साहित्य

——– खारे पानी का सैलाब ——-By-Ravindra Kant Tyagi

Ravindra Kant Tyagi
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——– खारे पानी का सैलाब ——-
शहर में शीशमहल सी ऊंची अट्टालिकाएँ हैं। कहीं न खत्म होने वाली दिग्भ्रमित सी सड़कें हैं। सड़कों पर दौड़ती चमचमाती गाडियाँ हैं और गाड़ियों में रुई के फाहे से कुत्ते को बगल में दबाये, विदेशी कॉस्मेटिक्स में रंगी पुती, छुईमुई के पत्ते सी नाजुक मेंमें हैं।

मैसूर पैलेस जैसे शानदार पांचतारा होटल के दरवाजे में कट कट करती हाइ हील की सैंडिल खटकाती अर्धविदेशी रमणियों को कोर्निश बजाते महाराजाओं जैसे कपड़े पहने खड़े छह फूटे दरबान हैं। बड़े वाले साहब की बड़ी वाली गाड़ी का दरवाजा खोलकर आदाब से सर झुकाकर खड़े श्वेत वस्त्रा शोफ़र हैं। सौने जैसी चकदार नेमप्लेट लगी बड़ी बड़ी कंपनियों के शानदार कॉर्पोरेट ऑफिस हैं। और रईसों की शानदार कोठियों के बाहर पहले चौकीदार, उसके बाद विदेशी अल्शेसियन और इन के पीछे छिपे दो नंबर के अमीर हैं।

फुटपाथ पर खड़े होकर तो मैं इतना ही देख पाता हूँ क्यूँ कि भीतर झांकने का दुस्साहस तो मुझ जैसे छुटभैये कलमकार को कौन करने देगा।

फुटपाथ पर खड़े होकर तो ऐसा लगता है कि ये मेरा शहर नहीं है। ये तो कंपनी के एग्जीक्यूटिव्ज़, कार्पोरेटर्स, शेयर ब्रोकर्स, लेंड माफियाज़, दलालों व बड़े बड़े राजनेताओं और उन्हे भी उँगलियों पर नचाने वाले डिप्लोमैट्स का अभयारण्य है। सिंगापूर का सा आभास कराते बड़े बड़े मॉल, नाइटक्लब, पंचतारा होटल, हजारों गरीब परिवारों का आवास बनने की क्षमता वाली कीमती ज़मीनों पर बने विशाल गोल्फ क्लब, मसाज सैंटर, कैबरे, महंगे प्रसाधन केंद्र और खाली जेब वालों को हेय दृष्टि से देखने वाले कॉनवेंट उन्ही के तो क्रीड़ास्थल हैं जहां मक्खी मच्छरों के लिए बिजली की हत्यारी जाली लगी है और आम आदमी के लिए क्रूर सी शक्ल वाला दंडक खड़ा है।

इसी शहर के मध्य भाग में बीमार हृदय की तरह धीरे धीरे धड़कती, किसी वृद्ध की खाल की तरह सुकड़ती सी सैकड़ों साल पुरानी भाषा, संसकृति और पुरातन परम्पराओं को ढोते थक सी गई बस्तियाँ हैं जिन्हे चारों ओर से नए शहर की ताश के महल सी ऊंची ऊंची बहुमंज़िली इमारतों ने घेर रखा है।

बस्ती छोटी है मगर सावधान। यहाँ आप खो सकते हैं। नाई की दुकान पर चल रही धूँआधार राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय राजनैतिक बहस में। कंधे पर फैले गीली बाल, हाथों में पुष्प सज्जित पूजा की थाली और माथे पर तिलक लगाए मंदिर से लौटती रमणियों के समूह में। पीपल के नीचे जमी ताश की चौकड़ी में और नुक्कड़ वाले लच्छू हलवाई की रसीली जलेबियों और कचौड़ियों की खुशबू में। आप कहीं भी खो सकते हैं। इस बस्ती के तो हर घर आँगन को मैंने बरसों जिया है और इसकी थाह लेते लेते अंतहीन सुरंगों में भटक गया हूँ। यहाँ का हर चेहरा मुझे अपना ही चेहरा नजर आता है। चलो कहीं और चलते हैं।

