उन दिनों “गर्मी के मौसम” का “घर की छत” से बड़ा गहरा रिश्ता था…By-Hrishabh Chaturvedi
Parvez KhanComments Off on उन दिनों “गर्मी के मौसम” का “घर की छत” से बड़ा गहरा रिश्ता था…By-Hrishabh Chaturvedi
Hrishabh Chaturvedi
From Bilaspur, Chhattisgarh
============== उन दिनों “गर्मी के मौसम” का “घर की छत” से बड़ा गहरा रिश्ता था…इसका अंदाजा अब इस बात से ही लगाया जा सकता है कि मेरे पुराने घर की छत पर अब शायद ही महीने में कभी झाड़ू लगती हो या उसे धोया जाता हो… हाँ बारिश हो जाये तो नीचे घर में बैठे लोग ये जरूर कह देते हैं ” अच्छा हुआ छत साफ़ हो गयी होगी आज “
लेकिन एक वो भी जमाना था जब गर्मी के दिनों में शाम होते ही छत पर पानी से किंछाव ( छिड़काव ) करना घर का एक ज़रूरी नियम था।तब नगर पालिका के नल (पानी ) 5 बजे आते थे… पूरे घर में पानी के लिए शोर होता रहता …घर के बड़े- बड़े बर्तनों को जल्दी-जल्दी भर लिया जाता । जैसे – टंकियों, तसलों, भगोनों और कुछ अन्य बर्तनों को भी।ये सब जरुरी भी था क्योंकि अगर पूरी रात बत्ती ना आई तो हैंडपंप पर बाल्टी लेकर लंबी लाइन कौन लगाएगा ?? खैर … पानी भरने के बाद शुरू होता छत पर पानी के किंछाव का सिलसिला और फिर बिछाये जाते सबके बिस्तर।
घर की छत काफी बड़ी थी इसलिए उसके कुछ कोनों और हिस्सों को घरवालों के नाम के आधार पर बांटा गया था… जैसे – एक थी बाबा की छत… वहाँ सिर्फ बाबा के बिस्तर ही बिछाये जाते।13 सदस्यों वाले परिवार में उनके बिस्तर खास थे…खासकर मेरे लिए …1 रुपया अतरिक्त मिलने की जुगाड़ में मेरा हमेशा यही कोशिश रहता कि बाबा के बिस्तर मैं ही बिछाऊँ…ना जाने कितनी बार मैंने यूं ही ही बोल दिया कि मैंने ही बिछाये हैं आपके बिस्तर … बाबा अब हमको दो एक रुपया …
Hrishabh Chaturvedi
खैर बिस्तर बिछाने के आलावा एक और काम था जो उन गर्मियों में बेहद जरुरी था तब।वो थी स्टील की एक बाल्टी और गिलास… जिसे छत के ही एक कोने में रखा जाता और उस पर एक तस्तरी ढक दी जाती।इसमें सबके पीने के लिए पानी होता था …सिवाय मेरे और बाबा के …. बाबा का पानी का लोटा अलग था।और मुझे शौक था मेरी छोटी सुराही से पानी पीने का। जो पापा मेले से लाये थे।हालाँकि 1 गिलास पानी भी नहीं आता था उसमे लेकिन ख़त्म होने पर उसी स्टील की बाल्टी से मैं बार -बार पानी अपनी सुराही में भरता, पीता और फेंकता …ऐसा लगभग तब तक चलता रहता जब तक मैं सो नहीं जाता था।ये शायद शौक के साथ मेरा एक खेल भी था।
पानी की उस बाल्टी के साथ कुछ और भी था जिसे शाम होते ही छत पर लाना बेहद जरुरी था… वो थे ” हाथ वाले पंखे” यानी बीजना…चटाई की तरह बुने हुए वो पंखे घर में कई सारे थे तब…हर कोई शौक में बीजना अपने पास तो रख लेता लेकिन देर तक उसे चलाने की हिम्मत किसी की ना थी ,सिवाय घर की दो औरतों के आलावा…..देर रात जब कभी मेरी आँख खुलती तो इस छत पर मम्मी और उस छत पर अम्मा हाथ में पँखा लिये बैठी हुयीं नींद के झोकों में खुद डोल रही होतीं। जैसे ही थोड़ी हलचल होती पंखा फिर हिलने लगता…ताकि हम बच्चे चैन से सो सकें।
