग किशोरी के साथ गैंग रेप की वारदात को अंजाम दिया। इसके बाद उसे बदहवास हालत में सड़क किनारे फेंककर फरार हो गए। बताया गया कि पकड़े जाने के डर से एक आरोपी जगदीश ने आत्महत्या भी कर ली। ऑटो चालक रुपेश को अरेस्ट कर लिया गया हैं। एक युवक अज्ञात हैं। उसकी पहचान की जा रही हैं।

निबोहरा क्षेत्र के एक गांव में रहने वाली 15 वर्षीय किशोरी के पिता की गांव से दो किलोमीटर दूर स्थित एक गांव में फल की दुकान है। किशोरी भी पिता की मदद को प्रतिदिन सुबह दुकान पर जाती थी। शाम सात बजे वह रोजाना की तरह दुकान से घर जा रही थी। किशोरी के पिता के अनुसार, गांव से करीब पांच सौ मीटर पहले बाइक सवार एक युवक ने किशोरी को कंकड़ मारकर रोका। इसके बाद हाथ पकड़ लिया।थोड़ी देर में ही पीछे से ऑटो सवार शमसाबाद के मुक्तिपुरा के रहने वाले रूपेश, करुआ और जगदीश पहुंच गए।ऑटो रूपेश का है। तीनों आरोपी ऑटो में बैठाकर किशोरी को वहां से ले गए। शमसाबाद क्षेत्र में एक नाले के पास जाकर उन्होंने ऑटो रोक लिया। अंधेरे में सूनसान क्षेत्र में सूखे नाले में ले जाकर तीनों युवकों ने किशोरी से दुष्कर्म किया। इसके बाद भी वे उसे ऑटो में घुमाते रहे। रात में एक बजे आरोपित ऑटो से किशोरी को ले गए और गांव के पास ही आश्रम के पास किशोरी को फेंककर भाग गए।डीसीपी सोमेंद्र मीणा ने बताया कि आटो चालक रूपेश को गिरफ्तार कर पूछताछ की जा रही है।एक अन्य आरोपित जगदीश ने आत्महत्या कर ली है।

सुशील तिवारी सरस
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❣️🙏🙏❣
शिक्षा का एक ही अर्थ है कि हम जीवन की कला सीख सकें। एक कहानी मुझे याद आती है।

एक घर में बहुत दिनों से एक वीणा रखी थी। उस घर के लोग भूल गए थे, उस वीणा का उपयोग। पीढ़ियों पहले कभी कोई उस वीणा को बजाता रहा होगा।
अब तो कभी कोई भूल से बच्चा उसके तार छेड़ देता था तो घर के लोग नाराज होते थे। कभी कोई बिल्ली छलांग लगा कर उस वीणा को गिरा देती तो आधी रात में उसके तार झनझना जाते, घर के लोगों की नींद टूट जाती। वह वीणा एक उपद्रव का कारण हो गई थी।

अंततः उस घर के लोगों ने एक दिन तय किया कि इस वीणा को फेंक दें–जगह घेरती है, कचरा इकट्ठा करती है और शांति में बाधा डालती है। वह उस वीणा को घर के बाहर कूड़े घर पर फेंक आए।

वह लौट ही नहीं पाए थे फेंक कर कि एक भिखारी गुजरता था, उसने वह वीणा उठा ली और उसके तारों को छेड़ दिया। वे ठिठक कर खड़े हो गए, वापस लौट गए।
उस रास्ते के किनारे जो भी निकला, वे ठहर गया। घरों में जो लोग थे, वे बाहर आ गए। वहां भीड़ लग गई। वह भिखारी मंत्रमुग्ध हो उस वीणा को बजा रहा था। जब उन्हें वीणा का स्वर और संगीत मालूम पड़ा और जैसे ही उस भिखारी ने बजाना बंद किया है, वे घर के लोग उस भिखारी से बोलेः वीणा हमें लौटा दो। वीणा हमारी है।

