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नयी संसद का नाम अंग्रेज़ी में क्यों, अकेले दम ब्रिटिश सरकार को भारत से खदेड़ने वाले वीर सावरकार के नाम पर होता तो बहुत अच्छा रहता : रिपोर्ट

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 28 मई को संसद के नए भवन का उद्घाटन करेंगे.

कांग्रेस समेत 19 विपक्षी पार्टियों ने नई संसद के उद्घाटन समारोह का बायकॉट करने का फैसला लिया है.

उनका कहना है कि इसका उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जगह राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के हाथों से होना चाहिए.

नए संसद भवन पर हो रही राजनीति से अलग कुछ ऐसे सवाल भी हैं जिनके जवाब सोशल मीडिया से लेकर गूगल तक पर खोजे जा रहे हैं.

नई संसद कैसे दिखाई देगी, आखिर इसकी जरूरत क्यों पड़ी, इसे किसने बनाया और अब क्या पुरानी संसद को तोड़ दिया जाएगा?

नई संसद की जरूरत क्यों पड़ी?
सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के तहत नए संसद भवन का निर्माण किया गया है. इस पूरे प्रोजेक्ट पर 20 हजार करोड़ रुपये खर्च होने हैं.

दरअसल, सेंट्रल विस्टा राजपथ के क़रीब दोनों तरफ़ के इलाक़े को कहते हैं जिसमें राष्ट्रपति भवन से इंडिया गेट के करीब प्रिंसेस पार्क का इलाक़ा भी शामिल है.

सेंट्रल विस्टा के तहत राष्ट्रपति भवन, संसद, नॉर्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक, उपराष्ट्रपति का घर भी आता है.

संसद भवन करीब 100 साल पुराना है. केंद्र सरकार का कहना है कि मौजूदा संसद भवन में सांसदों के बैठने के लिए पर्याप्त जगह नहीं है.

सीटों की कमी- मौजूदा वक्त में लोकसभा सीटों की संख्या 545 है. 1971 की जनगणना के आधार पर किए गए परिसीमन पर आधारित इन सीटों की संख्या में कोई बदलाव नहीं हुआ है.

सीटों की संख्या पर यह स्थिरता साल 2026 तक रहेगी, लेकिन उसके बाद सीटों में बढ़ोतरी की संभावना है. ऐसे में जो नए सांसद चुनकर आएंगे उनके लिए पर्याप्त स्थान नहीं होगा.

बुनियादी ढांचा- सरकार का कहना है कि आजादी से पहले जब संसद भवन का निर्माण किया जा रहा था तब सीवर लाइनों, एयर कंडीशनिंग, अग्निशमन, सीसीटीवी, ऑडियो वीडियो सिस्टम जैसी चीजों का खासा ध्यान नहीं रखा गया था.

बदलते समय के साथ संसद भवन में इन्हें जोड़ा तो गया लेकिन उससे भवन में सीलन जैसी दिक्कतें पैदा हुआ हैं और आग लगने का खतरा बढ़ा है.

सुरक्षा- करीब 100 साल पहले जब संसद भवन का निर्माण हुआ था, उस वक्त दिल्ली भूकंपीय क्षेत्र-2 में थी लेकिन अब यह चार में पहुंच गई है.

कर्मचारियों के लिए कम जगह- सांसदों के अलावा सैकड़ों की संख्या में ऐसे कर्मचारी हैं जो संसद में काम करते हैं. लगातार बढ़ते दबाव के चलते संसद भवन में काफी भीड़ हो गई है.

कितनी अलग है नई संसद?
संसद में लोकसभा भवन को राष्ट्रीय पक्षी मयूर और राज्यसभा को राष्ट्रीय फूल कमल की थीम पर डिजाइन किया गया है.

पुरानी लोकसभा में अधिकतम 552 व्यक्ति बैठ सकते हैं. नए लोकसभा भवन में 888 सीटों की क्षमता है.

पुराने राज्यसभा भवन में 250 सदस्यों के बैठने की जगह है, वहीं नए राज्यसभा हॉल की क्षमता को बढ़ाकर 384 किया गया है.

नए संसद भवन की संयुक्त बैठक के दौरान वहाँ 1272 सदस्य बैठ सकेंगे.

इसके अलावा नए संसद भवन में और क्या होगा?
अधिकारियों के अनुसार नए भवन में सभी सांसदों को अलग दफ़्तर दिया जाएगा जिसमें आधुनिक डिजिटल सुविधाएं होंगी ताकि ‘पेपरलेस दफ़्तरों’ के लक्ष्य की ओर बढ़ा जा सके.

