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भारतीय दंड संहिता, नए बिल से क्या बदल सकता है?

बीते शुक्रवार, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में तीन नए विधेयक पेश किए, जो आगे आने वाले दिनों में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (एविडेंस एक्ट) की जगह लेंगे.

क़ानूनी विशेषज्ञ बताते हैं कि नए क़ानून पिछले क़ानूनों से ज़्यादा अलग नहीं हैं. इसकी भाषा पुराने क़ानून से 80 फ़ीसदी मिलती-जुलती है, लेकिन इनमें कुछ महत्वपूर्ण बदलाव भी किए गए हैं.

जैसे- भारतीय दंड संहिता, 1860 की जगह प्रस्तावित की गई ‘भारतीय न्याय संहिता, 2023’ में आईपीसी की विवादित धारा 377 को पूरी तरह से हटा दिया गया है.

धारा 377 समलैंगिक संबंधों को दंडित करती थी.

विशेषज्ञों ने चिंता ज़ाहिर की है कि नया क़ानून धारा 377 के तहत पुरुषों, सीमित मामलों में ट्रांसजेंडरों और विवाहित महिलाओं को मिलने वाली सुरक्षा को भी ख़त्म कर देगा.

धारा 377 क्या है?
भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के मुताबिक़ “अगर कोई व्यक्ति अप्राकृतिक रूप से यौन संबंध बनाता है तो उसे उम्र क़ैद या जुर्माने के साथ दस साल तक की क़ैद हो सकती है.”

साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को आंशिक रूप से रद्द कर दिया था.

न्यायाधीशों ने कहा कि वयस्कों के बीच सहमति से बनाए गए किसी भी तरह के यौन संबंध को अपराध नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि यह संविधान द्वारा मिली समानता, जीवन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के ख़िलाफ़ है.

हालांकि, तब न्यायाधीशों ने कहा था कि बिना सहमति के बनाए गए यौन संबंध को अभी भी धारा 377 के तहत अपराध माना जाएगा.

लेकिन भारतीय न्याय संहिता में हुए इस बदलाव यानी धारा 377 को पूर्ण रूप से हटा देने की पहल न केवल समलैंगिकता, बल्कि पुरुषों और महिलाओं के बीच सहमित या गैर-सहमति से हुए एनल और ओरल सेक्स को भी ग़ैरक़ानूनी घोषित कर देगा.

इसका उपयोग किस लिए किया जाता है?
वर्तमान में, भारत में रेप से जुड़े क़ानून जेंडर आधारित हैं. यानी क़ानून के मुताबिक़ केवल एक पुरुष ही किसी महिला से बलात्कार कर सकता है. ये जेंडर न्यूट्रल नहीं हैं.

जबकि धारा 377 पुरुष-पुरुष और पुरुष- ट्रांसजेंडर के बीच रेप से जुड़े मामलों में महत्पवूर्ण सुरक्षा की गारंटी देता है.

दिल्ली में रहने वाले क्रिमिनल लॉयर मिहिर सैमसन ने धारा-377 से जुड़े कई मामलों का प्रतिनधित्व किया है.

वो कहते हैं, “दुर्भाग्यपूर्ण है कि धारा 377 का इतिहास विवादित रहा है, लेकिन यही एकमात्र ऐसा क़ानून है जिसका इस्तेमाल कोई भी शख़्स, पुरुषों के बीच हुए यौन उत्पीड़न के मामलों में कर सकता है.”

उन्होंने कहा कि ट्रांस-व्यक्तियों के संबंध में ये अनुभव “समान” नहीं रहे हैं.

उन्होंने कहा, “कुछ सीमित मामलों में पुलिस ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के खिलाफ यौन उत्पीड़न की रक्षा के लिए इस धारा को लागू किया है.”

दिल्ली उच्च न्यायालय में लंबित याचिका
इसके अलावा मैरिटल रेप के कुछ मामलों में भी धारा 377 लगाई गई है. ऐसे उदाहरण हैं जहां पतियों के अपनी पत्नियों के साथ बिना सहमति एनल या ओरल सेक्स करने पर धारा 377 के तहत मामले दर्ज किए गए हैं, अदालतों ने आरोप तय किए हैं और गिरफ़्तारियां भी की गई हैं.

हालांकि इस बात पर दुविधा बरकरार है कि मैरिटल रेप के मामलों में धारा 377 के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है या नहीं.

ऐसा इसलिए है क्योंकि रेप की परिभाषा में बिना सहमति ओरल और एनल सेक्स भी शामिल है. लेकिन शादी में रहते हुए पतियों पर इस धारा के तहत मुकदमा नहीं चलाया जा सकता.