उस भिखारी ने कहाः वीणा उसकी है जो बजाना जानता है, और तुम फेंक चुके हो। तब वे लड़ने-झगड़ने लगे। उन्होंने कहा, हमें वीणा वापस चाहिए। उस भिखारी ने कहाः फिर कचरा इकट्ठा होगा, फिर जगह घेरेगी, फिर कोई बच्चा उसके तारों को छेड़ेगा और घर की शांति भंग होगी। वीणा घर की शांति भंग भी कर सकती है, यदि बजाना न आता हो। वीणा घर की शांति को गहरा भी कर सकती है, यदि बजाना आता हो। सब कुछ बजाने पर निर्भर करता है।

जीवन भी एक वीणा है और सब कुछ बजाने पर निर्भर करता है। जीवन हम सबको मिल जाता है, लेकिन उस जीवन की वीणा को बजाना बहुत कम लोग सीख पाते हैं।
इसीलिए इतनी उदासी है, इतना दुख है, इतनी पीड़ा है। इसीलिए जगत में इतना अंधेरा है, इतनी हिंसा है, इतनी घृणा है। इसलिए जगत में इतना युद्ध है, इतना वैमनस्य है, इतनी शत्रुता है। जो संगीत बन सकता था जीवन, वह विसंगीत बन गया है क्योंकि बजाना हम उसे नहीं जानते हैं।

शिक्षा का एक ही अर्थ है कि हम जीवन की वीणा को कैसे बजाना सीख लें। लेकिन ऐसा मालूम पड़ता है कि जिसे हम आज शिक्षा कहते हैं, वह भी जीवन की वीणा को बजाना नहीं सिखा पाती। वह जीवन की वीणा को रंग-रोगन करना सिखा देती है । जीवन की वीणा को हम रंग लेते हैं। जीवन की वीणा को सजा लेते हैं, फूल लगा देते हैं। जीवन की वीणा पर हीरे-मोती जड़ देते हैं, लेकिन न हीरे-मोतियों से वीणा बजती है, न फूलों से, न रंग-रोगन से।

आज की शिक्षा आदमी को सजा कर छोड़ देती है, लेकिन उसके जीवन के संगीत को बजाने की संभावना उससे पैदा नहीं हो पाती। और ऐसा नहीं है कि पहले शिक्षा से हो जाती थी। पहले तो शिक्षा करीब-करीब थी ही नहीं। आज की शिक्षा से भी नहीं होती है, पहले की शिक्षा से भी नहीं हो पाती थी। कहीं न कहीं कोई भूल हो रही है। और वह भूल यही हो रही है कि वीणा के बजाने के नियम पर ध्यान नहीं है, वीणा को सजाने पर ध्यान है।

वीणा को सजाने का अर्थ है–एक व्यक्ति को अहंकार दे देना, महत्वाकांक्षा दे देना। आज की सारी शिक्षा एक व्यक्ति के भीतर अहंकार की जलती हुई प्यास के अतिरिक्त और कुछ भी पैदा नहीं कर पाती है।

विश्वविद्यालय से निकलता है कोई, तो अहंकार से भरी हुई आकांक्षाएं लेकर निकलता है यह होने की, यह होने की, वहां पहुंच जाने की। सर्व प्रथम हो जाने की पागल दौड़ से भर कर बाहर निकलते हैं।

जीवन की वीणा तो पड़ी रह जाती है, प्रथम होने की दौड़ प्रारंभ हो जाती है। पहले ही दिन कक्षा में कोई भर्ती होता है तो हम उसे सिखाते हैं पहले आने का पागलपन। वह एक तरह का बुखार है, जिससे सभी पीड़ित हैं।