नई इमारत में एक भव्य कॉन्स्टिट्यूशन हॉल या संविधान हॉल होगा जिसमें भारत की लोकतांत्रिक विरासत को दर्शाया जाएगा. वहाँ भारत के संविधान की मूल प्रति को भी रखा जाएगा.

साथ ही वहाँ सांसदों के बैठने के लिए बड़ा हॉल, एक लाइब्रेरी, समितियों के लिए कई कमरे, भोजन कक्ष और बहुत सारी पार्किंग की जगह होगी.

इस पूरे प्रोजेक्ट का निर्माण क्षेत्र 64,500 वर्ग मीटर में फैला हुआ है. मौजूदा संसद भवन से नई संसद का क्षेत्रफल 17,000 वर्ग मीटर अधिक है.

पुरानी संसद का क्या होगा?
पुराने संसद भवन को ब्रिटिश वास्तुकार सर एडविन लुटियंस और हर्बर्ट बेकर ने ‘काउसिंल हाउस’ के रूप में डिजाइन किया था. इसे बनाने में छह साल(1921-1927) लगे थे. उस वक्त इस भवन में ब्रिटिश सरकार की विधान परिषद काम करती थी.

तब इसे बनाने पर 83 लाख रुपये खर्च हुए थे, वहीं आज नए भवन को बनाने में करीब 862 करोड़ रुपये खर्च आया है.

जब भारत आजाद हुआ तो ‘काउसिंल हाउस’ को संसद भवन के रूप में अपनाया गया.

अधिकारियों के अनुसार मौजूदा संसद भवन का इस्तेमाल संसदीय आयोजनों के लिए किया जाएगा.

कौन बना रहा है नया संसद भवन

नई इमारत बनाने का ठेका टाटा प्रोजेक्ट्स लिमिटेड को मिला है. उसने सितंबर 2020 में 861.90 करोड़ रुपये की बोली लगाकर ये ठेका हासिल किया था.

नया संसद भवन सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट का हिस्सा है. इस प्रोजेक्ट का खाका गुजरात स्थित एक आर्किटेक्चर फ़र्म एचसीपी डिज़ाइन्स ने तैयार किया है.

सेंट्रल पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट (सीपीडब्ल्यूडी) ने संसद, कॉमन सेंट्रल सेक्रेटेरिएट और सेंट्रल विस्टा के डेवलपमेंट के लिए कंसल्टेंसी का काम एचसीपी डिजाइन, प्लानिंग एंड मैनेजमेंट को पिछले अक्टूबर, 2019 में सौंपा था.

सेंट्रल विस्टा इलाके के मास्टर प्लान के डिवेलपमेंट और नई जरूरतों के हिसाब से बिल्डिंग्स का डिजाइन बनाने के काम में यह कंपनी शामिल रही है.

इसके लिए कंसल्टेंट नियुक्त करने का टेंडर सीपीडब्ल्यूडी ने पिछले साल सितंबर में निकाला था. कंसल्टेंसी के लिए 229.75 करोड़ रुपये का खर्च तय किया गया था. इस बिड में एचसीपी डिजाइन को जीत हासिल हुई.

एचसीपी डिजाइन के पास गुजरात के गांधीनगर में सेंट्रल विस्टा और राज्य सचिवालय, अहमदाबाद में साबरमती रिवर फ्रंट डेवलपमेंट, मुंबई पोर्ट कॉम्प्लेक्स, वाराणसी में मंदिर कॉम्प्लेक्स के रीडिवेलपमेंट, आईआईएम अहमदाबाद के नए कैंपस के डिवेलपमेंट जैसे कामों का पहले से अनुभव है


नई संसद के उद्घाटन को सावरकर से क्यों जोड़ा जा रहा है?

65000 वर्ग मीटर क्षेत्र में फैले नए संसद भवनका निर्माण जनवरी 2021 में शुरू
इसे 971 करोड़ रुपए की लागत से बनाया गया है
लोकसभा में 888 सांसदऔर राज्यसभा के 384 सांसद बैठ पाएंगे
नए संसद भवन में संयुक्त सत्र में 1272 सदस्यों के बैठने का प्रबंध
बीबीसी हिंदी
रविवार 28 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के नए संसद भवन का उद्घाटन करेंगे. इसी दिन विनायक दामोदर सावरकर की 140वीं जयंती है. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का अंतिम संस्कार भी इसी दिन हुआ था.

