साहित्य

मधु मालती जी और ‘भूल-ग़लती’ का क़िस्सा…बेहद अँधेरे दिनों में भी हँसना ज़रूरी होता है!!

Kavita Krishnapallavi
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( बेहद अँधेरे दिनों में भी हँसना ज़रूरी होता है I जीवन की विडम्बनाओं पर, त्रासदियों पर, अपने दुश्मनों पर, फ़ासिस्टों पर, नकली वामपंथियों पर, लिबलिब लिबरलों पर, कूपमंडूक “सद्गृहस्थों” पर दिल खोलकर हँसना चाहिए I हँसना ऊर्जस्वी और ताज़ादम बनाता है I इसलिए एकदम उन्मुक्तता और निर्मलचित्तता के साथ हँसना ज़रूरी है I
हाल के दिनों में बहुत सारे पाखंडियों, दुरंगे चरित्र के लोगों, अवसरवादियों, कैरियरवादियों पर शब्दों के चाबुक ख़ूब बरसाने पड़े हैं I और जैसे हालात हैं, आगे भी यह काम लगातार जारी रखना होगा I
तो इस बीच के समय में, थोड़ा विराम लेकर, आइए, निर्मल मन से थोड़ा हँस लिया जाये. आपको एक मज़ेदार किस्सा सुनाती हूँ, एकदम सच्चा! पहले कभी सुना चुकी हूँ, लेकिन फिर-फिर सुनाने लायक है!)

मधु मालती जी और ‘भूल-ग़लती’ का किस्सा
हमारे एक कामरेड हैं । छात्र जीवन में बजरिए साहित्य गली मार्क्सवादी मार्ग पर आये थे । पढ़ने में काफ़ी अच्छे थे, लेकिन कुछ कारणों से दूर गाँव में रहने वाला उनका परिवार आर्थिक संकट में आ गया । पढ़ाई जारी रखना मुश्किल हो गया, सो उन्होंने ट्यूशन से ख़र्च निकालने की सोची । काफ़ी ढूँढ़ने के बाद पंसारी छेदालाल साहू की इकलौती नखरीली महाभोंदू लड़की मधु मालती का ट्यूशन मिला जो इण्टरमीडिएट में दो बार फेल हो चुकी थी ।
कामरेड की एक ख़ास आदत यह थी कि वह जिस समय जो साहित्य पढ़ते होते थे उसमें एकदम डूब जाते थे । पात्र-कुपात्र की चिंता किये बिना सबको वही सुनाते रहते थे, उसके बारे में बताते रहते थे । उन्हें यह भी लगता था कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को साहित्य-प्रेमी बना दिया जाये । साहित्य के जरिए मार्क्सवादी बना देने के बारे में भी वह उत्कट आशावादी हुआ करते थे ।
छेदालाल की सुकन्या मधु मालती को ट्यूशन देते एक महीने का समय बीत चुका था । इस बीच कोर्स की पढ़ाई से अधिक समय वह मधु मालती को बाल्ज़ाक, डिकेंस, चेख़ोफ़, गोर्की, प्रेमचंद, यशपाल, भीष्म साहनी, निराला, शमशेर, मुक्तिबोध आदि-आदि के बारे में बताते हुए और कविता-कहानी सुनाते हुए ख़र्च करते थे । निर्धारित समय से भी अधिक समय लगाते थे । कन्या जिस तल्लीनता से और मुग्ध भाव से साहित्य-चर्चा सुनती थी, उससे कामरेड को भरोसा भी हो चला था कि मधुमालती की बेल साहित्य के छज्जे चढ़ जायेगी ।
छेदालाल की पुश्तैनी किराने की दुकान उनके घर के ही बाहरी हिस्से में थी । पत्नी जन्मना मंदबुद्धि थीं और गठिया की मरीज़ भी । इसलिए ग्राहकों को निपटाते हुए वह घर के भीतर-बाहर भी निगाह रखते थे और लाडली बिटिया की चौकीदारी भी करते रहते थे जो उनके ख़याल से रूपवती होने के साथ ही कुछ चंचल-चित्त और भोली भी थी ।
इधर कुछ दिनों से छेदालाल के कान खड़े रहने लगे थे और नाक कुछ बुरी गंध महसूस करने लगी थी । ‘यह मास्टर एक घंटे के पैसे लेकर हमेशा डेढ़-दो घंटे क्यों पढ़ाता है?’ — इस प्रश्न का उनका दिमाग़ बस एक ही जवाब देता था और वो यह कि मास्टर लड़की पर डोरे डाल रहा है । फिर छेदालाल ने सच जानने के लिए छुपकर गुरु-शिष्या संवाद सुनने का फ़ैसला किया ।
जिस समय छेदालाल ने यह ऐतिहासिक, सनसनीखेज फ़ैसला लिया उनदिनों गुरूजी मुक्तिबोध की ‘भूल-ग़लती’ कविता में गले-गले तक डूबे हुए थे । उसदिन वह मधु मालती को भी वही कविता सुना रहे थे : “भूल-ग़लती / आज बैठी है / जिरहबख्तर पहनकर / तख़्त पर दिल के !” छेदालाल परदे के पीछे से सुन रहे थे । सहसा उनके सामने सारा रहस्य खुल गया । धड़धड़ाते हुए कमरे में घुसते हुए वह बोले, “मास्टर, मैं सब समझ रहा हूँ । कबित्त में मधु मालती को भूल गल्ती कहकर हमें उल्लू नहीं बना सकते ! हमने भी बहुत दुनिया देख रक्खी है । और मेरी राजकुमारी तुम्हारे दिल के तखत या खटिया पर बैठेगी जीराबस्तर पहनकर — यह तुमने सोच भी कैसे लिया ? इसकी शादी हम खेतान पेट्रोल पंप के मालिक के इकलौते बेटे से तय करने वाले हैं । हमारे सबकुछ की वारिस यही तो है । गहनों से लदी सोने के पलंग पर बैठी राज करेगी । तुम कंगाल आदमी ! अपनी औकात तो देखो ! बहुत पढ़ाई हो चुकी मास्टर ! अब इस महीने के चार दिन और बचे हैं । पाँचवे दिन आकर अपना हिसाब ले लेना!”
छेदालाल यह कहकर गुरूजी को कुछ कहने का मौक़ा दिये बग़ैर बाहर निकल गये । गुरूजी अपने को सम्हाल पाते, इसके पहले ही मधु मालती दाँत से नाखून चबाते हुए और अपने ख़याल से बिजली गिराती हुई बोल पड़ीं,”माट्साब ! बाबूजी की बात को दिल पर मत लीजिए ! अब चाहे भूल से कहिए चाहे गल्ती से! ऊ का है कि हम, का नाम कि का का पहिरके आपके दिल के तखत पर तो बइठिए गये हैं ! तो अब उतरेंगे थोरो न ! फिकिर मती कीजिए । हम अपनी सहेली का पता दें देंगे । उहाँ मिलते रहेंगे हमलोग । आ पइसा भी हम आपको महीने का देते रहेंगे, ऊ भी बिन पढ़ाये ! हाँ, भूल गल्ती हमको पढ़ाते रहिएगा !” कहकर मधु मालती अपने पीले दाँतों और कत्थई मसूड़ों का अकुण्ठ भाव से प्रदर्शन करते हुए हिल-हिलकर हँसने लगीं ।
(6 May 2021)