लखनऊ के इमामबाड़े की भूलभुलैया से भी निपूण अवैध बस्तियों के वास्तुकारों ने शहर की पुरातन और नवीन संस्कृति से विलग एक नई तहजीब के खेड़े शिल्प किए हैं कि यदि आप ने उन में घुसने की कोशिश की तो कहाँ रास्ता बंद हो जाएगा और कहाँ जाकर आप बाहर निकलेंगे यह तो निश्चित नहीं है किन्तु आप के सफेद कपड़ों पर कीचड़ की छींटे लग जाना लाज़िमी है।

तो क्या हुआ। यहाँ कौन है जो आप के कपड़ों की कीचड़ देखकर हँसेगा। अरे भाई, यहाँ के निवासियों की आँखों में तो कथित कोलोनाइजर ने पहले ही इतनी धूल झोंक दी है कि वे आँखों पर हथेलियाँ धरे आंसुओं से अपने सपनों को धो रहे हैं। पेड़ों के झुरमुट और कंडे के चूल्हे के धूँए में विलुप्त से हो गए उस गाँव का किसान तो पीढ़ियों से जीवनदाइनी जमीन बेचकर मिले थोड़े से पैसों के नशे में गाफिल पड़ा है और गाँव के बाकी भूमिहीन शहर की काला धूँआ उगलती फैक्ट्रियों में पिसकर खंड खंड हो रहे हैं। वे सूखी रोटी के लिए बिलखते अपने बच्चों को देखें, फटे कपड़ों में अनढका धूंप से तंबयी हो गई पत्नी का ढांचा बदन देखें या आप के कपड़ों पर लगे दाग देखें।

अच्छा, आप उनकी नजरों से सकुचा रहे हैं जो विकास प्राधिकरण और नगर निगम की कुर्सी पर बैठे हैं। अरे, उनकी चिंता छोड़िए और गौर से देखिये। उनके और उन्हे घेरे बैठे प्रॉपर्टी के दलालों, ठेकेदारों और राजनीति के अलम्बरदारों के तो कपड़ी ही नहीं चरित्र, दिल और आँख कान भी इसी कीचड़ से इतने सराबोर हैं कि उन्हे चांदी की खनक के अलावा न कुछ दिखाई देता है न सुनाई देता है।

खैर, अब इतनी गालियां भी मत दीजिये। हर गरीबोआम आदमी के लिए “एक घर हो अपना” का सपना पूरा करना भी तो तो इन्ही अवैध कालोनी बनाने वाले गठबंधन के बूते का काम है। आप किसी भी वर्ग, वंश, भाषा, जाति, पेशे या संप्रदाय के हों, आप के जेब में कितने भी कम या अधिक पैसे हों आप की हैसियत के हिसाब से तीस गज से हजार गज का एक प्लॉट आप के लिए यहाँ उपलब्ध है। नकद, उधार या किश्तों में।

और आजादी … आजादी मुफ्त। नक्शा पास करने का झंझट नहीं। नगर निगम और प्राधिकरण की लंबी लाइनों में टांग तुड़वाकर बाबू के सामने गीड़गिड़ाना नहीं। टैक्स वैक्स के झंझट नहीं और किसी को रिश्वत देनी नहीं। अरे ये सारे जहर के प्याले तो कोलोनाइजर आप के लिए पहले ही गटक चुका है। फिर आप अपने प्लॉट में भैंस पालिए, अवैध फैक्ट्री लगाइए, मुर्गे सूअर के दड्बे बनाइये, बच्चों का स्कूल बनाइये, मंदिर मस्जिद बनाइये या कोई भी ‘धंधा’ कीजिये। कहीं भी कूड़ा फेंकिए, घर के आगे रैंप बनाइये, पानी रास्ते में छोड़िए, अपने बच्चों को सू सू पौटी कराइये, रास्ते में सीवर का गड्ढा बनाइये या टैंट लगाकर माता के जगराते कीजिये। यहाँ आप को रोकने टोकने वाला कोई नहीं है। ऐसी आजादी और कहाँ।

चलिये आज आप को इसी विविधताओं से भरपूर रहस्यमयी दुनिया के दर्शन कराते हैं। अगर इस पहले ही मकान से शुरू करें तो … ये है 136 रामनगर। कोई महिला घर के बाहर बैठी धूंप में बाल सूखा रही है।