सावरकर को लेकर जिस तरह के विवाद रहे हैं उनके चलते इस बात की कड़ी आलोचना की जा रही है कि केंद्र सरकार ने उनके जन्मदिवस को नई संसद का उद्घाटन करने के लिए चुना.

सावरकर की आलोचना उन माफ़ीनामों के लिए तो की ही जाती है जो उन्होंने अंडमान की सेल्यूलर जेल में बतौर क़ैदी, ब्रितानी सरकार को लिखे लेकिन साथ-साथ बहुत से इतिहासकार और लेखकों का मानना है कि महात्मा गाँधी की हत्या की साज़िश में सावरकर की भूमिका को लेकर लगा सवालिया निशान कभी भी पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुआ.

नए संसद भवन के उद्घाटन की ख़बर आने के बाद महात्मा गाँधी के प्रपौत्र तुषार गाँधी ने ट्वीट कर कहा, “प्रधानमंत्री 28 मई को वीडी सावरकर की जयंती पर नए संसद भवन का उद्घाटन करेंगे. उन्हें भवन का नाम ‘सावरकर सदन’ और सेंट्रल हॉल का नाम ‘माफ़ी कक्ष’ रखना चाहिए.”

कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने इस उद्घाटन को “हमारे सभी संस्थापक पिताओं और माताओं का पूर्ण अपमान” बताया है. साथ ही ये भी कहा कि ये गांधी, नेहरू, पटेल, बोस, और आंबेडकर जैसे नेताओं को पूरी तरह नकारना है.

तृणमूल कांग्रेस सांसद सुखेंदु शेखर रॉय ने कहा कि नए संसद के उद्घाटन के लिए 26 नवम्बर 2023 का दिन उपयुक्त होता क्यूंकि इस दिन संविधान दिवस होता है. उन्होंने ट्वीट कर पूछा, “लेकिन यह 28 मई सावरकर के जन्मदिन पर किया जाएगा- कितना प्रासंगिक है?”

इस बात पर भी सवाल उठाये जा रहे हैं कि नए संसद भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करने जा रहे हैं. आलोचकों का कहना है कि संविधान के वरीयता क्रम के मुताबिक़ नए संसद का उद्घाटन राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति या दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों में से ही किसी को करना चाहिए न कि प्रधानमंत्री को.

कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने एक ट्वीट में कहा कि “राष्ट्रपति से संसद का उद्घाटन न करवाना और न ही उन्हें समारोह में बुलाना – यह देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद का अपमान है. संसद अहंकार की ईंटों से नहीं, संवैधानिक मूल्यों से बनती है.”

वहीं केंद्रीय आवास और शहरी मामलों के मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा है कि अगस्त 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संसद एनेक्सी बिल्डिंग का उद्घाटन किया और बाद में 1987 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संसद पुस्तकालय का उद्घाटन किया. उन्होंने कहा, “अगर आपकी (कांग्रेस) सरकार के मुखिया उनका उद्घाटन कर सकते हैं, तो हमारी सरकार के मुखिया ऐसा क्यों नहीं कर सकते?”

इसी बीच कांग्रेस, टीएमसी, आम आदमी पार्टी सहित 19 विपक्षी दलों ने बुधवार को नए संसद भवन के उद्घाटन का बहिष्कार करने का फ़ैसला किया.

एक संयुक्त बयान में बहिष्कार के कारणों को स्पष्ट करते हुए विपक्षी दलों ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा नए संसद भवन का उद्घाटन करने का निर्णय और राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को पूरी तरह से दरकिनार करना न सिर्फ़ एक गंभीर अपमान है बल्कि हमारे लोकतंत्र पर सीधा हमला है जिसका उचित जवाब दिए जाने की ज़रुरत है.

प्रधानमंत्री के नए संसद भवन का उद्घाटन करने पर विवाद

वरिष्ठ पत्रकार और लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बड़े नामों पर ‘द आरएसएस: आइकन्स ऑफ़ द इंडियन राइट’ नाम की किताब लिखी है.

उनका कहना है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 79 में ये साफ़ तौर पर कहा गया है कि संसद राष्ट्रपति और दो सदनों से मिलकर बनेगी. प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत रूप से संसद में कोई भूमिका नहीं है.