महत्वाकांक्षा एक तरह की बीमारी है जो हम सबके प्राणों को घेर लेती है। और अब तक की सारी शिक्षा महत्वाकांक्षा के ज्वर पर ही खड़ी है। मां-बाप भी वह जहर देते हैं, शिक्षक भी वह जहर देते हैं, लेकिन वह जहर देते हैं। वह हर आदमी को सिखाते हैं कि नंबर एक होना है तो ही जिंदगी में सुख है। वह यह हमारा तर्क है शिक्षा का कि जो प्रथम है, वह सुखी है।

जीसस ने एक वचन लिखा है जो हमें बहुत पागलपन का मालूम पड़ेगा। जीसस ने लिखा है: धन्य हैं वे लोग जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं!

और हमारी शिक्षा कहती है, धन्य हैं वे लोग जो प्रथम खड़े होने में समर्थ हो जाते हैं! या तो जीसस पागल हैं, या हम सब पागल हैं। जीसस कहते हैं, धन्य हैं वे लोग जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं। क्यों? क्योंकि जो अंतिम खड़ा हो जाता है, वह सभी बुखार से मुक्त हो जाता है। दौड़ से मुक्त हो जाता है। और जहां कोई बुखार नहीं है, जहां कोई दौड़ नहीं है, जहां कोई पागलपन नहीं है कहीं पहुंचने का; वहां अपने जीवन की वीणा के अतिरिक्त बजाने को और कुछ भी नहीं बचता है।

लेकिन हम तो सभी को दौड़ दे रहे हैं! सारे जगत में एक पागलपन पैदा कर रहे हैं और इसलिए इतनी बेचैनी है, इतनी परेशानी है, इतनी प्रतिस्पर्धा है, इतना संघर्ष है। शिक्षित आदमी उस संघर्ष में ज्यादा है, अशांति में ज्यादा है। सच तो यह है कि जिस देश में जितना ज्यादा लोग पागल होते हों, समझ लेना चाहिए उस देश में उतनी ज्यादा शिक्षा फैल गई है। शिक्षित ज्यादा होंगे तो मानसिक रुग्ण, बीमार ज्यादा होंगे।

आज अमरीका सबसे ज्यादा शिक्षित देश है। क्योंकि सबसे ज्यादा आदमियों को पागल वही कर पाता है। सबसे ज्यादा लोग मानसिक रूप से बीमार होते हैं, क्योंकि हर आदमी एक ऐसी दौड़ में है जो पूरी नहीं हो सकती। और अगर पूरी भी हो जाए, तो दौड़ के अंत में पता चलता है कि हाथ खाली रह गए हैं और कुछ भी नहीं मिला है।
एक बहुत बुनियादी भ्रम है कि आनंद कहीं पहुंचने पर मिलेगा। सारी शिक्षा उस भ्रम को पैदा करती है। वह कहती है, फलां जगह पहुंच जाओ तो आनंदित हो सकते हो।
यही है प्रमाण-पत्र मिल जाने पर आनंद मिल जाएगा। प्रमाण-पत्र मिल जाते हैं, आनंद नहीं मिलता। तब हाथ में कागज का बोझ घबराने वाला हो जाता है। और तब यह लगता है कि आनंद तो नहीं मिला, लेकिन हम आदमी को दौड़ाते रहते हैं। प्राइमरी में पढ़ता है तो उससे कहते हैं हाईस्कूल में। हाईस्कूल में पढ़ता है तो कहते हैं लक्ष्य है युनिवर्सिटी में। युनिवर्सिटी के बाहर निकलता है तो हम कहते हैं, अब जिंदगी में, शादी में, विवाह में। और सब कहानियां, सब उपन्यास और सब फिल्में जहां शादी विवाह हुए, वहीं दि एण्ड आ जाता है। उधर से हम कह देते हैं, बस। सब कहानियां पढ़ें तो एक बड़ी मजेदार बात है। उन कहानियों में लिखा है, उन दोनों की शादी हो गई, फिर वे दोनों सुख से रहने लगे, हालांकि ऐसा होता नहीं। इसके बाद कहानी नहीं चलती है, क्योंकि इसके बाद कहानी बहुत खतरनाक है। कहानी यहां पूरी हो जाती है।

