साहित्य

धन्य हैं हम कि इस समय के साक्षी रहे!


Kavita Krishnapallavi
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धन्य हैं हम कि इस समय के साक्षी रहे!
ये इक्कीसवीं सदी के शुरुआती सौभाग्यशाली दशक थे
जब विकटतम तिमिराच्छन्न दिनों के बावजूद
हिन्दी भाषा के सभी अच्छे कवि
इतने अच्छे थे, इतने अच्छे थे
कि फ़ासिस्ट और हत्यारे तक
उनकी कविताई के क़ायल थे I
उनके दिल इतने अच्छे थे, इतने अच्छे थे
कि उन्हें हत्यारों से, फ़ासिस्टों से,
भँड़वों से या दलालों से कभी
किसी तरह की घृणा महसूस ही नहीं होती थी I
बल्कि उनके दिलों में बेइख्तियार मुहब्बत
उमड़ पड़ती थी I
वे इतने भले थे कि बुराइयों को देखना
बर्दाश्त ही नहीं कर पाते थे
और बुरी से बुरी बुराई में भी
अच्छाई देख लेते थे I
कविता की कला को लेकर वे इतने
संवेदनशील थे कि कहते थे कि हमें तो
अच्छी और कलात्मक कविता का
मुरीद होना चाहिए चाहे वह कोई
प्रचंड ब्राह्मणवादी लिखे या कोई कोठे का दल्ला
या कोई हत्यारा या फ़ासिस्टों का कोई दरबारी
या कोई दुर्दांत दुराचारी या बर्बर बलात्कारी I
उनके हृदय में इतना प्रेम होता था लबालब
कि किसी स्त्री को देखते ही छलक पड़ता था
और वे दुनिया की तमाम स्त्रियों के दुख से
हमेशा दुखी रहा करते थे I
वे इतने शान्तिप्रिय थे कि किसी भी तरह की
हिंसा उन्हें असहनीय लगती थी और इसलिए
उस ओर देखते ही नहीं थे और हमेशा
शान्ति की और प्यार की बातें करते रहते थे I
वे इतने उदारमना थे कि आमंत्रण मिलने पर
नहा धोकर वहाँ भी जीमने पहुँच जाते थे
जहाँ जनसंहार के बाद ख़ून सने हाथों से
पूरियाँ-कचौरियाँ परोसी जा रही होती थीं I
परंपरा और इतिहास से इतना था लगाव उन्हें कि
मार्क्स और लेनिन और
अक्टूबर क्रांति की वर्षगाँठ के अतिरिक्त
अपने पिता के जनेऊ-खड़ाऊँ
और माता जी के छठ व्रत और तीज-त्योहार को
याद करते हुए उन्होंने अभिभूत कर देने वाली
बीसियों कविताएँ लिखीं थीं I
उनके जीवन जीने और
उनकी कविता की कला में जादू था इतना कि
कब वे बाँये बाजू से दाँये बाजू
और दाँये बाजू से बाँये बाजू चले जायेंगे,
कब नेरूदा के साथ शराब पीते और कब
चित्रकूट के घाट पर तुलसीदास से
चरणामृत ग्रहण करते
और कब अशोक वाजपेयी के साथ वसंत विहार
करते देखे जायेंगे,
कब प्राक्-आधुनिक, कब आधुनिक और कब
उत्तर-आधुनिक हो जायेंगे,
कब ‘इंटरनेशनल’ गाते-गाते
‘रघुपति राघव राजा राम’ गाने लगेंगे,
या कबीर के पद गाते-गाते
सुन्दरकाण्ड का पाठ करने लगेंगे,
यह महानतम मार्क्सवादी आलोचक भी
नहीं समझ पाते थे और इसलिए मुग्ध होकर
उनके लिए श्रेष्ठ से श्रेष्ठ पुरस्कारों की
अनुशंसा कर देते थे I
एक गोष्ठी में तमाम दस्तावेज़ी साक्ष्यों के साथ
बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के उत्तमोत्तम
जनवादी और प्रगतिशील माने जाने वाले
दो दर्जन कवियों ने एक संयुक्त वक्तव्य जारी किया
और बताया कि पिताजी की साइड से तुलसीदास
और माताजी की साइड से कबीरदास
उनके महान पूर्वज थे!

 

डिस्क्लेमर : लेखिका के निजी विचार हैं, तीसरी जंग हिंदी का कोई सरोकार नहीं है