वे कहते हैं, “तो प्रधानमंत्री मोदी का पहले नई संसद का भूमि पूजन करना और अब उद्घाटन करना उचित नहीं है. ये उद्घाटन राष्ट्रपति को करना चाहिए और अगर वो उपलब्ध न हों तो उप-राष्ट्रपति या दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारीयों में से किसी को करना चाहिए. जहां तक संसद का संबंध है, यही वरीयता क्रम है.”

नीलांजन मुखोपाध्याय इस बात को रेखांकित करते हैं कि भारत में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों अलग-अलग हैं. वे कहते हैं, “कार्यपालिका विधायिका नहीं चला रही है. संविधान यही कहता है. तो यह संविधान का उल्लंघन है.”

साथ ही मुखोपाध्याय बताते हैं कि अतीत में कुछ राजनेता इस तरह की चीज़ें कर चुके हैं.

वे कहते हैं कि आपातकाल के दौरान इंदिरा गाँधी ने संसद एनेक्स बिल्डिंग की आधारशिला उस समय रखी थी जब देश में लोकतान्त्रिक अधिकार नहीं थे. इसी तरह राजीव गांधी ने 1987 में संसद के पुस्तकालय भवन का शिलान्यास तब किया था जब वे अपने सत्ता के शिखर पर थे. मुखोपाध्याय के मुताबिक़ संसद पुस्तकालय भवन का भूमि पूजन तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष शिवराज पाटिल ने किया था और उसका उद्घाटन साल 2002 में राष्ट्रपति के आर नारायणन ने किया.

वे कहते हैं, “ऐसा पहली बार हो रहा है कि प्रधानमंत्री ने किसी भवन का भूमि पूजन भी किया और उसका उद्घाटन करने जा रहे हैं. ऐसा उन प्रधानमंत्रियों द्वारा किया गया है जो उस समय अपने कामकाज में बहुत अधिक लोकतांत्रिक नहीं माने जाते थे. तो क्या हम यह भी कह रहे हैं कि मोदी स्वीकार कर रहे हैं कि वह बहुत लोकतांत्रिक नहीं हैं और अब संविधान का उल्लंघन कर रहे हैं?”

संसदीय कार्य मंत्री प्रल्हाद जोशी ने बुधवार को 19 विपक्षी दलों से नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने के अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया. उन्होंने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विपक्षी दल गैर-मुद्दे को मुद्दा बना रहे हैं क्योंकि प्रधानमंत्री पहले भी कई मौकों पर संसद परिसर में भवनों का उद्घाटन कर चुके हैं.

जोशी ने कहा, “बहिष्कार करना और गैर-मुद्दे को मुद्दा बनाना सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है. मैं उनसे अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करने और समारोह में शामिल होने की अपील करता हूं. लोकसभा अध्यक्ष संसद के संरक्षक हैं और अध्यक्ष ने प्रधानमंत्री को आमंत्रित किया है.”

साथ ही उन्होंने कहा कि नए संसद भवन का उद्घाटन एक ऐतिहासिक घटना है और हर घटना का राजनीतिकरण करना अच्छा नहीं है.

28 मई के दिन भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का अंतिम संस्कार भी हुआ था. नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, “यह भी बहुत प्रतीकात्मक है कि वे नेहरू के अंतिम संस्कार की सालगिरह पर नई संसद का उद्घाटन कर रहे हैं.”

सावरकर से जुड़े विवादों के बारे में तुषार गाँधी कहते हैं कि सावरकर के इतने सारे पहलू हैं कि जिसे जो भी पहलू पसंद आए उसके आधार पर उनकी भक्ति या तिरस्कार कर सकता है.

वे कहते हैं, “ये मानना होगा कि सावरकर ने शुरुआत में क्रांतिकारी स्वरुप लिया था जब इंग्लैंड में रहते हुए भारत में क्रांति को उन्होंने प्रोत्साहन दिया. क्रांतिकारी की जो व्याख्या है उसके मुताबिक सावरकर को ज़्यादा से ज़्यादा क्रांतिकारियों का समर्थक कहा जा सकता है. उन्हें क्रांतिकारी तो कहा नहीं जा सकता.”

सावरकर की एक बड़ी आलोचना कालापानी जेल में रहते हुए ब्रितानी सरकार को लिखे उनके माफ़ीनामों को लेकर होती है.