Kavita Krishnapallavi
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भुने गर्म आलू, पसीने के नमक, एक प्याली चाय और चाँदनी रात वाली कविता का ‘ट्रैजी-कॉमिक’ किस्सा
कोई किस्सा सुनाये बहुत दिन हुए I एक आपबीती सुनाती हूँ जो किसी बेहद दिलचस्प किस्से से भी कम दिलचस्प नहीं है I थोड़ी ‘ट्रैजी-कॉमेडी’ टाइप है I
बहुत पुरानी बात है, कालेज के दिनों की! बीए के पहले साल की I कविताओं वाली भाषा मुझे समझ नहीं आती थी I मन में यह गहरा पूर्वाग्रह था कि लड़के लड़कियों को पटाने के लिए कविताओं की भाषा में बात करते हैं और कविताएँ, ग़ज़ल वगैरह सुनाते हैं I
क्लास में एक भला सा लड़का था I कविताएँ ख़ूब पढ़ता था और सुनाता भी था I मेरा बहुत ख़याल रखता था और हर समय सहायता के लिए तत्पर रहता था I एक बार उसने अंग्रेज़ी में कोई कविता सुनाई और फिर उसका कुछ ऐसा निहितार्थ बताया: “तुम्हारा हृदय जैसे भूखे मज़दूर के सामने एक भुना हुआ गर्म आलू/ तुम्हारे हाथ जैसे सर्दियों की सुबह गर्म चाय की एक प्याली/ होठों पर पसीने की बूँदों में समंदर के नमक की याद/ तुम्हारा साथ जैसे चाँदनी में भीगना सारी रात!” .. … ऐसा ही कुछ था, मुझे अभी भी याद है!
बस फिर क्या था! मुझे लगा आज तो इसने डोरा डालना तो क्या, पूरी कँटिया ही लगा दी I मैंने तुरत कहा,”अरे मैं सब समझती हूँ I तुम उसी चाँदनी में बैठकर समंदर की याद दिलाने वाले पसीने के नमक के साथ गर्म भुना हुआ आलू खाकर एक प्याली चाय पीना चाहते हो! भूल जाओ बच्चा ! मुझपर कविता-फविता का यह दाँव नहीं चलेगा I मैं सब समझती हूँ I मैं नहीं फँसने वाली I तुम्हें तो मैं बहुत शरीफ़ समझती थी और तुम क्या निकले!’
उस कविहृदय लड़के को तो मानो साँप सूँघ गया! काटो तो ख़ून नहीं! धीरे से उठा और भारी कदमों से चलता दूर चला गया I यह बात जल्दी ही पूरे कालेज में फैल गयी I मैंने ही अपनी समझदारी के किस्से के रूप में कई सहेलियों को बताया! अगले हफ्ते भर वह कालेज नहीं आया I अगले दो साल हम एक ही क्लास में रहे, पर हमारे बीच कोई संवाद नहीं रहा I
अब तो पता नहीं वह भलामानस कहाँ होगा और अपने साथ हुई वह भीषण काव्यद्रोही क्रूरता उसे याद भी होगी या नहीं!
सोचती हूँ अगर उसे पता चले कि मैं अब कविताएँ लिखती हूँ तो शायद एकबारगी उसकी हँसी छूट पड़े I या शायद कविताएँ लिखने-पढ़ने को अब वह ख़ुद ही एक अहमकाना हरकत या खब्त या दिमाग़ी फितूर मानने लगा हो और एक बहुत सफल और व्यावहारिक नागरिक के रूप में समाज के ऊपरी पायदानों पर कहीं व्यवस्थित हो गया हो!

 

डिस्क्लेमर : लेखिका के निजी विचार हैं, तीसरी जंग हिंदी का कोई सरोकार नहीं है