“सुनिए मैडम, आप कब से इस कालोनी में …।

“ओए तू कौण है भाई। छुट्टी के दिन भी सुकून से दो पैग लेने के वक्त …।” ओफ़्फ़ सौरी सौरी। जिन्हे मैं महिला समझा, ये तो एक खुर्रांट सरदार जी छुट्टी में बाल खोले बैठे हैं। आगे चलते हैं। 137 रामनगर में कोई अल्ला महर रहते हैं। इनके यहाँ तो इतनी भीड़ है कि एक एक करेक्टर का बखान करते करते उम्र बीत जाएगी। चलो आगे चलते हैं।

अगले मकान में कोई बिहार के सीरीबास्तव जी उर्फ राम नारायण श्रीवास्तव रहते हैं। बरसात में गल गए लकड़ी के दरवाजे में एक बड़ा सा सुराख हो गया है। चलो इसी में से भीतर झाँकते हैं।

“अजी सुनते हो” (वही सदियों पुराना जुमला) अखबार में ही सर खपाते रहेंगे या कोई काम भी करोगे। गुड्डन की फीस जमा करानी है। राशन की दुकान से चीनी और मिट्टी का तेल लाना है, डाकखाने से पेंशन का पता करना है और तुम्हारी साइकिल भी पंचर पड़ी है। देख नहीं रहे घड़ी दस बाजा रही है।”

“भागवान, क्यूँ शोर मचा रही हो। सरकार रिटायर करती है आराम करने के लिए और तुम हो कि सर्कस के बनमानुस की तरह सवेरे सवेरे मेरे सर पर सवार हो जाती हो। वैसे भी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही। रात भर नींद नहीं आती और ये घुटनों का दर्द …।”

“दरद तो भगवान ने हमारे करम में ही लिख दिया है। हमारा बचवा आज ठीक होता तो मैं करमजली क्यूँ तुम्हें कुछ काम करने को कहती।”

“अरे जानो, क्यूँ सुबह सुबह उन बातों को याद करके अपना मन खराब करती हो। लाओ जरा मेरा अंगोछा दो। मैं सर पर दो लुटिया पानी डालकर आता हूँ। और देखो। दरवाजे पर शायद कोई है।”

ये एक लगभग सौ गज में बना हुआ, बिना प्लास्टर का मकान था। जीवन भर डाकघर में क्लर्की करने वाले राम नारायन श्रीवास्तव ने अपनी ग्रेचुइटी, प्रोविडेंट फंड और जिंदगी भर के जोड़े जुगाड़े से इतना इंतजाम तो कर लिया था कि इस अवैध कलौनी में एक सौ गज का प्लॉट खरीदकर छत डाल दी जाय। तब सोचा था कि कुछ पेंशन के पैसे मिलेंगे और कुछ बेटा कमाएगा तो मकान का बाकी काम भी निपटा लेंगे मगर उन्हे क्या पता था कि दुर्भाग्य मुंडेर पर बैठा हंस रहा है। फैक्ट्री की एक दुर्घटना में बेटा हाथ पाँव तुड़वा बैठा। कुछ पैसे इलाज में लग गए और बाकी फैक्ट्री मालिक से मुक़द्दमा लड़ने में खर्च हो रहे हैं। पिछली साल गाँव में भयंकर सूखा पड़ा था सो छोटे भाई के बच्चों को भी भूखा मरते नहीं देख सकते। सो वहाँ भी कुछ पैसे भेजने पड़े। बेटी के ससुराल वाले हमेशा सुरसा की तरह मुंह फाड़े रहते हैं और दामाद शराब के नशे में बीवी को पीटकर अपनी असफलताओं की कुंठा निकालता रहता है।

श्रीवास्तव जी अभी पुरानी चादर का पर्दा टंगे बाथरूम में थे कि पोस्टमैन दरवाजे के सुराख से एक नीले रंग का लिफाफा टपका कर चला गया। ज्ञानमती उर्फ जानो ने देखा तो उसके माथे पर बल पड़ गए। यही एक चीज थी जिस से उन्हे घृणा थी। घृणा भी क्या, इस तरह के नीले लिफाफे देखकर उनके तन मन में आग लग जाती थी।