तुषार गाँधी कहते हैं, “कालापानी में जितने भी क़ैदी गए थे उन सब के ऊपर वैसी ही बर्बरता से बर्ताव हुआ. सावरकर उन चंद लोगों में से थे जिन्होंने अंग्रेज़ों से माफ़ी मांगी. बहुत सारे ऐसे क्रन्तिकारी और सत्याग्रही थे जिन्होंने हँसते-हँसते अपनी पूरी कालापानी की सज़ा काटी और अगर स्वतंत्रता के बाद अगर जीवित रहे तो छूट के वापस आए. सावरकर को वीर कहना उन सबका अपमान होगा.”

सावरकर के समर्थकों और प्रशंसकों का कहना है कि माफ़ी मांगना उनकी रणनीति थी ताकि वो छूट के आएं और फिर अंग्रेज़ों से लड़ें. तुषार गाँधी के मुताबिक ये सब बाद में सोचे गए विचार हैं.

वे कहते हैं, “अगर ये मान भी लिया जाए कि वो उनकी रणनीति थी तो छूट के आने के बाद भी उन्होंने स्वतंत्र संग्राम में क्या योगदान दिया? एक भी प्रमाण मिलता नहीं है. उल्टा ये दिखता है कि छूट के आने के बाद उन्होंने कांग्रेस ने जितने भी सत्याग्रह किए, उन सारे सत्याग्रहों को कैसे नाकाम किया जाए उसके ही बारे में अंग्रेज़ों के साथ काम किया. तो माफ़ीनामों को रणनीति कहना एक बचकाना बहाना है.”

ए सूर्य प्रकाश प्रसार भारती के अध्यक्ष रह चुके हैं. वे कहते हैं कि जहां तक सावरकर के लिखे माफ़ीनामों की बात है, तो अगर महात्मा गाँधी और कांग्रेस के कई अन्य नेताओं की लिखी याचिकाओं पर नज़र डाली जाए तो उनमें और सावरकर की याचिकाओं में कोई फ़र्क़ नहीं दिखेगा.

वे कहते हैं, “वे भारत के एक महान सपूत के ख़िलाफ़ यह वीभत्स अभियान चला रहे हैं. 1910 में जब सावरकर ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम पर एक किताब लिखी तो अंग्रेजों ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया. सावरकर कितने महान देशभक्त और क्रांतिकारी थे, यह समझने के लिए उन्हें पढ़ना चाहिए. वह भारत को स्वतंत्र देखने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे.”

नीलांजन मुखोपाध्याय के मुताबिक़ सावरकर को लेकर तीन बड़े सवाल हैं. पहला ये कि क्या वीर का उपनाम पाने के लिए उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में पर्याप्त काम किया? दूसरा, क्या वो कायर थे? और तीसरा ये कि क्या वो महात्मा गाँधी की हत्या की साज़िश में शामिल थे?

वे कहते हैं, “तीनों ही बातों पर आज भी सवालिया निशान बरक़रार हैं. क्या हमें वास्तव में ऐसे व्यक्ति की 140वीं जन्म जयंती पर एक नए संसद भवन का उद्घाटन करना चाहिए जिसने भारत द्वारा चुने गए लोकतांत्रिक रास्ते का समर्थन नहीं किया. ज़्यादा उपयुक्त होता यदि यह 26 नवंबर को ये उद्घाटन किया जाता जो कि भारत का संविधान दिवस है.”

वहीं दूसरी तरफ सावरकर के समर्थकों का मानना है कि सावरकर इसी तरह की स्वीकार्यता के पात्र हैं. सूर्यप्रकाश कहते हैं कि सावरकर की जयंती पर नए संसद भवन का उद्घाटन करने में उन्हें कोई दिक़्क़त नजर नहीं आती.

वे कहते हैं कि भारत में नेहरू-गांधी परिवार की राजनीति ने देश और स्वतंत्रता संग्राम के कुछ महान नायकों और क्रांतिकारियों को दरकिनार करने की कोशिश की है और इन नायकों में वीर सावरकर, बी आर आंबेडकर और सरदार वल्लभभाई पटेल शामिल हैं. अब चीज़ों को सुधारने की प्रक्रिया चल रही है.”

सूर्यप्रकाश के मुताबिक़ जिस तरह सरदार पटेल और बाबासाहेब आंबेडकर को उनके कामों के लिए सराहना नहीं दी गई वही बात वीर सावरकर के बारे में भी सच है.

