धर्म

पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कहना है-मुसलमान का मुस्लिम भाई पर तीस हक़ हैं और यह तीस हक़ निम्नलिखित है

मनुष्य जब अपने धार्मिक बंधुओं से अधिक रुचि व्यक्त करना चाहता है तब वह उसे अपना दोस्त और मित्र कहता है किन्तु इस्लाम ने मुसलमनों की दोस्ती के रिश्ते को इतना ऊपर उठा दिया है कि दो मनुष्यों के बीच सबसे निकट रिश्ता हो गया, इस रिश्ते का आधार बराबरी और समानता है और इस रिश्ते में दोनों मित्रों के बीच बराबर के संबंध पाए जाते हैं।

इस्लाम धर्म में इस्लामी भाई चारे और मुसलमानों के बीच दोस्ती और भाई चारे पर बल दिया गया है। पवित्र क़ुरआन की आयत में भी इस बात पर बल दिया गया है कि मुसलमान एक दूसरे के आपस में भाई हैं। इस विषय की ओर सूराए हुजूरात में संकेत किया गया है। मनुष्य जब अपने धार्मिक बंधुओं से अधिक रुचि व्यक्त करना चाहता है तब वह उसे अपना दोस्त और मित्र कहता है किन्तु इस्लाम ने मुसलमनों की दोस्ती के रिश्ते को इतना ऊपर उठा दिया है कि दो मनुष्यों के बीच सबसे निकट रिश्ता हो गया, इस रिश्ते का आधार बराबरी और समानता है और इस रिश्ते में दोनों मित्रों के बीच बराबर के संबंध पाए जाते हैं।

इस्लाम धर्म के इस महत्वपूर्ण सिद्धांत के आधार पर मुसलमान चाहे वह कहीं का भी रहने वाला हो, जो भी ज़बान बोलता हो या जितनी भी उम्र का हो, उसे दूसरे से गहरी मित्रता का आभास होना चाहिए, चाहे इनमें से एक पूरब का निवासी हो और दूसरा पश्चिम का। दुनिया के कोने कोने से हज संस्कार अंजाम देने वाले मुसलमान, इस रिश्ते और निकटता को अच्छी तरह समझते हैं और इस प्रकार इस्लाम धर्म का यह महत्वपूर्ण क़ानून हज के रूप में व्यवहारिक होता है।

दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि इस्लाम दुनिया के समस्त मुसलमानों को एक परिवार समझता है और सभी को भाई और बहन कहता है। यह बात केवल नारे तक ही सीमित नहीं है बल्कि अमल और परस्पर वचनों में भी वह एक दूसरे के भाई और बहन हैं। इस्लामी रिवायतों में भी इस विषय पर बहुत अधिक बल दिया गया है। उदाहरण स्वरूप पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कहना है कि जिसने भी सुबह की और मुसलमानों के काम पर ध्यान नहीं दिया वह मुसलमान नहीं है।

जो भी ईश्वर और उसके दूत का सम्मान करता है और उनको महत्व देता है वह मुसलमानों की प्रतिष्ठा और सम्मान की अधिक रक्षा करता है क्योंकि इस्लाम धर्म की नज़र में मोमिन का सम्मान, ईश्वर और पैग़म्बरे इस्लाम का सम्मान है और जो व्यक्ति भी मुसलमानों को घटिया और तुच्छ समझता है वह अपने ईमान की इमारत को जो ईश्वरीय दूत और प्रलय पर ईमान पर टिकी हुई है, ख़राब कर रहा है क्योंकि मुसलमानों की प्रतिष्ठा को तुच्छ समझना, ईश्वरीय दूतों और ईश्वरीय बंदों को तुच्छ समझने के समान है।