दरअसल इस तरह के पत्र श्रीवास्तव जी के गाँव से आते थे और इसका मतलब ही था कि छोटा भाई फिर कोई नया रोना रोकर नई मांग कर रहा है। भैया, बैल मर गया। फसल कैसे बुएगी। भैया दुबारी की छत गल गई है या बालकों के इलाज में इतना पैसा लग गया। अब तख्ती कलम खरीदने को भी पैसा नहीं है। वगहरा वगहरा।

जानो ने तो पत्र क्या मानो कोई विषैला सर्प देख लियी हो। चाहती तो थी कि इसे बिना देखे ही चिमटे से पकड़कर चूल्हे में झोंक दे। मुए देवर को अपने हिस्से की जमीन भी खाने कमाने को दे रखी है। फिर भी हर समय भीख का कटोरा हाथ में लिए रहता है। यहाँ अपनी जिंदगी घिसट घिसटकर चल रही है और इन्हे हर समय लूटने की पड़ी रहती है। न जाने कितना पैसा भेज चुके हैं मगर इनका गड्ढा भरता ही नहीं। सारी जमीन दे रखी है। कभी आड़े वक्त में मदत तो करने से रहा उल्टा हथेली फैलाये रखता है। ऐसा भाई होने से तो न होना भला।

जानो ने क्रोध के साथ पत्र उठाकर ऐसे मुट्ठी में भींच लिया जैसे पत्र को कुचलकर ही मर डालना चाहती हों कि तभी अंगोछे से बाल पौंछते हुए श्रीवास्तव जी बाहर निकले।

“अरे, क्या रामखिलावन का खत आया है। जरा पढ़कर तो बताओ। उधर सब कुशल मंगल तो है।”

ज्ञानमती भुनभुनाती हुई हाथ नचाकर बोलीं “पढ़ने से पहले ही पता है जी। फ़िर कोई भीख मांगी होगी आप के छुटके ने। बीस साल से हाथ फैलाने के अलावा कोई और काम आता है उन्हे। कुशल क्षेम जानेंगे।”

“अरे जानो, आज न जाने क्यूँ सुबह से ही तुम अंगारों पर बैठी हो। भाई मैं बड़ा भाई हूँ उसका और बड़ा भाई बाप के समान होता है। सुख दुख की मुझ से नहीं कहेगा तो किस से कहेगा। तुम पढ़ो तो सही या मेरा चशमा लाकर दे दो।”

“बड़े भैया और माँ समान भाभी जी को पाय लागन। भैया, इधर गाँव में सब कुछ उलटा पुलटा हो रहा है। गाय ने बछड़ा दिया था जो तीन दिन में ही मर गया। दूध भी नहीं दुहने दे रही। बिटिया की खांसी अभी ठीक नहीं है। पंचायती हस्पताल में इलाज चल रहा है।

लो हो गया रोना शुरू तुम्हारे लाडले भाई का।” जानो ने गुस्से में खत को लहराते हुए कहा।

“अरे भागवान, पूरा तो पढ़ो। छोटे के यहाँ सब ठीक तो है।” श्रीवास्तव जी ने चिंता से कहा।

बड़े भैया, फसल भी नहीं बोयी जा सकी है। सरकार की ओर से जमीन खाली छोड़ने का औडर आया है। सारी जमीन सरकार ले रही है। संकट के समय आप का ही सहारा है। अगर जमीन छिन गई तो बच्चे भूखे मर जाएंगे। हमे सरकारी कामकाज की कौनो जानकारी नहीं है। सरकारी पर्चा आया है। साथ भेज रहे हैं। आप को ही आकर देखना होगा। आप के चरणों का दास – राम खिलावन।”

“क्या! खत के साथ कोई सरकारी कागज भी है। अरे तो क्या जमीन एकवायर हो रही है। जानो जरा जल्दी से मेरा चश्मा तो लाना।” उन्होने उतावलेपन से कहा।