सावरकर का विरोध और समर्थन

धीरेन्द्र झा एक जाने माने लेखक हैं. उन्होनें “गाँधीज़ असैसिन: द मेकिंग ऑफ नाथूराम गोडसे एंड हिज़ आइडिया ऑफ इंडिया” और “शैडो आरमीज़: फ्रिंज ऑर्गनाइजेशंस एंड फुट सोल्जर्स ऑफ़ हिंदुत्व” जैसी चर्चित किताबें लिखी हैं. वे कहते हैं कि नए संसद भवन का उद्घाटन सावरकर के जन्मदिन पर करना “लोकतंत्र की हत्या” करने जैसा है.

धीरेन्द्र झा कहते हैं, “इस व्यक्ति की जयंती पर लोकतंत्र के मंदिर का उद्घाटन करना एक उपहास के अलावा और कुछ नहीं होगा.”

वे कहते हैं कि “सावरकर 20वीं सदी के पहले दशक में जब ब्रिटेन में थे तब वो ब्रिटिश विरोधी थे. लेकिन एक बार जेल जाने के बाद वह दया याचिका लिखना शुरू कर देते हैं और फिर वह जेल से बाहर आ जाते हैं.”

इससे ठीक पहले सावरकर ने ‘हिंदुत्व: हू इज़ अ हिंदू’ नामक किताब लिखी थी.

धीरेंद्र झा बताते हैं कि ये किताब एक ख़ाका पेश करती है जिसका उद्देश्य ब्रिटिश विरोधी स्वतंत्रता संग्राम को कमज़ोर करना था क्योंकि उन्होनें हिंदुओं को समझाने की कोशिश की कि अंग्रेज नहीं बल्कि मुसलमान उनके मुख्य दुश्मन होने चाहिए.

धीरेन्द्र झा अपनी बात जारी रखते हैं. वे कहते हैं, “जेल से बाहर आने के बाद वे इस ब्लूप्रिंट को बड़ी सावधानी से फॉलो करते हैं. वह कभी भी ब्रिटिश विरोधी संघर्ष के क़रीब भी नहीं गए. जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने हमेशा अंग्रेजों का साथ दिया.”

“इसलिए वह वास्तव में उस प्रक्रिया को कमज़ोर करने की कोशिश कर रहे थे जो भारत में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को जन्म देने वाली थी. उनका पूरा विचार एक हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना था जो उस धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के विचार के खिलाफ था जिसके लिए राष्ट्रवादी लड़ रहे थे.”

धीरेन्द्र झा के मुताबिक़ सावरकर यूरोपीय तानाशाही से प्रभावित थे.

वे कहते हैं, “ऐसे उदाहरण हैं जहां वह जर्मनी में नाज़ीवाद और इटली में फासीवाद की प्रशंसा कर रहे हैं. ये फासीवादी विचारधाराएं अनिवार्य रूप से लोकतंत्र की विरोधी हैं. इसके अलावा उन पर गांधी हत्याकांड का आरोप लगाया गया था.”

“बेशक़ उस समय पर्याप्त सबूतों की कमी के कारण उन्हें छोड़ दिया गया था लेकिन बाद में हत्या के पीछे की साज़िश की जांच के लिए स्थापित कपूर जांच आयोग ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया कि सावरकर उस साज़िश का हिस्सा थे.”

झा कहते हैं, “अगर आप इस सरकार के पैटर्न को देखें, तो आप पाएंगे कि यह सावरकर और गोलवलकर द्वारा निर्धारित सिद्धांतों पर चल रही है. और वे सिद्धांत धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के विचार के ख़िलाफ़ थे. इसलिए सावरकर की जयंती पर संसद का उद्घाटन करके सरकार स्पष्ट रूप से यह संदेश देने की कोशिश कर रही है कि वह लोकतांत्रिक सिद्धांतों के बजाय उन सिद्धांतों की प्रशंसा करती है.”

तो क्या प्रधानमंत्री मोदी को नए संसद का उद्घाटन करना चाहिए?

धीरेन्द्र झा कहते हैं, “मेरा मानना है कि यदि किसी को नई संसद का उद्घाटन करना है तो वह व्यक्ति भारत का राष्ट्रपति होना चाहिए. इसके बारे में कोई संदेह नहीं है.”

वहीं दूसरी तरह ए सूर्यप्रकाश कहते हैं कि सावरकर एक असाधारण दिमाग़ वाले व्यक्ति थे और वे महात्मा गांधी से काफ़ी अलग थे.

वे कहते हैं, “मिसाल के तौर पर महात्मा गांधी जाति व्यवस्था के विरोधी नहीं थे. सावरकर जाति व्यवस्था की घोर विरोधी थे. सावरकर छुआछूत के ख़िलाफ़ और जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए मुखर रूप से बोलते थे. वे हिंदू समाज में कर्मकांडों के विरोधी थे. वे एक बहुत मजबूत और आधुनिक राष्ट्र, विज्ञान की उन्नति और भारत का सैन्यीकरण चाहते थे.”

