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अरब जगत और अमेरिका, सऊदी अरब और यूएई के ब्रिक्स में शामिल होने की मुख्य वजह : रिपोर्ट

बाइस साल पहले मात्र निवेश के ठिकाने के तौर पर सोचा गया ब्रिक (BRIC) आज चार महाद्वीपों में फैल चुका है.

अगले साल तक ये ग्रुप 11 देशों का एक ऐसा समूह बन जाएगा, जिसकी दुनिया भर की जीडीपी में हिस्सेदारी 37 प्रतिशत है.

इतना ही नहीं सदस्यता विस्तार के बाद ब्रिक्स के दायरे में वो इलाक़े आ जाएँगे, जहाँ दुनिया भर के 45 फ़ीसदी कच्चे तेल का उत्पादन होता है.

दक्षिण अफ़्रीका के जोहानिसबर्ग में सालाना ब्रिक्स सम्मेलन के तीसरे दिन छह नए सदस्यों, दक्षिण अमेरिकी देश अर्जेंटीना, अफ़्रीकी मुल्क इथियोपिया, ईरान और तीन अरब देश मिस्र, सऊदी अरब और यूनाइटेड अरब अमीरात (यूएई) को संगठन में शामिल करने की घोषणा की गई है.

मीडिया रिपोर्टस के अनुसार इन छह देशों की सदस्यता औपचारिक तौर पर पहली जनवरी, 2024 से शुरू होगी. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने जहाँ संगठन के विस्तार को ऐतिहासिक बताया है, वहीं भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय क़रार दिया.

दक्षिण अफ़्रीक़ा की एंट्री
चीन और भारत दोनों शुरुआत से ही संगठन के सदस्य रहे हैं और दोनों देशों के नेता ब्रिक्स के 22 से 24 अगस्त तक के तीन दिवसीय 15वें सम्मेलन में भाग लेने के लिए मौजूद थे.

पहले इस संगठन का नाम ‘ब्रिक’ था और इसमें ब्राज़ील, रूस, चीन और भारत शामिल थे. इसका पहला सम्मेलन रूस के येकैटरिनबर्ग में हुआ था, जिसमें भारत का प्रतिनिधित्व तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किया था.

संगठन में साल 2011 में दक्षिण अफ़्रीक़ा के शामिल हो जाने के बाद इसे ‘ब्रिक्स’ (BRICS) बुलाया जाने लगा. ब्रिक्स का उद्देश्य एक ऐसी वैश्विक व्यवस्था का निर्माण है, जिसकी धुरी सिर्फ़ अमेरिका और पश्चिमी देशों के इर्द-गिर्द न घूमती हो.

ब्रिक्स अर्थव्यवस्था का एक नया मॉडल भी तैयार करने का दावा करता है, जो विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से अलग होगा.

समूह में शामिल होने का न्योता मिलने के बाद ईरान ने कहा कि वो ब्रिक्स की उस नीति का समर्थन करता है, जिसमें डॉलर के बदले दूसरी करेंसी को साझा व्यापार के लिए प्रयोग में लाने की बात कही जा रही है.

ब्रिक्स का आकार
ब्राज़ील के राष्ट्रपति लूला डी सिल्वा ने कहा, “अब दुनिया की जीडीपी में ब्रिक्स देशों की हिस्सेदारी 37 फ़ीसदी होगी, जबकि नए सदस्यों के शामिल होने के बाद विश्व की कुल आबादी में ब्रिक्स का हिस्सा 46 प्रतिशत हो जाएगा.”

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक़ साल 2022 के नवंबर के मध्य तक विश्व की कुल आबादी 8.1 अरब थी.

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) के अनुसार, साल 2001 में ब्रिक्स देशों की कुल जीडीपी आठ प्रतिशत थी, जो बढ़कर आज 26 (नए सदस्यों को शामिल किए जाने के पूर्व) हो गई है.

इस बीच दुनिया के सबसे अमीर सात देशों के गुट जी-7 का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 65 से घटकर 43 प्रतिशत हो गया है.

राष्ट्रपति लूला ने कहा, “अगर हम चीन के साथ व्यापार करते हैं तो हमें इसके लिए डॉलर की ज़रूरत क्यों है? ब्राज़ील और चीन दो बहुत बड़े मुल्क हैं, जो इसके (व्यापार) लिए अपनी मुद्रा का इस्तेमाल कर सकते हैं या फिर कोई और मुद्रा.”

