साहित्य

ज़िन्दगी और मौत के तीन क़िस्से!…. उसे इतना सदमा लगा कि वह फिर से मर गया!!

Kavita Krishnapallavi
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ज़िन्दगी और मौत के तीन किस्से
(ज़िन्दगी और मौत के इन तीन किस्सों में से भी एक किस्सा एक प्रोफेसर साहब का है! दूसरा एक प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार का है और तीसरा गाँव के एक कटु सत्यवादी मुँहफट सयाने का! गाँव के मुँहफट और लेखक-पत्रकार वाले किस्सों में तो सच की बुनियाद पर गप्प की इमारत खड़ी की गयी है, लेकिन प्रोफेसर साहब वाला किस्सा लगभग पूरा सच है )

(एक)
एक गाँव में एक बहुत सयाना, लेकिन खरा-खरा बोलने वाला मुँहफट आदमी रहता था। एक दिन वह मर गया। लोग बहुत रोये। उसे दाह-संस्कार के लिए श्मशान ले गये।

वहाँ सभी लोग उसको भावभीनी श्रद्धांजलि दे रहे थे और इसतरह की बातें कर रहे थे कि वह कितना नेकदिल और भलामानस था, दूरद्रष्टा और तार्किक था, न्यायप्रिय और संवेदनशील था … … सभी उसे दुनिया के सबसे अच्छे शब्दों में याद कर रहे थे और उसकी अच्छाइयों की बातें कर रहे थे।
इतने में मरे हुए आदमी के शरीर में कुछ हरकत हुई और वह चिता पर उठकर बैठ गया। चारों ओर सन्नाटा छा गया। सभी हतप्रभ थे। अभी भी उन्हें एक और चमत्कार का इंतज़ार था कि शायद वह आदमी फिर से मर जाये। घर लौटने के बजाय ज़्यादा लोग अभी श्मशान में ही रुककर इंतज़ार करना चाहते थे I

(दो)
एक बार एक जाने-माने पत्रकार-लेखक को दिल का दौरा पड़ा और वह मर गया। उसके पार्थिव शरीर को हाल में लिटाकर सफ़ेद कपड़े से ढँककर चारों ओर बैठे उसके परिजन और सहकर्मी उसकी उदारता, उसकी परदुखकातरता, उसूलपरस्ती, बहादुरी और न्यायशीलता आदि की चर्चा कर रहे थे। उधर इत्तफ़ाक़ से उस आदमी के दिल ने फिर से धड़कना शुरू कर दिया और वह जी उठा। लेकिन बिना कोई हरकत किये चादर के भीतर से ही वह लोगों की बातें सुनता रहा।
पहले उसे लोगों पर प्यार आया कि लोग उसके बारे में कितनी अच्छी-अच्छी बातें सोचते हैं! फिर उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि उसमें इतनी अच्छाइयाँ भरी हुई थीं और उसे पता भी नहीं था! फिर उसने और सोचा तो उसे लगा कि लोग कितना झूठ बोलते हैं! इससे उसे इतना सदमा लगा कि वह फिर से मर गया!

(तीन)
एक बार एक जाने-माने विद्वान प्रोफेसर बहुत गंभीर रूप से बीमार पड़े। डाक्टर ने जवाब दे दिया। बोला कि अब दो-तीन घण्टों के मेहमान हैं। लेकिन घरवालों को इंतज़ार करते पाँच घण्टे बीत चुके थे। प्रोफेसर साहब के प्राण निकल ही नहीं रहे थे।

फिर बेटों ने माँ से कहा,”मम्मी, अब जो होना है, वो तो तय ही है। अभी हो या दो घण्टे बाद हो। आओ, इधर बैठकर इंतज़ाम सम्बन्धी कुछ ज़रूरी बातें तो कर ली जायें!”

बाजू के कमरे में बैठकर पूरा परिवार बातें करने लगा। पहले दो घण्टे तो बीमा, बचत, शेयर, घर-प्लॉट आदि के मालिकाने के सभी काग़ज़ात देखने-समझने लग गये। बीच-बीच में थोड़ी नोंक-झोंक और बहसाबहसी की आवाज़ें भी आईं। उसके बाद अंतिम संस्कार संबंधित बातें बीस-पच्चीस मिनटों में ही निपट गयीं। फिर ज़्यादा से ज़्यादा भव्य शोक सभा करने की व्यवस्था पर कम से कम दो घण्टे तफ़्सील से बातें हुईं — युनिवर्सिटी ऑडिटोरियम बुक कराने, वाइसचांसलर, स्थानीय एम.पी.-एम.एल.ए., शहर के मेयर आदि-आदि की उपस्थिति सुनिश्चित करने के बारे में और तमाम ऐसी चीज़ों के बारे में… …
बगल के कमरे में बिस्तर पर लेटे हुए मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए प्रोफेसर साहब अर्द्धनिद्रा-अर्द्धजागृति की सी अवस्था में ये सारी बातें दिलचस्पी और दुःख के साथ सुन रहे थे। उधर मौत थी कि कम्बख़्त आ ही नहीं रही थी!
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