सूर्यप्रकाश कहते हैं कि महात्मा गांधी के अनुयायी सावरकर के पूरी तरह से विरोधी थे. वे कहते हैं कि चीन और पाकिस्तान जैसे देशों से मिल रही चुनौती को देखते हुए समय आ गया है कि सावरकर के ख्यालों और उनकी राजनीतिक विचारधारा को पहचाना जाए. “अब समय आ गया है कि सावरकर के असाधारण दिमाग को स्वीकार किया जाए. ये ऐसी चीजें थीं जिनकी वह शायद एक सदी पहले सिफारिश कर रहे थे.”

सूर्यप्रकाश के मुताबिक़ पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने भी सावरकर की प्रशंसा में कई बातें कहीं थी. उनके मुताबिक सावरकर लाखों लोगों को प्रेरित करने की क्षमता रखते थे और “नेहरूवादी और गांधीवादियों ने लगातार उनकी विरासत को दफ़नाने की कोशिश की है”. वे कहते हैं, “हम इसकी अनुमति नहीं दे सकते. मुझे लगता है कि भारत को सावरकर के योगदान को स्वीकार करना चाहिए.”

महात्मा गांधी की हत्या की साज़िश का आरोप

सावरकर पर महात्मा गाँधी की हत्या की साज़िश में शामिल होने का आरोप लगा था और उन पर मुक़दमा भी चलाया गया.

लेकिन आख़िर में उनके आरोप साबित नहीं हुए और उन्हें बरी कर दिया गया.

तुषार गाँधी कहते हैं कि जहाँ तक महात्मा गाँधी की हत्या का सवाल है तो आज जो ये कहते हैं कि अदालत ने सावरकर को बाइज़्ज़त बरी कर दिया, वैसा बाइज़्ज़त बरी नहीं किया था.

वे कहते हैं, “कोर्ट ने बड़े स्पष्ट तरीक़े से कहा कि हमें ताज्जुब है कि प्रॉसिक्यूशन ने चार्जशीट दाख़िल करने के बाद पर्याप्त सबूत पेश क्यों नहीं किए. प्रॉसिक्यूशन ने सावरकर के ख़िलाफ़ जो दो गवाह पेश किए थे वो दोनों ही इतने कमज़ोर थे कि बचाव पक्ष उनके बारे में बड़ी आसानी से शक़ के सवाल खड़े कर सका.”

“जब ये तर्क दिया जाता है कि अदालत ने उनको छोड़ दिया था, तो वो इसलिए किया था क्यूंकि कोर्ट के सामने पर्याप्त सबूत पेश नहीं किए गए थे. किसी का निर्दोष साबित होना और किसी का सबूतों के आभाव में छूट जाने में फ़र्क होता है.”

ए सूर्य प्रकाश कहते हैं कि दिल्ली की एक अदालत ने पूरे मामले की जांच की और सावरकर को दोषी नहीं ठहराया.

वे कहते हैं, “नेहरूवादी और गांधीवादी किसी भी तरह सावरकर को गांधी की हत्या में फंसाना चाहते हैं. कोई सबूत नहीं है. सावरकर ने कहीं नहीं कहा कि आपको महात्मा गांधी को मारना चाहिए. वास्तव में वह उन लोगों के ख़िलाफ़ ऐसी किसी भी हिंसा के ख़िलाफ़ थे जिनसे वह असहमत थे.”

“कोई सबूत नहीं था और वह गांधी की हत्या के मुक़दमे में न्यायाधीश का फ़ैसला था. एक बार फ़ैसला आ जाने के बाद मामला ख़त्म हो गया. किसी का भी ये कहना बेहद अनुचित है कि महात्मा गांधी की हत्या में सावरकर की कोई भूमिका थी.”

महात्मा गाँधी के प्रपौत्र तुषार गाँधी कहते हैं कि नए संसद भवन के उद्घाटन के लिए सावरकर की जन्मतिथि को चुनने के सरकार के फ़ैसले से उन्हें कोई ताज्जुब नहीं हुआ और ये अपेक्षित था. तुषार गाँधी के मुताबिक़ प्रश्नचिन्हों से घिरे एक व्यक्ति के जन्मदिवस को लोकशाही के सबसे प्रखर उदाहरण के उद्घाटन के साथ जोड़ना इत्तेफ़ाक़ नहीं है और ये समझ-बूझ कर किया गया है.