वर्तमान में दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका लंबित है जो इस दुविधा यानी धारा 377 का इस्तेमाल पतियों के खि़लाफ़ किया जा सकता है या नहीं, उसे स्पष्ट करने की मांग करता है.

सुप्रीम कोर्ट जल्द ही आईपीसी के तहत मैरिटल रेप से जुड़े अपवाद की वैधता पर सुनवाई शुरू करेगा. अपवाद, जो पति को पत्नी की गैर-सहमति से बनाए गए यौन संबंध के मामले में दंडित होने से राहत देता है.

नए बिल से क्या बदल सकता है?
यौन अपराधों से जुड़े मामलों में नाबालिग बच्चों को अभी भी “लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012” के तहत संरक्षित किया जाता है. 2012 में आए इस कानून से पहले, धारा 377 का इस्तेमाल नाबालिग लड़कों से यौन संबंध बनाने वाले व्यस्क पुरुषों के ख़िलाफ़ किया जाता था.

ऐसे में विशेषज्ञों का मानना है कि धारा 377 को पूरी तरह से हटाकर सरकार ने जल्दबाज़ी कर दी है. इससे पुरुषों और ट्रांसजेंडर्स को मिलने वाली सुरक्षा अब छीन ली जाएगी.

सैमसन कहते हैं, “धारा 377 के पूरी तरह निरस्त होने से, यौन उत्पीड़न के मामलों में पुरुषों को अब कोई सुरक्षा नहीं मिलेगी.”

वहीं ट्रांस-व्यक्तियों के ख़िलाफ़ यौन शोषण के मामलों में ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 की धारा 18 के तहत अधिकतम दो साल की सजा तय है.

सैमसन कहते हैं, “हालांकि, यह सज़ा बहुत कम है और पुलिस भी ट्रांसजेंडर अधिनियम को लागू करने में कोताही बरतती है.”

नए बिल के तहत क्या सुरक्षा दी जा सकती है?
हालांकि, नए बिल में कुछ ऐसी धाराएं बरकरार रखी गई हैं जिनका इस्तेमाल कुछ ऐसी परिस्थितियों में किया जा सकता है.

जैसे, नए बिल की धारा 138 में कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति किसी दूसरे का अपहरण करता है या उसे “अप्राकृतिक वासना” का शिकार बनाता है तो उसे 10 साल के लिए जेल भेजा जा सकता है.

धारा 38 के तहत यह भी कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति किसी की “अप्राकृतिक वासना” के ख़िलाफ़ अपने बचाव में सामने वाले की हत्या कर देता है तो ये हत्या अपराध नहीं माना जाएगा.

लेकिन इन शब्दों को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है.

न्यायालयों ने पहले भी “अप्राकृतिक वासना” शब्द का उपयोग पुरुषों के बीच यौन संबंध या वयस्क पुरुष और बच्चे के बीच यौन संबंध के मामलों में सुनवाई के दौरान किया है.

पर नए प्रस्तावित विधेयक के तहत यह केवल उन्हीं मामलों में लागू होगी जहां अपहरण का पहलू भी शामिल होगा.

लेकिन इस धारा की कुछ चुनौतियाँ भी हैं.

सैमसन कहते हैं, “ये धाराएं वर्तमान आईपीसी में भी मौजूद हैं लेकिन हम इन्हें नियमित रूप से लागू होते नहीं देखते हैं.”

इसके अलावा इनका इस्तेमाल भी केवल विशिष्ट परिस्थितियों में ही किया जाएगा.

सैसमन ने कहा, “सबसे पहले, आपको यह साबित करना होगा कि एक व्यक्ति का अपहरण कर लिया गया है.”

वो आगे कहते हैं कि ‘प्राकृतिक’ और ‘अप्राकृतिक’ सेक्स के बीच का अंतर अपने आप में पेचीदा है. सुप्रीम कोर्ट ने भी 2018 में धारा 377 को आंशिक रूप से रद्द करते समय इस बात को रेखांकित किया था.

जबकि कानूनी विशेषज्ञों ने नए बिलों की आलोचना की है, वे नहीं चाहते कि मौजूदा धारा 377 को नए क़ानून में जगह दी जाए .

सैमसन ने कहा, “महिलाओं के बलात्कार के संदर्भ में मौजूद जेंडर आधारित क़ानून को बरकरार रखते हुए हम चाहते हैं कि एक ऐसी धारा ड्राफ्ट की जाए…जो समलैंगिक और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को यौन उत्पीड़न से बचाता हो.”

इन बिलों को फिलहाल समीक्षा के लिए गृह मामलों की स्थायी समिति के पास भेजा गया है, जो इनमें बदलाव की सिफारिश करेगी.

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उमंग पोद्दार
पदनाम,बीबीसी संवाददाता