इथियोपिया और ईरान
इन बयानों को डॉलर के कारण अंतरराष्ट्रीय बाज़ार और व्यापार पर अमेरिकी पकड़ को समाप्त या कम करने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है.

हालाँकि समूह में शामिल होने को लेकर अफ़्रीक़ा की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले ग़रीब देश इथियोपिया से लेकर दशकों से वैश्विक आर्थिक प्रतिबंध झेल रहे ईरान इच्छा जताते रहे थे, लेकिन यूएई और ख़ासतौर पर सऊदी अरब की ब्रिक्स की सदस्यता ने लोगों का ध्यान विशेष तौर पर खींचा है.

सऊदी अरब के पास दुनिया के कुल कच्चे तेल का 19 फ़ीसदी भंडार (रिज़र्व्स) है. दुनिया के कुल तेल उत्पादन का 12 प्रतिशत सऊदी अरब में होता है.

राजनयिक मामलों की वेबसाइट मॉर्डन डिप्लोमेसी ने कहा है कि साल 2022 के अंत में सऊदी अरब के पास विदेशी मुद्रा और सोने के भंडार की कुल क़ीमत 693 अरब डॉलर थी.


सऊदी अरब की अहमियत

मार्डन डिप्लोमेसी ने ये आँकड़ा सऊदी अरब के केंद्रीय बैंक के हवाले से दिया है. वेबसाइट का कहना है कि इन कारणों से वो वैश्विक वित्तीय और निवेश बाज़ार का एक अहम खिलाड़ी है.

दूसरा, सऊदी अरब खाड़ी में राजनयिक और सामरिक दोनों क्षेत्रों में अमेरिका का सबसे क़रीबी मित्र माना जाता रहा है. अमेरिका खाड़ी देश का सबसे बड़ा हथियार निर्यातक और पाँचवा सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी है.

विशेषज्ञों का कहना है कि हथियारों और सुरक्षा के लिए अमेरिका पर ज़रूरत से अधिक निर्भरता को समाप्त करना और अर्थव्यवस्था को तेल के साथ दूसरी दिशाओं में ले जाने की योजना इसकी बड़ी वजह है.

जानकार ये भी कहते हैं कि सऊदी अरब पश्चिमी ताक़तों के कम होते दबदबे और दूसरी शक्तियों के उदय को साफ़-साफ़ देख पा रहा है और वो विश्व के बदलते हालात के बीच नए रास्तों की तलाश में है, जिनमें कूटनीतिक मामलों में भी उसका किरदार बड़ा हो.

जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में पश्चिमी एशिया मामलों की प्रोफ़ेसर सुजाता ऐश्वर्या कहती हैं, “सऊदी अरब और यूएई के ब्रिक्स में शामिल होने की मुख्य वजह राजनीतिक से अधिक आर्थिक है. हालाँकि राजनीतिक कारणों का भी इसमें एक अहम हिस्सा है.”


भारत और ब्राज़ील
प्रोफ़ेसर सुजाता ऐश्वर्या कहती हैं, “खाड़ी के दोनों देशों ने उस स्थिति को बदलने की व्यापक योजना तैयार कर रखी है, जिसमें अर्थव्यवस्था पूरी तरह से कच्चे तेल पर आधारित है. चीन इस समय तेज़ी से एक ऐसी शक्ति के तौर पर उभर रहा है जो निवेश करने को और निवेश के लिए तैयार है और वो व्यापार के क्षेत्र में भी भरोसेमंद साथी है. सऊदी अरब और यूएई के भारत और ब्राज़ील से रिश्तों का सच भी यही है. भारत और ब्राज़ील को निवेश की ज़रूरत है और दोनों के पास एक बड़ा बाज़ार है.”

ब्रिक्स देशों की कुल आबादी दुनिया की जनसंख्या का 46 प्रतिशत है. विश्व के सबसे अमीर देशों के समूह जी-7 में दुनिया की 10 फ़ीसदी आबादी निवास करती है.

पश्चिमी एशिया के सबसे बड़े देश सऊदी अरब ने औद्योगिक नगरों से लेकर स्मार्ट सिटीज़, पुराने शहरों के नवीनीकरण, रैपिड ट्रांस्पोर्ट सिस्टम, पर्यटन और सौर ऊर्जा को लेकर जो ‘विज़न 2030’ तैयार किया है, अनुमान है कि इसमें एक खरब डॉलर का निवेश चाहिए.