वे कहते हैं, “ये सारी कवायद एक मूर्खता है. नई संसद बनाने के लिए इतनी राशि ख़र्च करने की कोई आवश्यकता नहीं थी. यह प्रधानमंत्री का मेग्लोमैनिया (महत्वोन्माद) है कि वह एक ऐसे स्मारक चाहते हैं जिसके बारे में वो शेख़ी बघार सकें.”

तुषार गाँधी का कहना है कि नए संसद भवन का उद्घाटन “अपने नज़रिए के भारत को प्रोजेक्ट करने की कोशिश है”.

“नई संसद में जो सारनाथ का अशोक स्तम्भ बनाया गया है उसमें सिंहों को आदमखोर सिंहों की तरह दिखाया गया है. जबकि जो मूल स्मारक है उसमें सिंह शक्ति का प्रतीक थे लेकिन उसमें डराने की कोई बात नहीं थी. एक झूठी मर्दाना छवि दिखाने की लालसा में उसे भी बदल दिया गया. तो हर चीज़ में जो बदलाव लाने की ज़रुरत दिख रही है उसका प्रतिरूप ये नया संसद भवन है.”

तुषार गाँधी का मानना है कि ऐसा नहीं है कि नए संसद भवन के उद्घाटन की तारीख़ अकस्मात चुन ली गई और बाद में पता चला कि उस दिन सावरकर की जन्म जयंती है. वे कहते हैं, “जानबूझकर उस तारीख़ को संसद का उद्घाटन किया जा रहा है ताकि एक सन्देश जाए कि ये हिन्दू राष्ट्र का प्रतीक होने वाला है. साल 2024 का चुनाव इस बात पर लड़ा जायेगा कि भारत धर्मनिरपेक्ष रहेगा या हिन्दू राष्ट्र बनेगा. तो उसकी शुरुआत इस तरह से की जा रही है.”

क्या है इस मामले से जुड़ी राजनीति

नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं कि सरकार सावरकर को एक राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में उभरने को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं. उनके मुताबिक़ संकीर्ण कारणों से महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सावरकर के प्रति जबरदस्त श्रद्धा है.

राजनीतिक विश्लेषकों का ये भी कहना है कि चूंकि विपक्षी राजनीतिक दलों में सावरकर को लेकर मतभेद हैं इसलिए बीजेपी इसका इस्तेमाल अपने फ़ायदे के लिए करना चाहेगी.

लोकसभा से अयोग्य क़रार दिए जाने के बाद राहुल गांधी ने अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि “मेरा नाम सावरकर नहीं है. मेरा नाम गांधी है और गांधी माफ़ी नहीं मांगते.”

इस बयान के बाद उद्धव ठाकरे ने कहा था कि उनकी पार्टी सावरकर का अपमान बर्दाश्त नहीं करेगी. ख़बरें आई थी कि एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने भी राहुल गाँधी से इस बारे में बात कर उन्हें ऐसी टिप्पणियां न करने के लिए कहा था.

नीलांजन मुखोपाध्याय के मुताबिक सावरकर का समर्थन ज़्यादातर चुनावी राजनीति से जुड़ी वजहों के लिए किया जाता है.

वे कहते हैं, “बीजेपी ये कहने की कोशिश करेगी कि जो भी नए संसद भवन के उद्घाटन का विरोध कर रहे हैं वो सावरकर-विरोधी हैं. लेकिन विपक्ष ने भी चालाकी से काम लिया है. दरअसल वे इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि पीएम ये उद्घाटन कर रहे हैं. सावरकर की जयंती होने के संयोग पर वे चुप्पी साधे हुए हैं.”

धीरेन्द्र झा इस बात से इंकार नहीं करते कि इस पूरे मामले में राजनीति का दख़ल है.

वे कहते हैं, “बेशक़ उद्धव ठाकरे या शिवसेना को फिर से अपनी तरफ़ लाना सरकार का एक मक़सद होगा लेकिन फिर इतिहास के नज़रिए से देखा जाए तो पता चलता है कि जो कुछ भी किया जा रहा है उसका मकसद उन फासीवादी सिद्धांतों को स्थापित करना है जिसे सावरकर और गोलवलकर ने दिया और जिसे मोदी फॉलो कर रहे हैं.”

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राघवेंद्र राव
बीबीसी संवाददाता