नहीं, न तो शिक्षित होने से आनंद मिल पाता, न तो विवाह से आनंद मिल पाता है, न संपत्ति से आनंद मिल पाता है, न पद-प्रतिष्ठा से आनंद मिल पाता। काश! दुनिया के सब वे लोग जो बड़े पदों पर पहुंच जाते हैं, ईमानदारी से कह सकें तो वे कह सकेंगे कि कुछ भी नहीं मिला।

वे सारे लोग, जो बहुत धन इकट्ठा कर लेते हैं, अगर ईमानदार हों और लोगों को कह दें, शायद वे कहेंगे, धन तो मिल गया, लेकिन और कुछ भी नहीं मिला। लेकिन इतनी कहने की हिम्मत भी नहीं जुटाते। उसका कारण है।

कारण यह है, जो आदमी जिंदगी भर दौड़ा हो और जब उसने उस चीज को पा लिया हो, जिसके लिए दौड़ा है। अब अगर वह लोगों से कहे कि पा तो लिया, लेकिन कुछ भी नहीं मिला तो लोग कहेंगे कि तुम व्यर्थ ही दौड़े, तुम्हारा जीवन बेकार हो गया। अब वह अपने अहंकार को बचाने की कोशिश करता है। भीतर तो जान लेता है कि कुछ भी नहीं मिला।

हम अपने बच्चों को भी उसी दौड़ से भर देते हैं जिससे हमारे बूढ़े भरे हुए हैं। महत्वाकांक्षा की, एंबीशन की दौड़ से भर देते हैं। और जिस आदमी को एक बार महत्वाकांक्षा का पागलपन चढ़ जाता है, उसका जीवन विषाक्त हो जाता है। उसके जीवन में फिर कभी शांति न होगी, फिर कभी आनंद न होगा और उसके जीवन में फिर कभी विश्राम न होगा। और शांति न हो, विश्राम न हो, आनंद न हो तो जीवन की वीणा को बजाने की फुरसत कहां है?

मैंने तो सुना है, एक आदमी जब मर गया, तब उसे पता चला कि मैं जिंदा था। क्योंकि जिंदगी की दौड़ में पता ही न चला, फुरसत न मिली जानने की कि मैं जिंदा हूं–भागता रहा, भागता रहा, भागता रहा। जब मर गया, तब उसे पता चला कि अरे! जिंदगी हाथ से गई। बहुतों को जिंदगी मरने के बाद ही पता चलती है कि–थी।

जब तक हम जिंदा हैं, तब तक हम दौड़ने में गवां देते हैं। मेरी दृष्टि में ठीक शिक्षा उसी दिन पैदा हो पाएगी जिस दिन शिक्षित व्यक्ति गैर-महत्वाकांक्षी होगा, नाॅन-एंबीशस होगा; जिस दिन शिक्षित व्यक्ति पीछे अंतिम खड़े होने में भी राजी होगा। मैं अशिक्षित उसको कहता हूं जो प्रथम होने की दौड़ में है, क्योंकि वह नासमझ है।

मैं शिक्षित उसे कहता हूं जो अंतिम खड़े होने के लिए राजी है। अंतिम खड़े होने के लिए राजी होने का मतलब यह है कि अब दौड़ न रही। जिंदगी अब दौड़ न रही, जिंदगी अब जीना होगी। जिंदगी एक जीना है और जीना अभी होगा, कल नहीं और दौड़ सदा कल के लिए है।