लेकिन नींद चैन की कहाँ आती तब ?? कभी मच्छर तो कभी उमस … हवा का एक झोंका भी ना आता था कभी -कभी।फिर बुआ कहती …” चलो उन शहरों के नाम लो जिसके आगे ” पुर ” लगा हो … तो हवा चलती है … उन दिनों ये शायद एक टोटका की तरह था…जो मुझे अब लगता है कि ” पुर – वाई ” शब्द से आई एक भ्रान्ति थी।लेकिन तब ये टोटके सही भी लगते थे … इसलिए गिनती तुरंत शुरू हो जाती ….मेरी शुरुवात हमेशा बिलास’पुर’ से होती … क्योंकि वो मेरे कस्बे के सबसे करीब था….और नाम लेने के बीच जैसे ही हवा का कोई झोंका आता तो हम बच्चे ऐसे उछलते जैसे मानो ये हवा भगवान् ने हमारी वजह से ही चलायी है।
खैर …उस वक़्त हवा हमारी वजह से भले ही ना चलती हो पर चंदा मामा हमारी वजह से जरूर चलते थे … आसमान की तरफ ऊँगली करते हुए ये कहना कि … ये देखो चंदा मामा चल रहे हैं।और उनके कहीं ठहरते ही ,उस बूढी अम्मा को खोजने लगना जिसकी कहानियाँ उन दिनो गली मोहल्लों में प्रचलित थीं।नींद ना आने के दौरान मेरा सबसे बड़ा टाइम पास था।
चाँद पर वो बुढ़िया तो देर रात खोजने पर भी ना मिलती लेकिन मोहल्ले की इमरजेंसी लाइट जरूर अचानक पीली रौशनी के साथ जल जाती।और उस लाइट के साथ ही मोहल्ले की आसपास की छतों पर भी मेरी छत की तरह हलचल शुरू हो जाती और सुनाई पड़ने लगता…
” चलो नीचे लाइट आ गयी है “
घंटों से बत्ती आने का इन्तजार करने वाले लोग आधी नींद में ही सीढ़ियों से उतरना बेहतर समझते… और कुछ खुले आसमान के नीचे सुकून से गहरे ख़्वाब देखते रहते।मैं भी पापा,या मम्मी की गोद से नींद में ही कब नीचे कमरे में पहुँच जाता पता ही नहीं चलता..लेकिन कई बार सूरज की नन्ही किरणों की रौशनी से या मक्खियों की भिनभिनाहट से आँख खुलती।सुबह हवा के तेज झौंके और पास के कच्चे घर में लगे नीम के पेड़ पर बैठी गौरैयाँ अपनी चहचाहट से सुबह होने का अहसास करा देतीं ….और दूर -दूर तक मोहल्लों की ज्यादार छतों से लोग नीचे जाने की तैयारी कर होते।
तब गर्मियों की शाम कुछ ऐसे ही शुरू होकर जल्दी सबेरे ही ख़त्म हो जाती थी और अब हर मौसम की शाम लगभग एक जैसी ही होती है।कभी-कभी घर की चार दीवारों में बंद दिन कब निकल जाता है पता ही नहीं चलता।सूरज ढलकर चाँद को आमन्त्रित भी कर देता है लेकिन ये अहसास कई बार होता तक नहीं।शायद वजह भी है … साधनों के आभाव में उस वक़्त प्राकृतिक सौंदर्य के बहुत करीब थे हम सब …जैसे – ताज़ा हवा के , सुराही वाले पानी के, चाँद तारों के ,चिड़ियों की चहचाहट के,तड़के सुबह वाली हल्की धूप के और उन अपनों के भी जो तब एक ही घर में एक साथ रहते थे।
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