साहित्य

#मुफ़लिस_का_सहारा_दिल_ही_तो_है…….मनस्वी अपर्णा की रचना पढ़िये!

मनस्वी अपर्णा
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#मुफ़लिस_का_सहारा_दिल_ही_तो_है

मुझे बचपन और अभाव कुछ अर्थों में एक जैसे लगते हैं….. कारण बताती हूं, दोनों में आशा और अहसास की कोमलता बची रहती है, एक कौमार्य होता है दोनों ही परिस्थितियों में…. जब हम बच्चे होते हैं तो हमारे पास बहुत सी आशाएं होती हैं जो बिलकुल अनछुई होती है भले ही हमसे पहले कई लोगों ने उसी क्षेत्र में वैसी ही आशा रखकर असफलता का स्वाद क्यूं न चखा हो…. हमारे लिए सब कुछ अनदेखा, अनजाना होता है और इस अंजानेपन में गज़ब का आकर्षण होता है….. आंखों में ज़िंदा सपनें हर विषम परिस्थिति को पार कर जाने का माद्दा रखते हैं, उससे भी बढ़कर होता है वह भाव जो नया अनुभव लेने को बेताब होता है… ये अलग बात है कि यह भाव ही आगे जाकर दुनिया के प्रति वितृष्णा से भर देता है और हम कोमल से धीमे धीमे कठोर और फिर बिलकुल बेहिस होते जाते हैं…..

गरीबी में भी लगभग यही होता है करुणा और संवेदना ज़्यादा होती है, परिवार आपस में मिलकर रहता है एक आशा होती है कि धन के आ जानें से दुःख दूर हो जायेंगें संपत्ति विपत्ति को हर लेगी, हालांकि ऐसा होता नहीं है धन से मात्र भौतिक सुविधाएं इकठ्ठा होती है और दुख अपनी जगह कायम रहते हैं, पैसा आते ही सबसे पहले व्यक्ति की संवेदना मरती है… कल तक जो सुख दुख के साथी थे शनैः शनै: दूर होते जाते हैं धन क़रीब होता जाता है और अंततः यह समझ आने लगता है धन से सिर्फ़ घर भरा है मन तो और रीता हो गया.….

आप कभी सड़क पर लोगों को देखिएगा इस होड़ की एक जीती जागती तसवीर मिल जायेगी….. पैदल या बस में सफ़र करने वाले चाहते हैं एक दोपहिया गाड़ी हो तो ये सफ़र ज़रा आसान हो, दो पहिया वाले धूप,धूल और जगह की तंगी से परेशान सोचते हैं चार पहिया हो तो सफ़र ज़रा आसान हो, चार पहिया वाले सोचते हैं थोड़ा और अपडेट मॉडल लें तो ये सफ़र ज़रा आसान हो और अपडेट मॉडल वाले सोचते हैं कैसे इस भीड़ से निजात मिले…. भीड़ सोचती है कैसे दूसरों को पछाड़ कर कम समय और कम खर्च में गंतव्य तक पहुंच जाएं और ये होड़, ये उम्मीदें जारी रहती हैं, उसमें कुछ मेरे जैसे लोग भी होते हैं जो हर दौर से गुज़रे हैं जो इस पूरे घटनाक्रम में फिलॉसोफी ढूंढते हैं। कल एक छोटी सी बच्ची ने सड़क पार करते हुए मेरी गाड़ी को रुकने का इशारा किया मैं उसके सम्मान में रुक गई, बच्ची पहनावे से किसी गरीब की लाड़ली जान पड़ती थी, और मैं उसका ये आत्मसम्मान और उम्मीद बरकरार रखना चाहती थी, मैं चाहती थी कि अभी थोड़े दिन और उसके समानता के भ्रम बने रहें.…. मैंने मुस्कुराते हुए उसे रास्ता दिया वो ठुमक कर साथ वालों के साथ निकल गई।

मुझे सदा लगता है सबसे बुरा होता है किसी की उम्मीदों का मर जाना, उस विस्मय का खो जाना जिसके बदौलत हम रात को सोते वक्त सुबह की उम्मीद लिए सोते हैं, जिसके भरोसे हमें आने वाले कल का इंतज़ार होता है उस पर यक़ीन क़ायम रहता है, वरना फिर जीने के नाम पर रोज़ सिर्फ़ मौत का इंतज़ार होता है।
ऐसा मुझे मेरे मतानुसार लगता है।

मनस्वी अपर्णा