ये एक सरकारी एक्वीजीशन का नोटिस था “खसरा नंबर फला फलां भूमि अधिग्रहण। एतराज की तारीख नीचे दे गई है। भूमि का सरकारी मूल्य …. दो …. दो लाख इक्यावन … नहीं नहीं दस … दस लाख, नहीं नहीं। एक सैकेंड … आ आ … इकाई, दहाई, सैकड़ा, हजार, दस हजार, लाख, दस लाख ककक करोड़ … दो करोड़ इक्यावन लाख मुआवजा राम खिलावन व इतना ही राम नारायण श्रीवास्तव। दो करोड़ इक्यावन लाख मुआवजा सिर्फ हमारे नाम जानो। सिर्फ हमारे नाम।”

श्रीवास्तव जी ने खत आँखों के आगे से हटाया तो पत्नी जानो बेहोश होकर जमीन पर चित्त पड़ी थीं।

क्लांत भास्कर शरद ऋतु के मंद उत्ताप की गठिया बांधकर श्यामल सभ्यता के गोरे लोगों के पाश्चात्य देशों की ओर बढ़ गया था। बस्ती के बच्चे अलाव जलाकर, थके मजदूर ठर्रा चढ़ाकर, किसान अपनी सहचरी के चूल्हे के पास बैठकर, रिक्शे तांगे वाले सवारी के इंतजार मेन फटी चादर लपेटकर और नव धनाड्य अय्याशी के नए नए नुस्खे तलाश कर सर्दी को भगाने का प्रयास कर रहे थे।

रात के दस बजे थे। बेटा राजन अपने कमरे में बैठा कुछ पढ़ रहा था। ज्ञानमती जब घर का सारा काम निपटाकर पति के कमरे में पहुंची तो वहाँ का नजारा देखकर उसकी आँखें फटी रह गईं। पचास पचास हजार की दो सौ गड्डियाँ पलंग पर फैलाकर राम नारायण उसपर ऐसे हाथ फेर रहे थे मानो स्पर्श के द्वारा अपने अचानक करोड़पति बन जाने को आत्मसात कर लेना चाहते हों।

“आओ बैठो जानो। ये देख रही हो। पूरा एक करोड़ रुपया है। कभी देखा है एक साथ इतना रुपया।”

“क्या बात करते हैं जी। हम तो कभी एक लाख रुपया भी इकट्ठे नहीं देखे हैं।”

“आह, पैसा पैसा पैसा। कितनी अजीब चीज है ये पैसा ज्ञानवाती। कितनी अजीब चीज।” वे पैसों पर निगाह टिकाये हुए अनमने से दर्शनिकों की तरह बोले।
“गाँव में रहकर मस्त बचपन बीता। स्कूल से लौटले तो मान इतना लाड़ दिखाते जैसे कोई जंग जीतकर लौटे हों मगर छोटे की पढ़ाई की नैया तो डसवी से आगे बढ़ ही नहीं पायी थी और वो किताबों का असह्य बोझ कंधों से उतार फेंक, बापू के साथ खेती में जुट गया। इंटर्मीजिएट तक का खर्च तो बापू उठाते रहे मगर मुझे कॉलेज भेजने में बापू कर्जे में डूब गए। पिताजी का बुढ़ाता शरीर, बंजर जमीन, पानी की व्यवस्था नहीं और मौसम की मार अलग से। तुम जानती हो जानो, छोटे की खेलने कूदने की उम्र, पत्थर सी जमीन का सीना चीरकर मेरी फीस उगाने में ही निकाल गई। बाप बेटे, भाँय भाँय करती लू के थपेड़ों में भट्टी सी धधकती जमीन पर पसीना बहाकर जब दो पल को पेड़ की छाँह में सुस्ताते तो आसमान में बादल के कतरों को तलाशते बस एक ही सपना देखा करते थे कि बड़का जब ऊंची पढ़ाई करके खूब पैसे कमाने लगेगा तो गाँव में एक बड़ा सा घर बनाएँगे और उस में बिजली के पंखे लगवाएंगे। पंखे की ठंडी हवा में लेटकर ठाठ से भोजपुरी गीत सुना करेंगे।

कौन से सपने पूरे किए मैंने बापू के जानो। दो साल बेरोजगार भटकते हुए डाकखाने में दफ्तरी की नौकरी मिली। अस्सी रुपये महीने।”

“क्यूँ दुखी हो रहे हो पुरानी बातें सोचकर।”

“अकेला था तो फिर भी ठीक से गुजर हो जाता था।” वे अपनी रॉ में बोले चले जा रहे थे।

“स्टेशन के सामने की पटरी पर जुगाली बाई के ढाबे पर खाना खाता। पचास पैसे में भरपेट दाल रोटी खिलाती थी। आर्यसमाज के मंदिर में सोता और पचास रुपये घर भेजता था। धीरे धीरे गाँव का सारा कर्जा उतर गया था मगर …।”

“मगर क्या। कर्जा दोबारा हो गया?”