इंडियन काउंसिल ऑफ़ वर्ल्ड अफ़ेयर्स के सीनियर फ़ेलो फ़ज़्जुर्रहमान सिद्दीक़ी कहते हैं कि खाड़ी के दोनों मुल्कों की नई अर्थव्यवस्था नीति के भीतर मूलभूत सुविधाओं के विकास के लिए बहुत बड़ी धनराशि और तकनीक की आवश्यकता है.

अरब जगत और अमेरिका
साल 2015 में स्थापित ब्रिक्स बैंक, जिसे न्यू डेवलपमेंट बैंक के नाम से जाना जाता है, अब तक 100 प्रोजेक्ट्स को 33 अरब डॉलर क़र्ज़ दे चुका है.

सऊदी अरब ने एनडीबी से क़र्ज़ लेने की इच्छा ज़ाहिर की है. यूएई पहले से ही बैंक का सदस्य है. बैंक की सदस्यता हासिल करने के लिए ब्रिक्स का सदस्य होना ज़रूरी नहीं है.

चीन के शंघाई में स्थित एनडीबी को दक्षिणी गुट वाले देश वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ़ के विकल्प के तौर पर पेश करते हैं. बैंक की स्थापना का उद्देश्य एक अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का नया मॉडल तैयार करना है, जो दक्षिणी देशों की ज़रूरतों को पूरा कर सके.

दक्षिणी देश उन मुल्कों के लिए इस्तेमाल की जाती है, जो या तो विकासशील हैं, या कम विकसित या फिर पिछड़ों की श्रेणी में गिने जाते हैं.

फ़ज़्ज़ुर्रहमान सिद्दीक़ी कहते हैं, “आधुनिकतम लड़ाकू विमान एफ़-35 की सऊदी अरब को बिक्री पर फ़्रीज़ लगा हुआ है जबकि समझा ये जा रहा था कि इससे खाड़ी के देश को पूरब में तेल उत्पादन संयंत्रों पर हो रहे हमलों पर लगाम लगाने में मदद मिलेगी.”

चीन से हथियारों की ख़रीद
देश के पूरब में स्थित तेल संयंत्र जैसे अबक़ायक़, खुरैस वग़ैरह कई बार हूती विद्रोहियों के ड्रोन और राकेट हमलों का निशाना बन चुके हैं.

प्रोफ़ेसर ऐश्वर्या के अनुसार अमेरिका के मित्र के रूप में देखे जाने वाले खाड़ी के साम्राज्य सामरिक मामलों में पश्चिमी ताक़त की छत्रछाया से निकलने की कोशिश में हैं और तेज़ी से आगे बढ़ रहे चीन से लेन-देन के लिए स्वतंत्र होना चाहते हैं.

हालाँकि वो कहती हैं कि सुरक्षा को लेकर अब भी उनकी निर्भरता बड़े हद तक अमेरिका पर बनी हुई है.

अमेरिकी हथियारों के 10 में से चार सबसे बड़े ख़रीदार सऊदी अरब, क़तर, कुवैत और यूएई खाड़ी के हैं.

लेकिन अब सऊदी अरब और यूएई ने चीन से हथियारों की ख़रीद शुरू कर दी है. सामरिक क्षेत्र में भी इनमें संबंध गहरे हो रहे हैं.

बशर अल असद
चीन और सऊदी अरब ने पिछले साल साथ मिलकर ड्रोन निर्माण शुरू करने की योजना बनाई है. यूएई ने चीन से अत्याधुनिक तकनीक के ट्रेनर जेट्स ख़रीदे हैं.

सीएनएन की एक रिपोर्ट के अनुसार यूएई और चीन इसी महीने उत्तर-पश्चिमी चीन के शिनजियांग में साझा वायुसेना अभ्यास करने जा रहे है.

फ़ज़्ज़ुर्रहमान सिद्दीक़ी के अनुसार खाड़ी के देशों का मोह अमेरिका से अरब विद्रोह के वक़्त से ही शुरू हो गया था, जब साल 2010 में ट्यूनीशिया से शुरू हुआ अरब स्प्रिंग लीबिया, मिस्र, सीरिया, यमन और यूएई के बिल्कुल पास मौजूद बहरीन तक जा पहुँचा. पश्चिमी ताक़तों ने ज़ैनुल आबदीन बेन अली, मुअम्मर गद्दाफ़ी और होस्नी मुबारक को उनके हाल पर छोड़ दिया.

