साहित्य

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर…By-सर्वेश तिवारी श्रीमुख

Sarvesh Kumar Tiwari
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हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर…
चतुर्दिक फैली विशाल जलराशि! जहाँ तक दृष्टि जाय वहाँ तक जल ही जल। मानुस क्या, चिरई चुरुङ्ग का कहीं अता-पता नहीं। पर्वत के शीर्ष पर बैठे मनु के हृदय में और क्या होता, सिवाय शोक के?
मानुस को जीने के लिए सबसे पहले मानुस चाहिये। साथ-सहयोग के लिए, उल्लास में सहभागी होने के लिए, विवाद के लिए, संघर्ष के लिए या प्रेम के लिए… घृणा के लिए भी! मानुस को सब चाहिये! प्रेम, सहयोग, विवाद, संघर्ष, घृणा, सबकुछ… किसी एक के बिना भी काम नहीं चलता! घृणा रहित समाज गपोड़ियो की कल्पना भर है। मनु के पास कुछ नहीं था। थीं, तो नष्ट हो चुके संसार की बीती पुरानी बातें थीं, पर न कोई सुनने वाला था न ही कोई कहने वाला!
बाढ़ उतर रहा था, जल कम हो रहा था। और पर्वत शिखर पर अटके मनु सोच रहे थे, प्रलय क्यों आया? देवों में जीवन को लेकर पसरी निश्चिन्तता थी, इस निश्चिन्तता ने उन्हें विलासी बना दिया। व्यक्ति यदि जीवन के संघर्षों से मुक्त हो जाय तो विलासी हो ही जाता है। केवल अपना दैहिक भौतिक सुख ढूंढते लोगों ने प्रकृति की एक न सुनी, उसका बार बार दोहन किया। नदी, पर्वत, भूमि, हरियाली, सबको तहस नहस कर दिया। अंततः प्रकृति को इसका प्रतिशोध लेना ही था न? सो ले लिया। एक ही प्रहार में सबकुछ नष्ट हो गया। विश्वविजेता होने का घमंड, सर्वश्रेष्ठ जीव होने का दंभ, बौद्धिकता के अतिवादी दावे, विकास के अनैतिक प्रपंच, एक झटके में सब समाप्त हो गए। सब गल गए, और एक जो बचा वह पर्वत की चोटी पर फँसा उसी प्रकृति से जीवन की भीख मांग रहा था जिसकी सबने मिल कर हत्या की थी।
सनातन मान्यताएं कहती हैं- मनु एक ही नहीं हुए। बार बार हुए, बार बार होंगे। जब जब मनुष्य विलास के नशे में प्रकृति का नाश करेगा, कोई न कोई मनु बन कर किसी शिखर पर अटकेगा। ध्यान से देखिये तो, अगले मनु की आहट नहीं मिल रही क्या?
जल उतर गया। मनु उतरे! हर ओर निहारा कि कहीं तो कुछ दिख जाय… जिसमें आशा हो, जीने का कारण हो, शुभ का संकेत हो… कुछ नहीं। प्रकृति जब मारती है तो साफ नङ्गा कर देती है। कुछ नहीं छोड़ती! कुछ भी नहीं…
सूर्य चमकने लगे। पेड़ पौधों पर रङ्ग उतर आया। रात्रि में तारे और चंद्रमा खेलने लगे। सबकुछ पूर्ववत सुन्दर हो गया, पर मनु के पास कोई सङ्गी नहीं था। और जबतक कोई संगी न हो, तबतक सबकुछ सुन्दर हो कर भी कुछ सुन्दर नहीं होता। है न?
मनु इस घनघोर उदासी में अपने लिए आत्महत्या चुन सकते थे, पर नहीं चुना। उन्होंने दुखों से मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग चुना, वैराग्य। धर्म, तप, जीवन…
और फिर एक दिन! तप में रत मनु ने एक स्त्री स्वर सुना- “समुद्र की लहरों द्वारा किनारे पर फेंक दी गयी किसी नीलमणि समान तेजस्वी पुरुष! कौन हो तुम? यहाँ कैसे?”
मनु ने मुड़ कर देखा, वह अद्वितीय सुंदरी! अद्वितीय इसलिए भी क्योंकि कोई और था भी नहीं। आप मानें न मानें, संसार में सबसे सुंदर वस्तु वही होती है जो हमारे पास उपलब्ध हो। मनु ने ध्यान से देखा उस स्त्री की ओर, उनके हृदय में पहला भाव जन्मा, प्रेम!
मनु से उन्हें नाम दिया- श्रद्धा! “प्रेम” का नाम “श्रद्धा”? क्यों भला? सोचिये!
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।