“बेटा शहर में सरकारी नौकरी करता है तो उसका ब्याह तो ऐसा होना ही चाहिए कि सारी बीरदारी में रुक्का हो जाए। शहर से अङ्ग्रेज़ी बाजा, दुल्हन को लाने के लिए किराए की कार और गहने गाँठे। बस इसी चक्कर में बापू दोबारा कर्जदार हो गए।”

“अब छोड़ो भी। उन दिनो को याद करके क्यूँ अपना मन खराब कर रहे हो राजन के बापू। अब तो हो गया न पैसा हमारे पास।”

“कैसे भूल जाऊं जानो। कैसे भूल जाऊं। वो विपन्नता की बेबसी का भीतर तक कचोटता एक एक पल। तंगी के कारण रिशतेदारों के अपमान और तिरस्कार को कैसे भूल जाऊं। दोस्तों की उपेक्षा, अवहेलना और व्यंगों को कैसे भूल जाऊं।” और बोलते बोलते उनकी आँखों में तरल सा तैर गया। फिर कुछ पल सोचते से बोले “तुम्हें याद है जानो, जब हमारे पहले बच्चे का जन्म होने वाला था। तब डॉक्टर ने बताया था कि अगर एक घंटे में ऑपरेशन नहीं कराया गया तो माँ और बच्चे, दोनों की जान को खतरा हो सकता है। पर मेरे जेब में तो उस वक्त एक फूटी कौड़ी नहीं थी। आह। क्या उस पल को मैं जीवन भर भूल पाया जब तुम प्रसव पीड़ा से तड़प रही थीं और मैं तुम्हारे हाथों से तुम्हारे शगुन में मिलीं सौने की चूड़ियाँ उतार रहा था। उन्हे बेचकर तुम्हारी सर्जरी कराने को। मुझे आज भी याद हैं हॉस्पिटल स्टाफ की वो हिकारत, नफरत और धिक्कार भारी निगाहें। उस क्षण … उस क्षण मुझे अपने पौरुष पर लज्जा आ रही थी। मैं … मैं तुम्हारा अपराधी हूँ ज्ञानमती कि मैं जिंदगी भर तुम्हें वो सुख नहीं दे पाया जिसकी तुम अधिकारी थीं।” और श्रीवास्तव जी दोनों हाथ आँखों पर रखकर सुबकने लगे।
ज्ञानमती उनके कुछ और करीब आ गई और उनकी पीठ पर हाथ फेरते हुए स्नेह से बोली “तुम्हारा जो प्यार और सम्मान मिला मुझे जिंदगी भर वो क्या कम है जी। आज जब भगवान ने इतना दिया है तो पुरानी बातों को याद करके क्यूँ परेशान हो रहे हो।”

“इतना दिया है! क्या दिया है। और कब।” वे तमक कर बोले। “क्या करूँ इस पैसे का। क्या इस से सात साल की उम्र में पीलिया जैसी साधारण बीमारी में काल के गाल में समा गया तुम्हारा बेटा वापस आ सकता है।” उन्होने हिचकी ली। फिर कुछ संभालकर बोले। “जब वो उचित आहार और दवाइयाँ न मिलने पर कुपोषण और बीमारे से बेबस होकर खाट से चिपक गया था तो इसी बीच दीवाली आ गई थी। कितनी करुणा और मासूमियत से उसने कहा था कि माँ दीवाली पर मैं भी पटाखे फोडूंगा और तुम बावरी पटाखों का स्वर निकालने के लिए रसोई के बेलन से ज़ोर ज़ोर से खाली कनस्तर पीटने लगी थीं। न जाने क्या सोचकर वो चुप हो गया। और फिर कुछ ही दिनों के बाद…। मुझ नकारा निकम्मे आदमी को कोई हक ही नहीं था बच्चे पैदा करने का। उसकी आँखों की वो अंतिम याचना मुझे सोने नहीं देती जानो। मुझे सोने नहीं देती।” और वे फूट फूटकर रोने लगे। “अब बस भी करो जी। पूरा जीवन इस घर के लिए होम कर दिया और अब खुद को ही कोस रहे हो। अरे आज क्या नहीं है हमारे पास। भरा पूरा खानदान है। दो बच्चों के बाप हो। नाती पोते हैं। भगवान ने हमें सब कुछ तो दिया है। और अब … अब तो …।”