सीरिया में सऊदी अरब की नाराज़गी के बावजूद बशर अल असद नहीं हटाए जा सके.

ईरान के साथ तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा के समय हुई परमाणु संधि को उनके बाद सत्तासीन हुए डोनल्ड ट्रंप ने रद्द कर दिया और फिर पश्चिमी देश आर्थिक प्रतिबंध समाप्त करने के लिए नित नई शर्तें रखने लगे.

जमाल ख़ाशोगी की हत्या
वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपने चुनावी भाषणों के दौरान सऊदी अरब को अलग-थलग करने की बात कही थी.

ये बात अमेरिका सऊदी अरब में मानवाधिकारों के कथित हनन और पत्रकार जमाल ख़ाशोगी की हत्या के आधार पर कहता रहा है.

अमेरिका जमाल ख़ाशोगी की हत्या का आरोप सऊदी प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान पर लगाता रहा है. हालाँकि सऊदी अरब ने हत्या में युवराज का हाथ होने की बात से बार-बार मना किया है.

खाड़ी देश को हथियार न बेचने के मामले में भी इसी तरह के बातें सामने आती रही हैं.

बीबीसी से बातचीत में प्रोफ़ेसर ऐश्वर्या ने कहा, “अक्तूबर 2022 में जब तेल उत्पादकों के समूह ओपेक प्लस देशों ने कच्चे तेल के उत्पादन में कटौती की घोषणा की, जिसके चलते अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमतों में भारी उछाल आया, तो राष्ट्रपति बाइडन ने कह डाला कि वो सऊदी अरब और अमेरिका के रिश्तों का फिर से लेखा-जोखा करेंगे, इसे लेकर सऊदी अरब में बेहद नाराज़गी देखने को मिली.”

सऊदी और ईरान के बीच समझौता
रूस और यूक्रेन की जंग के बाद पश्चिमी देशों के नेतृत्व वाले गुट और रूस-चीन के बीच की खाई सामने आ गई है.

एक तरफ़ भारत जैसे मुल्कों ने तमाम दबावों के बावजूद रूस पर लगे प्रतिबंधों को मानने से इनकार किया है और रूस से ख़रीद जारी रखी है, तो दूसरी ओर रूस-चीन और अमेरिका-यूरोप के देश आमने-सामने खड़े हैं.

खाड़ी के मुल्कों ने भी रूस और चीन से राजनयिक और सामरिक पहल को जारी रखा है और अब तो वो खुले तौर पर ब्रिक्स में शामिल हो रहे हैं.

एक बयान में रूस की विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता मारिया ज़खरोवा ने कहा, “ब्रिक्स सम्मेलन के नतीजे बेहद कामयाब हैं, अमेरिका के ज़रिए अलग-थलग किए जाने के हथियार का हमेशा के लिए सफ़ाया हो चुका है.”

प्रोफ़ेसर सुजाता एश्वर्या कहती हैं कि चीन के बीच-बचाव से क्षेत्र के दो बड़े प्रतिद्वंद्वियों सऊदी अरब और ईरान के बीच रिश्तों को बहाल करने को लेकर हुई संधि इसका एक बड़ा उदाहरण है.

स्वतंत्र विदेश नीति
इसके अलावा सऊदी अरब और यूएई की पहल पर सीरिया को अरब लीग में शामिल किए जाने को अमेरिका और पश्चिमी देशों ने पसंद नहीं किया.

साथ ही रूस के ख़िलाफ़ यूक्रेन का समर्थन करने से दोनों का इनकार ये साफ़ करता है कि दोनों देश वैश्विक मामलों में अमेरिका के पिछलग्गू बनने की बजाए अपनी स्वतंत्र विदेश नीति अपनाना चाहते हैं.

तक़रीबन 40 सालों से तनावपूर्ण रहा सऊदी अरब और ईरान का रिश्ता साल 2016 में पूरी तरह से समाप्त हो गया. सीरिया और यमन में जारी जंग में भी दोनों देश अलग-अलग गुटों के साथ रहे थे.

कच्चे तेल से लेकर, अमेरिका में भारी निवेश के बावजूद सऊदी अरब की छवि मानवधिकारों के हनन करने वाले मुल्क और कट्टर इस्लामी सोच के सप्लायर की बनी रही.

फ़ज्‍ज़ुर्रहमान सिद्दीक़ी कहते हैं कि सऊदी अरब और ख़ासतौर पर प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान उस छवि को बदलना चाहते हैं.