दौड़ने वाला हमेशा भविष्य की तरफ देखता रहता है। जब इतना धन मिलेगा तब जीऊंगा। जब इतनी बड़ी गाड़ी होगी तब जीऊंगा। जब इतना बड़ा मकान होगा तब जीऊंगा। अभी कैसे जी सकता हूं? फिर उतना बड़ा मकान बन जाता है। लेकिन जब उतना बड़ा मकान बनता है, तब तक आकांक्षाओं का जाल और आगे चला गया होता है।

अमरीका में एक अरबपति मरा, एण्ड्रू कारनेगी। जब वह मरा तो उसके पास अंदाजन दस अरब रुपयों की संपदा थी। मरने के दो ही दिन पहले एक मित्र ने उससे पूछा कि तुम तो संतुष्ट हो गए होओगे। दस अरब रुपये तुम्हारे पास हैं। उसने कहाः संतुष्ट! मेरी योजना सौ अरब रुपये की थी, मुझसे ज्यादा असंतुष्ट कोई भी नहीं है। मैं एक हारा हुआ आदमी हूं जो अपनी इच्छा पूरी नहीं कर पाया। दस अरब रुपये, उसने कहा, अभी कुछ भी नहीं है मेरे पास। उसने दस अरब रुपये इस भांति कहा, जैसे कोई दस रुपये के लिए कह रहा हो कि सिर्फ दस रुपये!

क्या हम पूछें कि अगर एण्ड्रू कारनेगी के पास सौ अरब रुपये हो जाते तो वह संतुष्ट हो जाता? जो दस अरब से संतुष्ट नहीं हुआ वह सौ अरब से संतुष्ट हो जाता? सौ अरब होते-होते उसका असंतोष हजार अरब पर पहुंच जाता। इसी की संभावना, इसी का गणित ज्यादा साफ मालूम पड़ता है।

भविष्य में जीता है महत्वाकांक्षी, और वर्तमान में है जिंदगी, और वह जीता है कल की आशा में। और जो कल की आशा में जीता है वह आज को खो देता है।

और जो कल की आशा में जीता है वह आज क्रोधी रहेगा, दुखी रहेगा, पीड़ित और परेशान रहेगा। सुखी तो कल होना है। लेकिन कल कभी आता नहीं। जब आता है तब आज ही आता है। आज उसके दुखी रहने की आदत बन जाएगी और कल सुखी रहने की आशा की आदत बन जाएगी। अब यह गलत व्यवस्था जिंदगी भर उसे पीड़ित करेगी।
इसी गलत व्यवस्था के कारण हमने स्वर्ग में सुख का इंतजाम किया है, मरने के बाद। हम कहते हैं, जब मर जाएंगे तब स्वर्ग में सुख होगा। जब मर जाएंगे तब मोक्ष में सुख होगा। यह महत्वाकांक्षियों की आकांक्षाएं है जिनका लाॅजिकल, तार्किक परिणाम यह हो गया है कि इस पृथ्वी पर सुख हो ही नहीं सकता। सुख तो मरने के बाद होगा।
यहां तो हम दुखी ही रहेंगे। आज तो दुखी ही रहेंगे, सुख कल होगा। जिस आदमी के जीवन में इस भांति की भ्रांत धारणा बैठ गई, उस आदमी का जीवन बुनियाद से सड़ जाता है और नष्ट हो जाता है।

सुख आज है और अभी हो सकता है। लेकिन सिर्फ उस व्यक्ति के लिए हो सकता है जो भविष्य की आशा में नहीं, वर्तमान की कला में जीने का रहस्य समझ लेता है।

तो मैं शिक्षित व्यक्ति उसको कहता हूं जो आज जीने में समर्थ है–अभी और यहीं। लेकिन इस अर्थ में तो शिक्षित आदमी बहुत कम रह जाएंगे। असल में हम पठित आदमी को शिक्षित कहने की भूल कर लेते हैं। जो पढ़-लिख लेता है, उसे हम शिक्षित कह देते हैं! पढ़ने-लिखने से शिक्षा का कोई संबंध नहीं है।
(ओशो )