“हाँ सब दिया है। बेटा बेटी। नाती पोते। सब तो दिया है।” उन्होने एक लंबी सांस ली। फिर निराश निगाहों से शून्य में देखते हुए बोले “बेटा! तुम्हारा बेटा छह महीने से फैक्ट्री में घायल होकर अपाहिज बना हुआ घर में पड़ा है। और पोता! उसकी माँ इस घर की तंग हाली को देखकर तुम्हारे बेटे और पोते को छोड़कर चली गई है। और बेटी … आह। तुम्हारी बेटी अपने जल्लाद पाती से पिट पिटकर किसी दरिया में डूबकर मरने की कल्पना कर रही होगी।

लानत है। लानत है ऐसी जिंदगी पर और ऐसा बाप होने पर जो अपने बच्चों को एक सफल जिंदगी भी न दे पाये जानो। उसे तो जीने का भी हक नहीं है।”
फिर वे किसी गहरी सोच में डूबते उतरते से बोले। “कितनी बार फीस समय पर न देने पर हमारे बच्चों को स्कूल से अपमानित करके भागा दिया गया। कितनी बार दूध वाला और राशन वाला दरवाजे पर खड़ा होकर हमें जलील करता रहा। कितनी बार किराया समय पर न देने पर मालिक की झिड़कियाँ सुननी पड़ीं यहाँ तक की बार बार मकान बदलने पड़े। घर का खर्च बचाने के लिए तुम्हें और बच्चों को स्वाभिमान भूलकर माइके भेजना पड़ा। हे परमात्मा। कितनी बार मेरे फटे कोट को मोची की तरह गाँठते गाँठते तुम्हारी उँगलियाँ लहूलुहान हो गई थीं।”

“उठ जाओ जी अब। मुंह धोकर आ आओ। जो बीत गया सो बात गई। पुरानी बातों पर दुखी होने का क्या फायदा। तुम ने पूरी बहदुरी से जिंदगी की जंग को लड़ा है और अब … जब कि।”

“हारी हुई जंग कहो जानो। हारी हुई जंग। न जाने कितनी बार हमारी मुफ़लिसी ने हमारे बच्चों की छोटी छोटी फर्माइशों को कुचल दिया। बार बार उन्हे पड़ौसी के घर टीवी देखने जाने पर ताने और उलाहने झेलने पड़ते रहे। बार बार उनके सहपाठी फटे जूतों से झांक रही उँगलियों और टिफिन में भारी अचार रोटी का मज़ाक उड़ाते रहे।

जिन दिनो राजन बड़ी पढ़ाई के लिए ऊंचे कॉलेज में दाखिला लेना चाहता था तो मेरी जेब में एक फूटी कौड़ी नहीं थी। हमारे ऑफिस के कुछ दोस्तों ने एक अवैध बाहुबली साहूकार से पैसे उधार लेते रहते थे। उन्होने मुझे भी उसी फ़ाइनेंसर से पैसे उधार दिलवा दिये।

उस समय तो जानो, वो लोग किसी देवता की मानिंद दिखाई दे रहे थे जिनके कारण हमारे बेटे की पढ़ाई जारी रह सकी। किन्तु पैसा न चुका पाने की स्थिति में कुछ ही दिनों में उनका रौद्र रूप उभरकर सामने आ गया। ब्याज पर ब्याज। ऊपर से पैनल्टी। उनकी रकम सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही थी और इतने धन पशु, क्रूर और निर्दयी लोग थे कि एक बार जो उनके शिकंजे में फंस जाय उसे तबाह ही करके छोड़ते थे।