अबुल मामून हारेसी कहते हैं कि मैंने हज़रत इमाम सादिक़ से पूछा कि मोमिनों पर मोमिनों का क्या हक़ है? हज़रत इमाम सादिक़ ने फ़रमाया कि सत्य बात यह है कि मोमिन का मोमिन पर यह हक़ है कि वह उसे दिल से दोस्त रखे, माल में उसका साथ दे, उसके बदले उसके परिवार की सरपरस्ती करे और जिसने भी अपने मोमिन भाई पर अत्याचार किया, तो अपने भाई की मदद के लिए जल्दी करो और उससे अत्याचार दूर करो और यदि मुसलमानों के बीच युद्ध में जीता हुआ माल हो और उसका भाई उपस्थित न हो, उसका हिस्सा हासिल करे, और यदि मर जाए तो उसकी क़ब्र के दर्शन करने जाए। उस पर अत्याचार न करे। उसको धोखा न दे, उससे विश्वासघात न करे, उसको दुख सुख में अकेला न छोड़े, उसको न झुठलाए, उससे उफ़ न कहे, यदि उसने उफ़ कह दिया तो उसके साथ अध्यात्मिक संबंध तोड़ लिए, जब भी उसे कहा तुम मेरे दुश्मन तो काफ़िर हो गया, जब भी उस पर आरोप लगाए तो उसका ईमान ऐसे घुल जाता है जैसे पानी में नमक।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कहना है कि मुसलमान का मुस्लिम भाई पर तीस हक़ हैं और इससे ज़िम्मेदारी नहीं छूटती किन्तु यह कि या तो इन अधिकारों को पूरा करे या फिर मुसलमान भाई को माफ़ कर दो। यह तीस हक़ निम्नलिखित हैः उसकी ग़लतियों को माफ़ कर दो, नराज़गी में उसके प्रति दयालु रहो, उसके राज़ को छिपाए रखो, उसकी ग़लतियों की भरपाई करो, उसकी बात मान लो, बुराई करने वालों के सामने उसका बचाव करो, हमेशा उसका भला चाहो, उसकी दोस्ती का ख़याल रखो, उसे किए वादों का सम्मान करो, बीमार होने पर उसे देखने जाओ, मर जाए तो उसकी शवयात्रा में भाग लो, उसके निमंत्रण को स्वीकार करो, उसके उपहार स्वीकार करो, उपहार के बदले में उसे कुछ दो, उसकी अनुकंपाओं का आभार व्यक्त करो, उसकी मदद का प्रयास करो, उसकी मां बेटियों की रक्षा करो, छींक आने पर अल्लहमदुलिल्लाह कहो, उसके खोई हुई चीज़ों को ढुंढवाने में मदद करो, उसके सलामों का जवाब दो, उसकी कही बातों को सच समझो, उसको अच्छा ईनाम दो, उसकी क़समों को सच्चा समझो, उसकी दुआ सुनो, उसके दोस्त को दोस्त समझो और उससे दुश्मनी न करो, उसकी मांगों की सिफ़ारिश करो, उसकी मदद का प्रयास करो, चाहे वह अत्याचारी हो पीड़ित , किन्तु अत्याचारी होने के समय उसकी सहायता का अर्थ यह है कि उसको अत्याचार से दूर रखो और जब वह पीड़ित हो, तो यह अर्थ है कि उसको उसका अधिकार दिलवाने में मदद करो, हालात में उसे अकेला न छोड़ो, भली चीज़ों मे जो चीज़ स्वयं के लिए पसंद करो उसके लिए भी पसंद करो और बुरी चीज़ों में जो चीज़ अपने लिए ना पसंद करो उसके लिए भी पसंद न करो।

इस्लाम चाहता है कि इस्लामी समाज में पूरी तरह सुरक्षा रहे, लोग न केवल एक दूसरे से हाथापाई न करें बल्कि ज़बान के लेहाज़ से बल्कि इससे भी बढ़कर वैचारिक दृष्टि से सुरक्षित रहें और हर कोई इस बात का आभास करे कि उसके इलाक़े में कोई भी उसपर कटाक्ष के तीर नहीं छोड़ेगा और उसको बुरा भला नहीं कहेगा, यह उच्च सुरक्षा है जो एक धार्मिक और मोमिन समाज के अलावा कहीं और संभव नहीं है, पैग़म्बरे इस्लाम (स) एक हदीस में फ़रमाते हैं कि ईश्वर ने मुसलमान की जान, माल और उसकी इज्ज़त व आबरू दूसरों पर हराम कर रखी है और इसी प्रकार उसके बारे में ग़लत सोचने को भी हराम कर रखा है।

मुसलमानों का सम्मान करना, शिष्टाचारिक विशेषताओं का भाग है। इसका अर्थ, उसकी बुराई करना, उसपर आरोप लगाना, उस पर लांछन लगाना, उसका मज़ाक़ उड़ाना, उसकी ओर इशारे करना हराम है जबकि उससे विनम्रता का प्रदर्शन करना, उनका ख्याल रखना, निर्धनों और ग़रीबों का ध्यान रखना आवश्यक है। इसी प्रकार उनसे मिलने जाना, उनके अनाथों का ध्यान रखना, उनकी परेशानियों को दूर करना, उनका हालचाल पूछना, उनका मार्गदर्शन करना, बुराईयों से उन्हें रोकना, उनके क्रोध को ठंडा करना, दिन चर्या और भौतिक मामलों में उनकी सहायता करना, उनकी ख़ुशियों में शामिल होना, यह सब पैग़म्बरे इस्लाम के बताए हुए मुसलमानों के मुसलमान पर अधिकार समझे जाते है और जो भी इससे निश्चेत रहेगा वह पैग़म्बरे इस्लाम के अनुसार मुसलमान ही नहीं है।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन अपने दीन बंधुओं के साथ हक़ के बारे में कहते हैं कि तुम्हारे दीन बंधुओं के संबंध में तुम्हारा यह अधिकार है कि दिल से उसकी सुरक्षा की कामना करो और अपनी कृपा दृष्टि से उसको लाभान्वित करो और उसके पापों को क्षमा करो, उससे मिलजुलकर रहो, उसके सुधार के लिए प्रयास करो, उसकी भलाई का जो उसने तुम पर और स्वयं पर किया है, आभार व्यक्त करो क्योंकि स्वयं से नेकी करना भी एक प्रकार की भलाई है क्योंकि उसने तुम्हें परेशान नहीं किया और अपनी अजीविका तुम पर थोपी नहीं और स्वयं उसकी रक्षा की, सबके लिए दुआ करो, हर एक की मदद करो, हर एक का उसके स्थान के अनुसार सम्मान करो, बड़ों को पिता की भांति, बच्चों को अपनी संतान की भांति और अधेड़ उम्र के लोगों को अपना भाई समझो, जो भी तुम्हारे पास आए उससे कृपा और दयालुता से मिलना और भाईचारे के हक़ का पालन करना।