अरब देशों में सामाजिक सुधार
हाल के दिनों में महिलाओं को ड्राइविंग की इज़ाज़त मिल गई है. वो पुरुषों के साथ कंसर्ट और खेल समारोहों में शामिल हो सकती है.

पुरुष अभिभावक की आज्ञा के बिना भी उन्हें पासपोर्ट हासिल करने का अधिकार मिल गया है. सिनेमा पर हमेशा से लगा प्रतिबंध समाप्त कर दिया गया है और पुरुष और स्त्रियों के साथ-साथ होने को बढ़ावा दिया जा रहा है.

रूस की थिंक टैंक रस्ट्रैट की डायरेक्टर एलिना पनिना ने अपने एक ट्वीट में कहा है कि इथियोपिया का ब्रिक्स में सम्मिलित होना पूरे अफ़्रीक़ा के लिए एक संदेश है.

“अफ़्रीका महाद्वीप के लिए इथियोपिया के ब्रिक्स में शामिल होने से अधिक मज़बूत कोई संकेत नहीं हो सकता था.”

बहुत थोड़े समय को छोड़कर इथियोपिया कभी भी किसी यूरोपीय देश का उपनिवेश नहीं रहा है. हाल के सालों में कई अफ़्रीकी देशों में पश्चिमी ताक़तों के ख़िलाफ़ आवाज़ें बुलंद हो रही हैं.

चीन से तनावपूर्ण संबंध
हालांकि मार्डन डिप्लोमेसी के एक लेख में चेतावनी दी गई है कि खाड़ी देशों के ब्रिक्स में सम्मिलित होने के बाद ग्लोबल साउथ और विकसित देशों के बीच प्रतिस्पर्धा और बढ़ेगी.

जोहानिसबर्ग में हुए 15वें ब्रिक्स सम्मेलन के पहले अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने जापान और दक्षिण कोरिया के अपने समकक्षों से कैंप डेविड में भेंट की.

दोनों देश सदूर-पूर्व में अमेरिका के निकट सहयोगी हैं और दोनों का चीन से तनावपूर्ण संबंध रहा है.

जहाँ प्रोफ़ेसर एशवर्या कहती हैं कि अमेरिका को वैश्विक पटल पर हो रहे बदलाव को समझकर राजनयिक और सामरिक नीतियों में फेरबदल की ज़रूरत है, वहीं वो ब्रिक्स के आंतरिक द्वंद्वों जैसे भारत और चीन के बीच जारी सीमा विवाद और सऊदी अरब और ईरान के कटु रिश्तों की तरफ़ भी ध्यान खींचती हैं.

फ़ज्ज़ुर्रहमान सिद्दीक़ी भी कहते हैं कि सऊदी अरब और ईरान के बीच जो रिश्ते क़ायम हुए हैं, वो सिर्फ़ हुकूमत के स्तर पर है. दो अलग-अलग इस्लामी समुदायों से ताल्लुक़ रखनेवाले देशों के बीच ये किस तरह काम करेगा, ये अभी देखा जाना बाक़ी है.

जानकार इस ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि जिन छह नए सदस्यों को समूह में पिछले सप्ताह शामिल करने का न्योता दिया गया है वो सभी चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का हिस्सा हैं.

इस समय ब्रिक्स में ब्राज़ील और भारत को छोड़कर 11 में से नौ सदस्य चीन की इस परियोजना का हिस्सा हैं, जिसका ध्येय है एक क्षेत्र को दूसरे से जोड़ना. ब्रिक्स के बैंक में भी फ़िलहाल चीन की पूँजी सबसे अधिक है.

कई जगह ऐसी ख़बरें थी कि भारत और ब्राज़ील समूह के विस्तार को लेकर उतने उत्साहित नहीं थे जितना की चीन और रूस. ख़बरें ये भी हैं कि चीन पाकिस्तान को भी समूह का हिस्सा बनाने के लिए ज़ोर लगा रहा है.

प्रोफ़ेसर ऐश्वर्या कहती हैं कि हालाँकि भारत इसे रोकने की कोशिश कर रहा है, लेकिन देर-सबेर पाकिस्तान को समूह की सदस्यता मिल जाएगी. उस नाते हो सकता है कि भारत पाकिस्तान के साथ किसी तरह के मेल-जोल की शुरुआत करे.

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फ़ैसल मोहम्मद अली
पदनाम,बीबीसी संवाददाता