एक दिन उसी फ़ाइनेंसर के चार गुंडे जैसी शक्ल के वसूली करने वाले ऑफिस में आ धमके। उन्होने पूरे स्टाफ के सामने न केवल मुझे गालियां दीं बल्कि हाथ पाँव तोड़ने की धम्की भी दे डाली। एक अपने राजन की उम्र के लड़के ने सब के सामने मेरा गिरेबान पकड़ लिया था।” उनके आवाज एक बार फिर भीग गई।
“अरे … तुम ने ये बात तो कभी नहीं बताई।”

उस दिन … उस दिन मैं पूरी तरह टूट गया था। ऑफिस से निकलकर एक निर्जन स्थान पर रेल की पटरी के किनारे पहुँच गया। अपनी इह लीला समाप्त करने को।” शून्य में देखती उनकी आँखों से दो आँसू ढलककर फैले नोटों पर जा गिरे।

“हाय राम। क्या कह रहे हो जी। ये बात तो तुम ने कभी ना बताई।” जानो ने धोती के पल्लू से उनकी आँखें पौंछते हुए कहा।

“हाँ जानो। उस दिन मैं घंटों रेल की पटरी के किनारे पड़े पत्थर पर खुद को समाप्त करके पाषाण से भी कठोर जीवन से मुक्ति का मार्ग सोचता रहा। फिर … फिर मुझे तुम से प्रेरणा मिली।”
“मुझे से प्रेरणा। मैं भला…।”

“तुम एक सम्पन्न परिवार की लड़की थीं और विवाह से पहले अभावों की एक महीन छाया भी तुम्हारी निकट से नहीं गुजरी थी। किन्तु हे भारतीय नारी, कितने बरसों से तुम मेरे साथ एक विपन्नता का जीवन जी रही हो। पैबंद लगे कपड़े पहन रही हो और रूखा सूखा खाकर भी संतुष्ट हो। फिर भी तुम ने कभी कोई शिकायत नहीं की तो मुझे भी अपने परिवार को और तुम्हें इस झंझावात में छोड़कर पलायन करने का कोई हक नहीं है। हम ने स्वयं बनाया है अपना ये छोटा सा घर संसार। अपने हाथों से कैसे मिटा दूँ अपना ये घौसला। लड़ेंगे। उम्र भर मिलकर लड़ेंगे।”

“पापा…।” दरवाजे पर बेटा अचानक बैसाखी लिए प्रगट हुआ।

“अरे… आ जा बेटा। देख हमें जमीन के कितने पैसे मिले हैं।” श्रीवास्तव जी ने आँखें पौंछते हुए उत्साह से कहा।

“पापा… आप ने अपना पूरा जीवन इस परिवार के लिए होम कर दिया और आज… आज स्वयं को ही… मैं सब सुन रहा था।”

“अब क्या बताऊँ बेटा। बचपन को निकालकर जिंदगी के शेष चालीस साल इसी जुस्तजू में गुजर गए कि मैं तेरी माँ को और अपने बच्चों को एक बेहतर जिंदगी दे सकूँ मगर… मगर मैं फेल हो गया मेरे बच्चे। मैं फेल हो गया। मैं तुम्हें दे पाया एक अभावपूर्ण बचपन, अर्ध शिक्षा और एक अवैध मिल में मजदूरी की अपाहिज जिंदगी। मेरे मुफ़लिसी ने अपनी लाड़ली बेटी को भी एक फ्रस्टेटिड शराबी आदमी के हवाले करने को मजबूर कर दिया। और… और अपनी बेहद प्यार करने वाली पत्नी… तुम्हारी माँ को क्या दिया मैंने। एक फटेहाल मजबूर जिंदगी। मैं एक निकम्मा नकारा इंसान तुम्हें जन्म देने से पहले मर… और वे एक बार फिर फूट फूट कर रोने लगे। उनके साथ ज्ञानवाती भी उन से लिपटकर रोने लगी। मटा पिता को रोता देखकर बेटा भी उन से लिपट गया।

भास्कर ने सुनहरी मुस्कान के साथ दुनिया को प्रणाम किया। सुबह हो गई और तीनों प्राणी एक करोड़ रुपये के नोटों के ढेर पर बेसुध सो रहे थे।
रवीन्द्र कान्त त्यागी